वीर सपूत बीरसिंह
भारत माता की सेवा में जीवन का सर्वोच्च बलिदान दे गया था, एरां भगवान् ऐसा अनर्थ क्यों किया अभी तो नौकरी भी ज्यादा नहीं हुयी थी, अभी
अभी तो शहर में मकान बनाया था बल्कि कुछ काम अभी भी बाकी था, आम इन्शान की तरह उसके
वादे थे, गाँव के मकान की मरम्मत करना, बेटे और बेटी को अच्छी स्कूल में पढ़ाना
ऊँची शिक्षा देना, बूढ़े माँ बाप को चार धाम की यात्रा कराना, फ़ौज में बड़े पद तक पहुंचना लेकिन होता वही जी राम रचि रखा।
घर के बाहर भीड में गाँव वाले,
मीडिया, राजनेता नेता विधायक, मंत्री, नजदीकी रिश्तेदार
सब आये थे। इतने में भारत माता की जय, बीर सिंह अमर रहे, पाकिस्तान मुर्दाबाद, बीर सिंह अमर रहे के नारे लगने लग गए। बीरसिंह का पार्थिक शरीर तिरंगे में लिपटे ताबूत में सेना
के जवान ला रहे थे। सलामी रस्म के लिए फौजी बेंड, जवान और ऑफिसर आये थे, किसी रिश्तेदार ने एक कंधे में ताबूत दूसरे कंधे में वैभव को उठा रखा था, वह अबोध भी जनता के जोश के साथ हाथ उठा- उठा कर बीरसिंह अमर रहे के नारे लगा रहा था। अंतिम दर्शन के लिए ताबूत खुला परिजनों ने वेहाली में बिलखते हुए शहीद का अंतिम दर्शन
किया, मासूम वैभव को भी अंतिम दर्शन के लिए ले गए, बक्से में चिर निद्रा में पापा को देख वह मासूमियत से कह रहा था पापा उठो...उठो न ! इस बक्से में क्यों सोये हो? सुनो सब आपको अमर रहे,
कह रहे हैं, उठो न.... उठो.. । रोवो चिल्लाओ मृत देह कहाँ आवाज देती है। उस अबोध को क्या पता था पापा मातृ भूमि के लिए हमेशा की अनंत यात्रा पर चले गए
हैं। अब कभी नहीं उठेंगे। कारुण्य और करुणा के
इस विह्वल दृश्य से पत्थर भी आँशू नहीं रोक पा
रहा था।
कहानी : बलबीर सिंह राणा 'अडिग'