सर माथे पंचजूनी पर्वत छत्रछाया
धरती की यह सुंदर मोहनी काया
जिसके मस्तक शिव शंकर बिराजमान
कलित मनोहर प्रकृति परिधान।
जहां भद्र से पहली रवि किरण पड़ती है
वह देवांगन बैरासकुण्ड की दिव्य धरती है।
हरे भरे बन, बांज बुरांस की शीतल बयार
दशानन तपस्थली धारा विहंगमता आपार
आशुतोष सिद्धपीठ, प्रकृति अनुपम छटा
चहल पहल सुखी वैभव जीवन घटा।
जहां भाईचारा व मानव आत्मा बसती है
वह देवांगन बैरासकुण्ड की दिव्य धरती है।
सौम्य मटई बैरूँ की हरी-भरी सैणी सार
अति रमण रमणीय फेन्थरा सेमा की धार
कल कल करती चरणों में मोलागाड़ सदानीरा
लहलहाते खलतरा मोठा चाका के सेरा।
जंगलों को संवार पर्यावरण रक्षा जहां होती हैं
वह देवांगन बैरासकुण्ड की दिव्य धरती है।
देव थानों की भुमि पुण्य अति पावन
हीत दोणा देणी भुम्यालों का आंगन
रहा वशिष्ठ मुनि आश्रम कहते पुराण
लगते हर वर्ष पुज्य पांडवो के मंडाण।
जो दिग दर्शन महा हिमालय का कराती है
वह देवांगन बैरासकुण्ड की दिव्य धरती है।
गमन अब इस देव स्थली में हो गया आसान
सुगम यात्रा मोटर वाहन हर समय चलायमान
सच्चे मन से जो मांगोगे भोले मन्न्त करेंगे पूरी
नयनाभिराम मिलेगा, यात्रा नही लगेगी अधूरी।
बार बार जिसके दीदार को आंखे तरसती है
वह देवांगन बैरासकुण्ड की दिव्य धरती है।
रचना : बलबीर राणा 'अड़िग'