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बुधवार, 25 जुलाई 2012

चौराहे पर खड़ा हूँ

चौराहे पर खड़ा हूँ
आज के वैज्ञानिक युग में टेक्नोलोजी ने जीवन को जहाँ आशान बना दिया वहीँ देश दुनिया और समाज में फैलती असामाजिकता , ऊंच -नीच और धर्म -संप्रदाय के भ्रमजाल में आम जीवन चौराहे पर खड़ा जैसे महसूस हो रहा है


किधर जाऊं
चोराहे पर खड़ा हूँ

सुगम मार्ग कोई सूझता नहीं
सरल राह कोई दिखता नहीं
कौन  
है हमसफ़र
आवाज कोई देता नहीं
किधर जाऊं
चोराहे पर खड़ा हूँ

इस पार और भीड़ भडाका
उस पार सूनापन
एक और शमशान डरावन
एक और गर्त में जाने का दर
डर लगता
किधर जाऊं
चोराहे पर खड़ा हूँ

यहाँ सब भ्रमित
सब व्यस्त समय का अभाव
गंतव्य अंत नहीं
ठहरता कोई नहीं, धेर्य नहीं
किस से पूंछू
किधर जाऊं
चोराहे पर खड़ा हूँ

पहले से सब पथ विसराये
दिशा हीनता
चारों दिशाओं में गतिशील
तेज से अति तेज गति
होड़ लगी है पंक्ति में खड़े होने की
मंजिल का छोर कहाँ
किधर जाऊं
चोराहे पर खड़ा हूँ 


जात -पात, धर्म- सम्प्रदाय का भंवर
ऊंच- नीच का झगडा
दलित
श्रवन खींचतान में
उलझे हुए उलझन है की उलझती जाती
एक के बाद एक गंठिका
किससे खुलवाओं किधर जाऊं
चोराहे पर खड़ा हूँ

ताड़ ताड़ होती मानवता
भाई भ्राता स्वार्थ तक
कौन  
किसको कहाँ पर ठग ले
मर्यादा का कोई मान नहीं
जी घबराता
किधर जाऊं
चौराहे पर खड़ा हूँ

मानुष से अमानुष बनाने का पाठ पढ़ाया जा रहा
प्रीत पराई हो गई
केवल
रह गया मतलबराम
अपनी ढपली अपना राग
सब बजाते जा रहे
कैसे नाचूँ
चोराहे पर खड़ा हूँ


एक तरफ लूट डकैती
दूजे ओर नक्सलवाद
तीजे तरफ भ्रष्टाचार
और चौथे 
ओर आतंकवाद
किधर जाऊं
चोराहे पर खड़ा हूँ


बलबीर राणा (भैजी)

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