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बुधवार, 25 नवंबर 2015

चींटी के पर


जब थी वह धरती पर
पग-पग कर्मो से नापती रही
दिन-दिन रात-रात
कर्मो की परिभाषा लिखती रही
आज एक
उग्र जिज्ञासा जगी
क्यों न पंख मांगे जाय
आसमान में उड़ कर
खुद को उठाया जाय
और खास बना जाय
लेकिन जीवन का सत्य
वह कर्मकार
चींटी नहीं समझी
कि ये पंख
उगटणहार करता हैं।

उगटणहार - अंत
@ बलबीर राणा 'अडिग'

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

दिवाली सन्देश


मिलकर ऐसा दिया जलाएं
खुशियों की किरण मुश्कराये
अंतस से  तम का अंधियारा
हमेशा के लिए मिट जाए।

चित बन्ध रहे भाईचारा
भेद न करे मनु-मन हमारा
यूँ ही मानवता के पहरे को
कोई  अधम तोड़ न पाये
मिलकर ऐसा दिया जलाएं।

हर  हृदय प्रेम ज्योति जले
समग्र समभाव दिप्त हो चले
चलो कर्म पथ अपना  सूचित बनाएं
मिल कर ऐसा दीप जलाएं।

पटाखे उल्लास उत्पात रहित हो
फुलझड़ियाँ चहुँ और माया मगन हो
दिवाली संदेश अडिग लाये
मिलकर ऐसा दिया जलाएं।

रचना:- बलबीर राणा ‘अडिग’
@ सर्वाधिकार सुरक्षित