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बुधवार, 31 अक्टूबर 2018

रावण दहन


आज फिर पुतला जलेगा
राख ढेरों में शहर लिपटेगा
बारूदी धुंवें में दुभर होंगी सांसे
रावण अवशेष वैसे ही अट्टहास भरेगा

अर्थ सारे व्यर्थ हैं
दानवी चलन वैसे ही अनर्थ हैं
पापी पुतले अकड़े  हैं
ज़िंदे रावण वैसे ही खड़े हैं

तंत्र कुम्भी नींद मदहोशी में हैं,
कर्मकार मेघनाथ जैसे निर्दोषी है
जनता तमाशाबीन मूक बधिर खड़ी है
खिसको यहां से मेरी क्या पड़ी है।

कागजी रावण हर वर्ष जलता  है
अंदर का रावण वैसे जी हंसता है
राम बाण शब्द जालों में भ्रमित है
मर्यादा निर्बल लोगों तक सीमित है।

जरूरत है अंदर के रावण दहन करने की
मेरा तो क्या भावनाओं को समन करने की
रामराज्य खुद व खुद चौक से चौबारे आयेगा
भारत फिर से सोने की चिड़िया कहलायेगा।

@ बलबीर राणा 'अड़िग'



बुधवार, 3 अक्टूबर 2018

श्रम शक्ति


 कमी रखता नहीं कोई रह जाती है
राह संभलते भी ठोकर लग जाती है
अवरोध नहीं होता हर कोई प्रस्तर
कंकरी छोटी सी भी रोड़ा बन जाती है।

इम्तहान है जिंदगी का हर एक लम्हां
प्रश्न एक के बाद एक सामने आता है
पन्ने भरने की कोशिश हर कोई करता है
फिर भी कोई पन्ना कोरा ही रह जाता है।

सफर है यह जिंदगी चलती का नाम गाड़ी है
न चाहते हुए भी कुछ अवशिष्ट छूट जाता है
कोशिश करता है हर कोई निशानी छोड़ने की
वाकिया नुक्ता सा भी निशानी मिटा देता है।

रंग मंच है यह जिंदगी खुल के अभिनय करने का है
क्रीड़ा स्थली है यह यहाँ खूब जमके खेलना का है
ऐसा संभव नहीं हर मैच में जीत तेरी ही हो अड़िग
लेकिन  तन मन से श्रम शिल्प नहीं छोड़ने का है।

@ बलबीर राणा "अड़िग"