अ से ज्ञ तक,
५२ अक्षरों की मैं, बिखरी माला
एक दूजे का ना रूप मेरा,
न स्वरूप।
अकेला ३६ व्यंजनों में भी स्वादहीन,
१६ स्वरों के भी बेसुरा।
अप्रेम में ३६ का आंकडा,
प्रेम में ६३ का योग।
“नेक” में “अ” के पदार्पण से “अनेक” हो जाऊं,
“एक” में “त” के बधन से “एकता” में रहूँ ।
“गत” की “ई” से “गीत” मैं गाऊं,
“मत” की “ई” से “मीत” बन जाऊं।
ना जाने कितने युग्मों के
सद विचार एभावनाओं और अनुभुतियों से
जीवन को सजाता आया।
इसका बिपरीत भी उतना ही सत्य।
मुझे जजने वालो
आज तुम्हें क्या हो रहा,
क्यों ? “पर” में “ऐ” को मिला कर “पराये“ बनते,
“बरी” के साथ “ऐ" जोड कर “बैरी“ बनते।
“शक्त” में “इ” गुंथों “शक्ति” बन जाऊं,
“एकता” से “ता” के बिखरने से “एक” ही रह जाऊं।
सन्देश मेरा सुनते जाओ,
“एकता” से “ता” ना हटाओ।
अनेकता में एकता के
अपने शुत्र में फिर बंधते जाओ।
बलबीर राणा
"भैजी"
२१ अगस्त १०१२
great
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