वह अहसास आज भी सुकून देता है
और मैं लौट जाता हूँ अपने बचपन में
अपने सीढ़ीनुमा खेतों की मुंडेरों पर
फाल मारने और उस सौंधी सुगंध वाली
मिट्टी में लतपत होने ।
वह अहसास लौटा देती है मुझे
मेरी ब्वै की कुछली
जिसमें मैं दुबक जाता था
पड़ोस के दीनू से छेड़खानी करने के बाद।
और वह अहसास लौटा देता है मुझे
मेरे गांव की गलियों में, चौक/खौलों में
जहां गुच्छी और गुली डंड़ा
गोधुली तक चलता रहता
जब तक माँ आवाज नहीं देती
आजा घर तेरी खैर नहीं।
फाल = कूदना, ब्वै = माँ, कुछली = माँ की गोदी
@ बलबीर राणा 'अड़िग'
आपकी यह ह्रदय स्पर्शी कविता तुरंत मन को उस अतीत में ले जाता है जब इसी तरह हम एेसे ही कुदते-फांदते थे |
जवाब देंहटाएंआदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' २८ जनवरी २०१९ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
जवाब देंहटाएंटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'
dhanawad bhula Girish Notiyal ji aur shriyut Dhruv Singh ji
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर मनभावनी सी प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंगढ़वाली भाषा का अद्भुत समन्वय रचना को और भी रोचक बना रहा है...
बहुत ही लाजवाब...
सहृदय आभार आदरणीय सुधा जी
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