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रविवार, 17 अगस्त 2014

विश्वकर्मा

हर एक ईंट सजोयी मैने
हर कण सीमेंट का घोला
अट्टालिकाएं खड़ी कर संवारी
जीवन में मेरे फिर भी ढेला

मर्म ना जाना किसी ने मेरा
मैं भी तो सपने बुनता हूँ
खुले आसमान के नीचे
एक बन्द आशियाना चाहता हूँ

मुठ्ठी भर मजदूरी से
उदर आग बुझ जाती

घोंसले में आँ-आँ करते चूजों देख
तपिस गरीबी कि और तपाती

चिकनी सड़क पर फिसलने वालो
गज-गज इसे सजाता आया हूँ
चलना जरा संभल के इसमें
सबकी सलामती की दुवा करता हूँ

उन बन्द हवेलियों की ठंडी हवा  से
झोपड़ी की गर्म पवन  अच्छी है
तुम्हारे दिखावे के प्रेमालिंगन से
तन्हा मुझ विश्वकर्मा की अच्छी है 



६ अगस्त २०१४ 
© सर्वाधिकार सुरक्षित
रचना :- बलबीर राणा “अडिग”

 

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