जब थी वह धरती पर
पग-पग कर्मो से नापती रही
दिन-दिन रात-रात
कर्मो की परिभाषा लिखती रही
आज एक
उग्र जिज्ञासा जगी
क्यों न पंख मांगे जाय
आसमान में उड़ कर
खुद को उठाया जाय
और खास बना जाय
लेकिन जीवन का सत्य
वह कर्मकार
चींटी नहीं समझी
कि ये पंख
उगटणहार करता हैं।
उगटणहार - अंत
@ बलबीर राणा 'अडिग'
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन - गुरु पर्व और देव दीपावली की हार्दिक बधाई। में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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