नीला अम्बर आँचल ओढ़े
प्रकृति का यह मंजुल रूप
रात्री चंदा की शीतल छाया
दिवा दिवाकर गुनगुनी धूप
जड़ जंगल पादपों का वैभव
जीवनदायनी सदानिरायें निर्मल
तन हरीतिमा चिंकुर प्राणवायु
पय पल्लवित जीव अति दुर्लभ
आँगन सतरंगी कुसुम वाटिकायें
गोद पशु विहगों का विहार
लहलहाती अनाज की बालियां
क्षुधा मिटाता समग्र संसार
तेरे इस अनुपम वैभव में भी
दुःखी हो अगर कोई इन्शान
कर्महीन मतिहीन ही होगा
जो न समझा तेरा विधान ।
@ बलबीर राणा 'अड़िग',
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 18 अक्टूबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१८-१०-२०१९ ) को " व्याकुल पथिक की आत्मकथा " (चर्चा अंक- ३४९३ ) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
हार्दिक आभार आदरणियां यशोधा अग्रवाल जी , अनिता सैनी जी। जरुर कोशिश रहेगी चर्चा मंच पर आने की
जवाब देंहटाएंवाह बहुत शानदार रचना मन मानो प्रकृति संग झूम गया खूबसूरत उपमाओ का प्रयोग किया है आपने.. कविता को पढ़ते वक्त स्वत ही प्रकृति के बीच पहुंच गई ऐसा प्रतीत हो आया..,!!
जवाब देंहटाएंऐसे ही आप लिखते रहे इतनी शानदार रचना के लिए आपको बधाई
वाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर... लाजवाब....
हार्दिक हार्दिक आभार आदरणिया अनीता लागुरी जी, सुधा देवराणी जी, कलम को प्रोत्साहना के लिए धनयवाद
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंआभार मन की वीणा जी
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