आज फिर पुतला जलेगा,
राख ढेरों से शहर पटेगा,
बारुदी धुऍं में दूभर होंगी सांसे,
रावण अवशेष फिर अट्टहास करेगा।
सारे अर्थ व्यर्थ हैं,
चहुं ओर रावण समर्थ हैं,
पुतलों पर प्राण प्रतिष्ठा करने के
कर्म काण्ड सब निरर्थक है।
तंत्र कुम्भकरणी नींद में रहता,
सरेआम सीता हरण होता,
जटायु हिम्मत दिखती नहीं कहीं,
मेरी क्या पड़ी, खिसकने में हित दिखता।
हर विजयादशमी जितने रावण जलते हैं,
हजारों गुना और उगते हैं,
राम केवल वरण के लिए रह गया,
चलन में रावण ही विचरते हैं।
अंदर बैठे उस रावण का दहन करें,
मेरा तो क्या, भावना को भस्म करें,
भारत में राम राज्य लाना है तो,
राम पद चिह्नो पर गमन करें।
@ बलबीर राणा 'अड़िग'