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सोमवार, 21 अक्टूबर 2019

आकुल गीत


जब वीरानी की आकुलता  
लगाती है धाद मुझे
कुछ सपने बुनके कुछ अपनेपन से 
कर लेती हूँ याद तुम्हें 

ये कच्चे रस्ते पगडंडियां
अब खुद ही दूरीयां नाप रही
खड़ी चढ़ाई ढलती उतराई 
अब खुद ही खुद में हाँप रही 

कैसी गति से गति मिलाकर
सबने जाने की ठानी है
एकाकीपन से बुढ़ा गयी ये
युगों की तरुण जवानी है

मुखर मौन के सुख से है या
विषम परिस्थिति का विषाद मुझे 
देवथानों की दशा दिशा देख
आ जाती है याद मुझे

देख योगनियों की कलित कलायें 
अगम पथों पर, तुरंग मर्त्य यहाँ
विटप सघन से लड़ती वनितायें 
और, जूझते जरठों का सामर्थ्य यहाँ

नहीं दिखेगी बंन्द कमरों से
घुमड़ती घटायें चौमास की
ईंटों के सघन से कैसे दिखेंगी
चपल छटाएं मधुमास की 

यह ममता का मर्म है या  
प्रेम का अवसाद मुझे
इस चमन का सूनापन देख 
कर लेती हूँ याद तुम्हें

बांध गठरी निःसंकोच चले आना
माँ माटी की सुगंध लेने को
एक अपनापन ही बचा के रखा है
और कुछ नहीं है देने को 

खातिरदारी को कोई नहीं है
सब अपने रस्ते निकल लिए
सैलानी बनकर मत आना लाड़ा
समय नहीं किसी को किसी के लिए

तुम्हारे जलड़े इस कोख से जन्मे
कोख प्रीत का प्रमाद मुझे
उन जलड़ों के कारुण्य कलरव से
आ जाती है याद मुझे

उतराई में इतनी समृद्धि दिखी 
या सामर्थ्य को सुगम लगा
शहरों ने क्या कृश किया जो
फिर चढ़ना इतना दुर्गम लगा 

देखा है इस मिट्टी में मैंने
मिट जाने वाला नेह यहाँ
कराल कष्ठों के तपन में हँसती
दमकती कंचन देह यहाँ

मरु बांझ नहीं संततिवती हूँ
है जननी का अहसास मुझे
भरे वक्षों से छलकता पय 
दिलाता ममत्व की याद मुझे

कब तक विरह अट्टहास करेगी
इस अक्षुण अभिलाषा पर
क्यों संयम को संशय हो रहा है
तनमय तंद्रा आशा पर

क्या गुनाह किया जगदीश्वर ने 
मेरी उपत्यकाओं की रचना कर 
समझ से परे क्यों मतिमान मनुज
क्यों दुत्कार रहे हैं भर्त्सना कर

कल्पों से कितने आये और गए
नहीं तुमसे फरियाद मुझे 
अपनी नहीं तुम्हारी पीड़ा से
आ जाती है याद मुझे। 

धाद = आवाज लगाना
जलड़े = जड़ें 
लाड़ा = लाडला

@ बलबीर राणा 'अड़िग'

शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2019

प्रकृति वैभव


नीला अम्बर आँचल ओढ़े
प्रकृति का यह मंजुल रूप
रात्री चंदा की शीतल छाया
दिवा दिवाकर गुनगुनी धूप

जड़ जंगल  पादपों  का  वैभव
जीवनदायनी सदानिरायें निर्मल
तन हरीतिमा  चिंकुर  प्राणवायु
पय पल्लवित जीव अति दुर्लभ

आँगन सतरंगी कुसुम वाटिकायें
गोद  पशु  विहगों   का  विहार
लहलहाती अनाज की  बालियां
क्षुधा    मिटाता   समग्र   संसार

तेरे इस अनुपम वैभव में भी
दुःखी हो अगर कोई इन्शान
कर्महीन मतिहीन  ही  होगा
जो न समझा   तेरा  विधान ।

@ बलबीर राणा 'अड़िग',