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रविवार, 23 दिसंबर 2012

तृप्ति की चाह में

तृप्ति की चाह में

निरन्तर दौड लगा रही जीजिविषा




भागम-भाग की प्रतिस्पर्धा

तु आगे, मैं पीछे,

मैं, पीछे नहीं, पहले,

पकडम-पकडी का खेल, खेल रही जीजिविषा




कदम-कदम पर असमंजस

कौतुहल, भटकन, भ्रमित, फिर भी,

लोभ की परीधि का चक्कर लगा-लगा

कोलहू का बैल, बन गयी जीजिविषा



समाज में क्रन्दन ही क्रन्दन,

कर्कष सुरों मे मानवता की पुकार,

दो बोल मधुर, वाणी की वीणा को

सुनने को तरस रही, जीजिविषा




जात-पात का भेद,

हर जगह फरेब ही फरेब,

लोलुप जीवन में

अपनो से बिछुड रही जीजिविषा।




व्यभिचार से त्रस्त मानव

तार तार होती मानवता,

जो है, मेरा है, जो चाहिए, मुझे चाहिए,

सर्वभक्षी बनके भी तृप्ति चाह में

भटक रही जीजिविषा।


....…………बलबीर राणा “भैजी”

18 Dec 2012  








1 टिप्पणी:

  1. व्यभिचार से त्रस्त मानव

    तार तार होती मानवता,
    बहुत सुन्दर राना जी

    जवाब देंहटाएं