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शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

माँ का सन्दूक



     


    ऐ पूसू लालाऽऽ। है रे कोई घर पर ? माँ ने पुष्कर (पूसू) लाला के चौक की मुंडेर से आवाज लगाई। हाँ, आ रहा हूँ। कौन है ? कैसे लोग हैं पूजा भी नहीं करने देते सुबह सुबह क्या चाहिए होगा ? पुष्कर लाला पूजा की घंटी बजाते हुए मन ही मन बड़बड़ाया। माँ ने पुष्कर लाला के चौक की मुंडेर पर कर्छुले से दरांती निकाल टिकातें हुए बोली, पूसू बाहर आ क्या कर रहा है अन्दर ? घाम दुपहरी को आया है तेरी पूजा अभी तक चल ही रही है अरे ज्यादा पूजा पाठ से नहीं होता जो भाग्य में लिखा है वो मिल जाएगा, जल्दी आ मुझे अभी बहुत काम है। कुछ देर बाद पूसू लाला पूजाघर से बाहर आते हुए बोला, बोजी क्या चाहिए क्यों इतनी हड़बड़ाहट में है ? मिल जायेगा सारी दुकान तुम्हारी ही है। माँ ताना देते हुए बोली, हाँ हाँ दुकान हमारी क्यों नही होनी है ! तेरी दुकान ही तो है मेरा चव्वा खाली करने पर लगी है। लाला, क्या बोल रही है ? क्या हो गया तुझे आज सुबह सुबह ? मेरे पास तो उज्याड़ खाने वाले गाजी भी नहीं है खुंडे पर एक भैंस बंधी है घास पानी खुंडे से बाहर नहीं फिर मुझे क्या सुना रही है आज सुबह- सुबह ।

     अरे लाला उज्याड़ खाया होता तो कोई बात नहीं थी, पर तुने काम ही ऐसा किया कि तेरी धोण काटनी हो रखी है। लाला, काट दे मैने जो इतना गुनाह किया तो। बोल क्या बात है? अपने घर की बात है परेसान न हो। माँ रुआँसी होते हुए बोली, लाला तू मेरे पैंसे वापस दे दे मैने कैसे-कैसे एक-एक करके  जोड़े थे। लाला सकते में, अरे बोजी तेरी तबियत तो ठीक है न ! क्या बोल रही है कौन से पैंसे कैसे पैंसे ? कब दिए तूने मुझे पैंसे ? आ हा हा ! कौन से पैंसे ? देखो कैसे अनजान बन रहा है। ऐसा अन्यों करेगा तो कैसे पचेंगे तुझे ? माँ ने गुस्से में कहा। दुकानदार अचरज में पड़ गया कि मैने इनसे कोई पैंसा लिया नहीं लेकिन ये ऐसा आरोप क्यों लगा रही है। लाला कुछ सोचने के बाद बोला, अच्छा …! तो ये बात है ।

     लाला समझा गया था। लाला हँसते हुए बोला, तभी तों, मैं सोचता था कि ये लड़का डेली पैंसे कहाँ से लाता है। माँ, हाँऽऽ..... ! चल अब दाँत मत निपोड़। इतना मातबर मत बन। तु सोचता तो मेरी घर कूड़ी खाली नहीं होती।  अरे बोजी मैं सोचता था कि अपका बुड़ापे का लड़का है और तुम उसे देते होंगे। अरे इतना तो पार चैंधार वाला मास्टर और तल्ला ख्वाळा का सुबेदार भी नहीं देता अपने बच्चों को। सम्भालो अपने लड़के को। बल ‘सुई पर गीजी च्वोर मौड़ पर गीजी मनस्वाग‘। आज अपने घर का सफाचट कर रहा है कल हमारे घर में भी हाथ साफ करेगा, लाला उपदेश पर आ गया।

     माँ, फिर ताना देते हुए। ओ हो हो....! हे मेरा इमानदार। पूसू तू भला काम नहीं कर रहा है, मेरी जड़ घाम लगेगी तो फिर देख गरीब के आँसू कहाँ लगेंगे। अरे जब तू समझा गया था कि बच्चा घर से पैंसे चुराकर तेरी दुकान से टॉफी बिस्कुट खा रहा है तो तूने हमको क्यों नहीं बताया ? कुछ जमीर बचा या नहीं ? हाँऽऽ... तुम दुकानदारों को तो अपनी बिक्री से मतलब है। अब हिंकी फिंकी न कर और मेरे जितने पैंसे हैं तेरी दुकान में आये हैं उसे लौटा दे। लाला। अच्छा ! कितनी सयानी हो रखी है, जैसे ये सब समान तूने खरीद कर रखे हों मेरे पास। मेरी टोफी बिस्कुट जैसे फ्री के आ रखे होगें। तेरा बेटा पिछले तीन महिने से खुद भी चटका रहा है और अपने दोस्तों को भी खिला रहा है। तभी तो ! मैं कह रहा था कि आजकल मस्तू मास्टर और सोबनी सुबेदार का लड़का तेरे बेटे के साथ एक गळज्यू क्यों हो रखे हैं, हर समय उसके साथ चिपके रहते हैं। कोई चीज होती तो मैं बोलता वापस कर दो, अब खाने वाली चीज कैसे वापिस करोगे ? कर सकते हो तो कर दो मैं आपके पैंस वापस कर दूँगा वैसे एक बार खरीदा हुआ समान वापस नहीं होता।  

     माँ फुसलाने वाले अन्दाज में, चल ये बता वो खडोण्यां आज तक कितने पैंसे लाया होगा तेरे यहाँ ? लाला इतना हिसाब मैंने भी नहीं लगाया लेकिन लगभग पाँचेक सौ से ज्यादा तो चटका गया होगा, तीन महिने से लगभग हर दिन आ रहा वह दुकान में। माँ, यहाँ क्या किसी और दुकान में से भी खाता होगा, पाँचेक सौं से गड्डी इतनी कम नहीं होती। वो तो कल मेरी नजर पड़ गयी कुट्यारी पर। तू ही बता लाला, मैं तो ठैरी निरपट अनपढ, गिनना मुझे आता नहीं। अब कितने थे पर गठठी से अन्दाज है चारेक हजार से उपर ही होंगे। अब वहाँ आधे भी नहीं हैं। सबसे छोटा एक रुपये के नोट से सौ तक थे, बड़े नोट वहीं है पर छोटे वाले सफाचट कर गया निहोण्यां। चल तुने भी क्या करना दुकानदार सौकार जो है, अपना ही सिक्का खोटा है।  और माँ आँसू पौंछते हुए पुष्कर लाला के घर से निकल गयी।

     इस पूरे वार्तालाभ को मैं लाला के घर के पीछे छुपकर सुन रहा था, मुझे काटो तो खून नहीं। अब आज घर में मेरी जो पूजा होनी थी उससे अभी से कंपकंपी आने लग गयी थी। और उस दिन पहली बार मेरे बाल चित को अपराध बोध का अहसास हुआ। उस दिन शाम को कंडाली से खूब स्वागत हुआ। पिताजी जरा नरम स्वभाव के थे हैरान तो थे लेकिन आखिर माँ के हाथ से कंडाली उन्होने छीनी थी । तात मन कितना दीर्घ और बड़ा होता है यह भी पहली बार महसूस हुआ। एक दो दिन बाद फिर सब सामान्य हो गया था सन्दूक की चाबी अब माँ अपने अंगडी पर रखने लग गयी थी, हाँ चोरी की परिभाषा मेरे दिलो दिमाग में हमेशा के लिए लाॅक हो गया थी। 

     छः सात साल उम्र की वह घटना मुझे जीवन का एक बड़ा सूत्र सिखा गयी थी। पुष्कर लाला के शब्द आज भी कानों में गूँजते रहते हैं कि ‘सुई पर गीजी च्वोर मौड़ पर गीजी मनस्वाग।

     वाकया मेरे बाल्यकाल अस्सी के दशक के उत्तरार्ध का है मेरी उम्र महज छः सात साल की रही होगी। घर में खाने पीने और पहनने ओड़ने की कमी नहीं थी और स्कूल के लिए हप्ते दस दिन में चैवनी अठ्ठनी पॉकेट मनी के रुप मिल जाती थी। एक दिन की बात है मुझे स्कूल के लिए पैंसे चाहिए थे और पिताजी घर पर नहीं थे मैंने माँ से पैंसों की मांग की। माँ अन्दर घरबार में गई मैं भी माँ के पीछे चला था। माँ ने एक छोटे से काठ के सन्दूक की चाबी खोली और उससे एक पोटली निकाली जिसके अन्दर दो तीन मोटी गड्डियां नोटों की थी। माँ ने एक गड्डी के बीच से दो रुपये का नोट मुझे दिया था। उसे गिनना तो नहीं आता था लेकिन नोट का साईज और रंग से पहचान जाती थी कितने का नोट है। उस दिन मैं गड्डियों को देख अचंभित हुआ कि यहाँ तो बहुत माया है। बस क्या था कैसे ना कैसे मैने चाबी रखने की जगह खोज ली और शुरु हो गया वहाँ से नोट खिसकाने। दो तीन महिने तक यह सिलसिला चलता रहा जब तक पकड़ायी नहीं मिली थी।    

     माँ का वह सन्दूक प्रतिकूल परिस्थितियों में हमारे परिवार की लाईफ लाईन थी। सन्दूक क्या वह ऐन मौके पर द्रपदी का कृष्ण था। विषेशकर मेहमान नवाजी में। उस सन्दूक में माँ के जेवर या कपड़े नहीं बल्कि वे जरुरी सामान होते थे जो प्रतिकूल परिस्थितियों में जरुरत को पूरा करते थे। जैसे सेर पाथी घी, दाल, चीनी, चाय पत्ती, चांवल, एक आध किलो प्याज, आलू और कुछ सूखी सब्जीयाँ। इस राशन का टर्न ओबर माँ अपने हिसाब से करती रहती थी। परिवार में सबको पता तो था कि इसमे कुछ है लेकिन उन्हें ये पता नहीं था कि क्या क्या है और कितना है, इस्तेमाल होने पर ही पता चलता। सन्दूक की चीजें अमरजेन्सी मे इस्तेमाल की जाती थी। 

     माँ के इन पैंसों का स्रोत शादी ब्याह या कारिजों की पौ-पिठें, घर आये मेहमान द्वारा हमारे हाथों में रखे हुए, या गाय भैंस, बकरी के बिक्री पर क्रेता द्वारा दिया गया किलमकुळा आदि होता था। 

     कोरोनाकाल के सुरुवाती लॉकडाउन के दौर में जब सब कुछ बंद हो गया था और लोग दुकानो से भर-भर राशन जमा करने लगे थे तो तब बरबस ही माँ के उस सन्दूक की याद आई कि संग्रह कैसे संकट मोचन होता है। आज बाजारवाद के इस युग में लाओ और खावो की आदत ने लोगों की इस आदत का साथ छुड़वा दिया है। इस डिजीटल दौर में तो लोग घर पर पैंसे भी नहीं रख रहे हैं। लॉकडाउन या कर्फू जैसे अमरजेन्सी हालात में इन्शान खाली हाथ फिर सरकार और संस्थाओं पर हायतौबा !

     बचपन की चोरी की इस घटना ने प्रशंगवस घर पर संग्रह और बचत के महत्व की प्रसांगिकता को और भी स्पष्ट कर दिया है, साथ ही उस डकैती पर गुस्सा, तरस और हँसी भी आती है।

@ बलबीर राणा अडिग   

 

गढ़वाली शब्दों का अर्थ :-

कर्छुले - पगड़ी के अन्दर, बौजी दृ भाभी, चव्वा दृ नीव, उज्याड़ -मवेसियों द्वारा दूसरे के खेत का नुकसान करना, धोण दृ गर्दन, अन्यों दृ अन्या, मातबर दृ ईमानदार, तल्ला ख्वाळे - नीचे का मुहल्ला  सुई पर गीजी च्वोर मौड़ पर गीजी मनस्वाग’- सुई पर चोरी आदत और मुरदे पर बाघ को आदमी के मांस का स्वाद लगना, गळज्यू - एक जी पराण, खडोण्यां - खड्डे डालने लायक (एक प्रकार की गाली) कुट्यारी -पेटली, काठ - लकड़ी, कंडाली - बिच्छू घास, अंगडी - उपर का अंग वस्त्र, निहोण्यां - नहीं होने वाली औलाद (एक प्रकार की गाली), घरबार - घर मे अनाज और अन्य सम्पति रखने का कमरा, सेर पाथी -  एक आध किलो, पौ-पिठें - सगुन, किलमकुळा - जानवर के किले का मोल जिसे सगुन के रुप में दिया जाता है।


 

बुधवार, 15 जुलाई 2020

मैं पढ़ा लिखा या लिखा पढ़ा* (नवगीत)


मैं पढ़ा लिखा या लिखा पढ़ा, पता नहीं
अंकुरण से बाल पकने का, पता नहीं।

सांसे मिल रही थी भोजन मिल रहा था
मैं पिंड पोषित हो रहा था पल रहा था
निश्चिंत था, पड़े पड़े मजे में कट रही थी
किसी पर बीत रही भी होगी, पता नहीं।

मैं पढ़ा लिखा .......

न जाने एक दिन छटपटाहट होने लगी
निश्चिंतता को हड़बड़ाहट होने लगी
बाहर निकलूँ कुछ करूँ निकलने की ठानी
कोई पीड़ा में कराही भी होगी,  पता नहीं।

मैं पढ़ा लिखा ..........
तभी लगा मैं कहीं और आ गया हूँ
रोने लगा आते ही, कुछ  मांगने लगा हूँ
अब सांसे मेरी थी, शरीर मेरा पर, बस नहीं था
परबस में कितना हँसा कितना रोया, पता नहीं ।

मैं पढ़ा लिखा ............

प्यार दुलार में पलता गया बढ़ता गया
शनै शनै आदमी की राह चढ़ता गया
क ख ग दादी नानी की चौखट से शुरू हुआ
कब  वैश्विक ज्ञान कोश तक पहुंचा, पता नहीं।

मैं पढ़ा लिखा ...........

संस्कार वे चौक चौबारे के अब बौने लगने लगे
इतना पढ़ा कि आत्मा परमात्मा को धोने लगा
धरती स्वरूपा जननी पर भी सवाल करने लगा
पालक पिता से भी कब भरोसा उठने लगा, पता नहीं ।

मैं पढ़ा लिखा .............

अरे छोड़ो ! कौन भगवान कैसा भगवान, मत बात करो
कौन पालन कर्ता कौन हर्ता मत इन पर विश्वाष धरो
सबसे बड़ा मेरा जियाराम, करूंगा धरूँगा जो चाहे वो
संवेदनशील जगत में कब संवेदनहीन हुआ, पता नहीं।

मैं पढ़ा लिखा या लिखा पढ़ा, पता नहीं।

@ बलबीर राणा अड़िग