“भयमुक्त बुग्याल तथा अन्य कहानियाँ” कहानी संग्रह के संर्धव में अपनी बात रखूँ उससे पहले द्वी बात बुग्याल के परिपेक्ष में कहना चाहूँगा। बुग्याल नाम सुन आपके मानस पटल पर भी जीवन वैभव का एक चित्र उभर आता होगा जैसे कि मेरे। दूर नजर के आखरी छोर तक फैला हरा भरा मखमली घास का ढलवा मैदान, मैदान के आखरी छोर से चारों दिशाओं में उठे काखड़ सींग जैसे नुकीले हिम शिखर श्रृंखलाएं। शीतल शांत वातावरण। घास के मैदानों में सुरसुर्या चलती बथौं की ससर्राट में शरारत करते रंग बि रंगे फूल। इन पंयारों में चुगती बकरियों के झुंड मिम्यांट और उछल कूद करते मेमने चिनखे। घौड़े गाय भैंस बछड़े। किनारे किनारों या बीच में कुछ सहमें चौकन्ने लेकिन निर्भीक कुलांचे मारते घ्वेड़ काखड़ आदि अरण्य वासियों का संसार।
बुग्याळ धरती
पर सुख शान्ति का एक मात्र स्थान। बुग्याळ को हमारी क्षेत्रीय भाषा में गौ वंश और पशुपालकों
के लिए पंयार भी कहा जाता है। पंयार माने आन्नद अतिरेक जहाँ जीवन का कोई कष्ट नहीं
है, खाना पीना खेलना कूदना आमोद प्रमोद। किसी को अति खुश और सुखी देख कहते भी हैं कि क्या छिन बल अजक्याल पंयारी ह्वयूँ।
जब बुग्याल ऐसे सुखमय वैभव की जगह है तो यहाँ भय कहाँ से आ गया ? तो देखते हैं डॉ.
नन्द किशोर हटवाल जी द्वारा देखा गया बुग्यालों का भय, और वहाँ के वासिन्दों द्वारा
उसे भयमुक्त करने की जद्दोजहद । और क्या बुग्याल भयमुक्त होता है या और भय के घेरे
में घिरता है संग्रह की प्रतिनिधि कहानी भयमुक्त बुग्याल में देखेंगे।
“भयमुक्त बुग्याल तथा अन्य कहानियाँ”
कहानी संग्रह के कथाकार डॉ नन्द किशोर हटवाल जी किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं । श्री
हटवाल जी हमारे लोक साहित्य चितेरे शोधार्थी
और मूर्धन्य मर्मज्ञ विद्धवानों की पहली पंक्ति
में आते है । मशहूर नाटक नन्दा
की कथा, शोध ग्रन्थ चांचड़ी झुमाको, बालकथा चमत्कार आदि दर्जनों नाटक, कहानियाँ और शोध
लेख हटवाल जी का परिचय देने के लिए काफी हैं।
इस संग्रह में दस कहानियाँ 112 पृष्ठों
में पूरी होती जाती हैं । पुष्तक की एक खास बात यह है कि जैसा आम पुष्तकों में होता
है पहले के कुछ पन्नो में कुछ विशिष्ट साहित्यकारों
की समीक्षाएँ फिर लेखक की अपनी बात आदि आदि
औपचारिकताएं। पर इस कथा संग्रह में ऐसा कुछ नहीं है पहला पन्ना प्रकाशक का अपने प्रकाशन
संबन्धी औपचारिकताओं का, अनुक्रम और फिर सीधे दस कथाओं का सिलसिला एक किनारे से दूसरे
किनारे तक। बल गौड़ी का सिंगयाळ से ज्यादा दुद्याळ होना मायने रखता है। यही बात डॉ हटवाल
जी ने सार्थक समझा म्येल्यो।
अपने जीवन काल में आज तक कितनी पुष्तकें
पढ़ी गिनती नहीं लेकिन इस कहानी संग्रह में ऐसा क्या कुछ था कि मैं किसी सम्मोहन की
तरह कुछ घंटों में प्रथम पृष्ठ से अंत तक पहुँच गया। आम तौर पर पाठक की ऐसी स्थिति
किसी थ्रीलर उपन्यासों में देखी सुनी जाती है। पर श्री हटवाल जी की कहानियों में न
ऐसा कोई थ्रीलर हैं ना वैसा रोमांस। इस संग्रह की कहानियों की कथावस्तु यानि थीम हमारे पहाड़ी परिवेश की है, समाज
की है। कहा जाय कि ये हम सबकी अपनी अपनी कहानियाँ हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। कथाओं के तत्व मौलिकता, संक्षिप्तता, रोचकता, क्रमबद्धता,
उत्सुकता, शिल्प, नवीनता, विश्वसनीयता, प्रभावात्मकता आदि पाठकों को बांधने सक्षम तो
हैं ही साथ में ये कहानियाँ हमारे पहाड़ी समाज
का प्रतिनिधित्व भी करती हैं। कथावस्तु में ऐतिहासिकता को नहीं बल्कि वर्तमान को केन्द्र
में रखा है। जिसमें मुख्यतया सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक विषयों को
केन्द्रित किया गया है।
अब संग्रह की प्रतिनिधि कहानी “भय मुक्त
बुग्याल” को ही ले लीजिए। यही तो रहा है हम मनुष्यों का सामाजिकता का ताना बाना। सृष्टीकर्ता ने पांच ज्ञानेंद्रियां,
पांच कर्मेंद्रियां और चार अंतःकरण से परिपूर्ण मनुष्य को बनाया। पृथवी के अन्य जीवों
से पृथक मनुष्य को अंतःकरण अलग सा दिया जिसमें बुद्धि, चित्त और अहंकार। कि इन अंतःकरण
के बूते वह इस धरा का सुसंचालन कर सके। पर बुद्धि चित्त के परे मन अहंकार मनुष्यता
पर ज्यादा हावी रहा। धरा पर मानव इतिहास से आज तक सृष्टीकर्ता की इच्छा विरुद्ध बहुत
कुछ हुआ व होता आया है, एवं और ही कुछ होने जा रहा है। भय मुक्त बुग्याल कहानी में
कथाकार की नजर बुग्याल और वहाँ के वाशिन्दे बकरियों एवं भेडियों पर है परन्तु निशाना
वर्तमान लोकतंत्र और उसके ठेकेदारों पर लगाया है। वो भी अचूक एक दम बुल हिट।
कहानी कहती है कि पहले बुग्याल में सब
मिलकर बकरियां थी लेकिन भयमुक्त होने के चक्कर में वे भेड़ियों की चाल में फंस गये।
भेड़ियों के फूट डालो और राज करो की नीति ने उन्हे कठाले, ब्वगोट्या, लगोठे, भेड़, मेंडे,
खाड़ू ,बाल्ले और चिनखे आदि में विभाजित कर दिया। अब वे अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ते खुद
मर रहे हैं। मैं बड़ा तू छोटा में झगड़ रहे हैं। उलझे हुए हैं मेरा तेरा के चक्कर में।
और भेड़िए निरंकुश राज करने और ऐशो आराम से रहने में सफल हैं। कहानी का अन्त देखें
जो वर्तमान लोकतन्त्र का आईना है:-
भेड़ियों ने सरकार बना ली जिसमें भेड़ों
कठालों मेंढ़ों को प्रतिनिधित्व मिला। इस बीच खाड़ू बाल्ले, ब्वगोट्या आदि इतने सारे
विभाजन हो गये कि गिनना मुश्किल, उनको भी सरकार में शामिल किया गया।
सरकार क्या भेड़ियों ने एक वर्ग पहेली
बनाई, इस पहेली का हल ना हो ऐसे नियम कानून और व्यवस्था बनाई। न्याय-वाय भी है। वर्ग
के अन्दर वर्ग। उसके अन्दर भी वर्ग है। इनमें वोटर हैं। बढ़ें तो नसबन्दी। घटें तो टीकाकरण।
चुनाव है। उन्हें चुने तो वे भेड़िए। इन्हें चुने तो ये भी भेड़िए। टोटल बकरियों को गिने
तो संख्यां ज्यादा है ताकत कम। भेड़िए मुस्टंड हो
रहे हैं। ताकतवर, फुर्तीले, आक्रामक, आधुनिक हैं। बुद्धी चातुर्य में बृद्धि है। काम
ना धाम, चिंता ना मेहनत, आराम का खाना है। कहाँ खोह में रहते थे अब महलों में रहते
हैं। और अंत मे भेड़िए सुखपूर्वक रहने लगे।
संग्रह
की अन्य कहानियों में भी हमारे समाज के नानाप्रकार के मुखड़े, मुखोटे, चरित्र चरेतर
और मनख्यों की दुःख-विपदा, पिछड़ापन, विसंगतियां,
रुढ़िवादिता, अन्धविश्वाश, मान्यतायें और धर्मान्धता आदि आदि विषयों को बखुबी चित्रित
किया गया है। साथ में कुछ हास परिहास आदि सभी मिले जुले कथा तत्वों से सुशोभित है यह
कहानी संग्रह।
संग्रह की पहली कहानी “जै हिन्द” हम पहाड़ी भोले भल
मानुस दिदा, भुला, बौडा, दादा की औनार बिनार बताता है। यही कारण है कि अपनी ईमानदारी,
सच्चेपन और वचन बद्धता के बूते पहाड़ी मनखी देश प्रदेश में निर्भीक कार्य करता है उन्नति करता है। डंके की चोट पर कहा जा सकता है कि
हममें पालसी (अन्वाळ/गडेरिया) हीरा के गुण मैच नहीं करते तो सायद हम विशुद्ध गढ़वाळीपन
से कहीं और बाहर निकल गये फिर हमारी पहचान दुनियां की भीड़ में मुश्किल है। हीरा पालसी
हम पहाड़ियों के गुण और चरित्र का प्रतिनिधित्व करता है यह बात कहने पर मुझे संशय नहीं।
कहानी संग्रह हिन्दी में हैं। पर हिन्दी
जयशंकर प्रसाद वाली विशुद्ध हिन्दी नहीं बल्कि हमारे समाज की आम बोलचाल वाली साधारण
हिन्दी। इसे मैं गढ़वाली हिन्दी बोलूँ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यही भाषा शिल्प इस कहानी
संग्रह की रोचकता है। सच्चाई ये है कि कालांतर से हमारे बाप दादा ऐसी ही हिन्दी शब्दों
का उच्चारण करते आये हैं और आज भी देहातों में लगभग किया जाता है। संग्रह की कहानियों
में गढ़वाली शब्दों के सम्मिश्रण से आंचलिक रस्याण की खुशबू अपनी और खींचती है। और पाठकों
की सुलभता के लिय इन शब्दों का अर्थ कहानी के अंत में क्रमवार दिया गया है। अंग्रेजी
उर्दू और अन्य भाषाओं के मिश्रित शब्द हमारी भाष के साथ गढ़वाली उच्चाराण के साथ घुले
मिले है जिजसे वे अपने ही पारम्परिक शब्द लगते हैं। जब इसे आम बोल चाल में स्वीकार
किया जा रहा है तो लिखने में क्यों नहीं। इसी बात को डॉ. हटवाल जी ने अग्रणीय रखा।
देखें जैसे:-
अब देख मंगळु, बाग बोल्ता मि खाता, च्यांकु
(हिमालयी भेड़िया) बोल्ता मि खाता, थरबाग बोल्ता मि खाता, मसाण बोल्ता मि खाता अर द्येबी
द्यब्ता बोल्ते हम खाते। जो सबकी रक्षा करते हैं वे बि बकरी खाते, तो ये आरमी वाले
बि तो हमारी रक्षा करते हैं।
ये
बिल्कुल सयी बात!
इधर
बौडर पे इन लोगों का हमारा भोत सारा रैता है। बिना हमारे ये कुछ नयी कर पाते।
ये
तो सयी बात है भाय क्या कर पायेंगे।
दानीका
इसलिए तो जस्ट लैक आरमी परसन बोल्ता हमकों। दानीका जो बोल्ता एकदम फिट बोल्ता। आल्तु
फाल्तु नयी बोल्ता।
ऐसा नहीं कि डॉ हटवाल जी विशुद्ध हिन्दी
से अनविज्ञ हैं लेकिन मेरा मानना है कि शुद्ध देशीय शब्दों में आंचलिक खुसबू होती है
साथ में आंचलिक सहजता और साधारणता का बोध होता है यही प्रयास कहानीकार द्वारा किया
गया है कि अपनी आंचलिकता का बोध पाठकों कराया जा सके। जैसे को तैसा लिखा जाय तो इसमें
कृतिमता की बू आने की सम्भवना नहीं रहती है। ऐसा ही हिन्दी के महान कथाकारों की कहानियों
में भी देखने को मिलता है क्योंकि अपनी माटी अपनापन हर किसी को सहज लगता है और कथाकार
चाहता है कि उनके आंचल और क्षेत्रीयपन की सहजता औरों तक भी पहुँचे । हमारी लचकदार हिन्दी
हम गढ़वालियों को लाखों के बीच पहचान दिलाती है इसमें इसमें संशय नही। ठैरा और बल ही
तो हम उत्तराखण्डियों की पहचान है।
संग्रह की तीसरी कहानी “मेरा भुला”।
कैसे सिद्धि सुख प्राप्ति से इन्सान का अहम अपने खून के रिश्तों को तिरस्कित कर देता है कहानी में बखूबी चित्रित है। हमारे तुम्हारे
बीच कतिपय ऐसे डी डी (देवीदत्त) कैलखुरा उर्फ द्यब्वा भुला जैसे सफल व्यक्ति हैं जो
अपनी सफलता की चकाचौंध में रिश्तों को कूड़ा समझते है। और किसनू की खंतड्या माँ जैसी
कितनी बेणियों (बहनों) की आशाएं जीवन्त है कि उसका भुला साब बनकर मेरी भी सुध लेगा।
बचपन की ताण माण लगाकर घुघी में उठाना उसे आकंठ याद है । वह अभी भी सोचती है कि मेरा
द्यब्बा भुला वही द्यब्बा है जो कभी अपने मुँह का आधा गप्फा उसके मुँह में डालता था।
ऐसे ही कळकळी लगाने वाली कहानी साझा मकान भी है।
संग्रह की चौथी कहानी “रतन को बालिग होने
की बधाई”। यह भी एक व्यंग कहानी है। कहानी उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन की है। अनेक आंदोलनकारियों
की शदाहत और भोली भाली जनता के संघर्ष पर बने उत्तराखण्ड की स्थिती आज बिल्कुल रतन
के जैसी ही है। जो कुपोषण में पला है, बिमार बालिग है। बालिग है पर बिना अच्चे सैं गुस्सें का लाचार है।
लाचार बालिग । उसे याद नहीं कि इस आंदोलन ने उसकी माँ को उससे छीन लिया था। यह कहानी
उत्तराखण्ड आंदोलन और आज की जमीनी हकीकत बयां करती है । सफ़ेदपोश कुर्सी हैकरों की
वास्तविकता व्यक्त करती है ।
संग्रह की पांचवीं कहानी “गाँव की पूजा”
में कथाकार ने प्रवासी उत्तराखण्डियों की यथार्त जमीनी हकीकत का काल्पनिक ताना बाना
बुना है। गाँव से बाहर शहरों की ऐशो आराम और लग्जिर्यस जीवन शैली में हम सब यही तो कर रहे हैं। गाँव के प्रति अत्यन्त
प्रेम। ग्राम संस्कृति की वर्चुअल पूजा। ऐसा
प्रेम जिसमें दिखावा है विज्ञापन है अपनेपन का मुखोटा है। ना मिटटी में, ना गोबर में
, ना उकाळ उन्दार, सुख सुविधाओं से वंचित गाँव की सुख समृद्धी वाली भक्ति। इस ग्राम
भक्ति में समाज के सभी छोटे बड़े चेहरे शामिल हैं । क्या नेता क्या नौकरशाह । अपनी लग्जिर्यस
लाईफ स्टाईल के साथ बिकट शूलों में कराहती थाती की प्रेम भक्ति। और जब भगवान ने प्रशन्न
होकर संसाधन हीन वास्तविक गाँव की स्थिती में लाकर खड़ा कर दिया तो सब बिलबिला उठते
हैं गिड़गिड़ाते हैं । भगवान ये कैसा अन्याय। कैसे नर्क में लाकर रख दिया। फिर भगवान
ग्राम भक्तों को वापस शहरी स्थिती में लाता है तो मुखोटे के अन्दर वास्तविक चेहरे की
चमक देखते ही बनती है । कहानी का अन्त हमें आईने के सामने खुद को देखने की धर्म धाद
लगाता है । देखें :-
सभी मंत्रियों, रामनाथ ग्रामभक्तों और
निर्मल कुमारों ने सार्वजनिक रुप से दुःख प्रकट किया और खुसी अपने घर के अन्दर गोपनीय
रुप से अपने परिजनों के साथ साझा की। पूर्ववत ग्रामभक्तों का कीर्तन का दौर चलने लगा।
ग्राम कथाएँ, फैन्सी ड्रेस शो, ग्रामदेवता का अवतरण। गाँव की सभ्यता, परमपराएं, रीतिरिवाज,
समाज का अंतिम व्यक्ति, हर गरीब, बीपीएल, एपीएल आदि अदि। गाँव पवित्र और पुरातात्तिवक
मंदिरों से बाहर नहीं निकल सका और बचे खुचे लोग आज भी उसमें मूर्ति बने बैठे हैं।
संग्रह की छटवीं रोचक कहानी है “बैल की
जोड़ी” । यह कहानी किसी जमाने के हमारे विशुद्ध लोक की याद दिलाता है। हाँ वर्तमान समय
के बजारी पराभव में पले बच्चे या युवाओं को कहानी की रस्याण उतनी अच्छी ना लगे जिनती
कि हम जैसे उस लोक में जन्में पले वयस्कों को लग रही है।
बल नाक ना हो ता आदमी कुछ ना करे। कुछ
भी हो पर नाक तड़तड़ी रहनी चाहिए, चाहे पीठ पर लोते लग जाय। यही नाक है जिस पर समाज देश
दुनियां के तड़के की छिंछयाट लगती है। नाक याने प्रतिष्ठा। एक तरफ देखा जाय तो आदमी
के जीवन की हाय तौबा ही वर्चस्व के लिए है प्रतिष्ठा की है। सारी मेहनत संघर्ष नाक
के लिए। नहीं तो उदर ज्वाला मंदिर में बैठे जोगी की तरह भी शांत की जा सकती है। धन्नी काका के बोले वचन सिर उठायेगा तो गिरेगा नाक
टूटेगी, से कहानी के पात्र इंदरु के नाक में छिंछयाट लगी है। इंदरु के गज्जू और रज्जू
जिस बैलों की जोड़ी पर उसे नाज था वह रज्जू के भेल गिरके मर जाने पर टूट गई। किसान की
शान और नाक खेत में जुते बैलों की जोड़ी। बैलों की जोड़ी टूटना नाक पर कटाक की चोट। चोट
वाली नाक तड़तड़ी नहीं रह सकती इसलिए नाक तड़तड़ी रखने के लिए वैसे ही बैलों की जोड़ी फिर
पाळी पर बांधना जरुरी है। और इंदरु अपने नाक के लिए गज्जू के लिए समदिष्ट नाक नक्स
के साथी की खोज के लिए निकल पड़ा । सारे इलाके में कई दिनों तक भूखे प्यासे ढूंढ ढपड़
करता रहा। और महिने भर की मेहनत के बाद आखिर
गज्जू का साथी मिल गया विल्कुल रज्जू के जैसे बल ढूंढके भगवान भी मिलता है। वक्त की नजाकत देखते हुए बैल के मालिक बिस्सू गळदार
ने चार चारगुना दाम बताया पर नाक के लिए इन्द्रू ने हामी भर दी। बैल मिला है तो हाथ
से जाना नहीं चाहिए। कुछ नगत कुछ उदार में
बैल उठा लाया। नाक के लिए उधार लेने में कोई अपमान नहीं। उदार पगाळ की उदारता में इन्द्रू
नाक बचाने में सफल रहता है। कहानी में पात्रों का संवाद और पहाड़ी जीवन का सुन्दर चित्रण
है।
संग्रह की सातवीं कहानी है “साझा मकान”
कोंकळी (करुणा) लगाने वाली कहानी। कहानी पहाड़ों से होते पलायन से किसी समय के एक समृद्ध
परिवार के वैभव का द्योतक ढैपुर्या मकान की दुर्दशा का है। मकान की जीर्ण-शीर्ण अवस्था पर
रैवासी वारिस का चिन्तन, और अन्य शहरी वारिसों की लालची गिद्द निगाहों को बखुबी चित्रित
किया गया है। जहाँ कहानी का पहला संवेदनशील कृतज्ञ पक्ष रामकृष्ण नोटियाल जी अपनी नैतिक
जिम्मेवारी को समझते हुए पैत्रिक विरासत को बचाते आया और क्षतिग्रस्त होने पर मरम्मत
के लिए वचनबद्ध है। वहीं दूसरा संवेदनहीन पक्ष शहरी वंशजों का, जिन्होने जाने के बाद
कभी उस पित्र कूड़ी की तरफ मुड़ कर नहीं देखा, और जब भूकम्प से क्षतिग्रस्त मकान के मुआवजे
की बात आई तो अपने तीते दांत उस पैत्रिक विरासत पर ढुबाने से नहीं हिचके। कहानी संयुक्त परिवार के द्वकुले वैभव से इकुले
स्वहित गामियों तक के ताने बाने के साथ गंतव्य पूरा करती है।
संग्रह की आठवीं कहानी “कबट” हमारे समाज
में गहरी पेठ बनाये अति अन्धविश्वास रुढ़िवादिता की कहानी है। कितनी बिडम्बना है किशोर
बेटा भांग सुल्पे के नशे में जीवन बर्बाद कर रहा है और माँ बाप व समाज आँख बंद कर किसी
ने कुछ कर दिया या कबट खला दिया पर जतन करते जूझते हैं। कहानी का एक पढ़ा लिखा युवा
पात्र आशीष लोगों को इस रुढ़िवाद से बाहर आने के लिए हर संभव कोशिश करता है, सच्चाई
दिखता है। लेकिन समाज के अंर्तमन में बैठा
अन्धविश्वास उस पर भी कुछ लगा, बिल्का (चिपका) या खलाने की बात करता है।
आजके पुख्ता और प्रूफ वैज्ञानिक युग में जब तक हम
अपने समाज में व्याप्त रुढ़िपंथ और अन्धविश्वास से बाहर नहीं आएंगे तो कहानी के निर्दोष
निरार्षित पात्र बुढ़िया बौडी के जैसे कईयों को लांछन से तिरस्कित होना पड़ेगा। और भविष्यवक्ता
बक्ये पुछयारे और गणत वाले नटवरलालों की दुकानों पर घरों की सुख शान्ति बिकती रहेगी।
कहानी की आत्मीय भाषा और देहाती संवाद पाठकों के समय को इन्वेस्ट करेगा ऐसे मेरा विश्वास
है।
संग्रह की नौवीं कहानी “राम जी की लीला”
एक वेहतरीन हास्य और रोमांचक कहानी है। ऐसा नहीं कि कहानीकार ने पूरे कहानी संग्रह
में समाज के ज्वलन्त मुद्दों और बिडम्बनाओं को रेखांकित किया हो बल्कि पाठको के मनोरंजन
और मानसिक स्फूर्ति के लिए हास्य विनोद भी लिखा है। राम जी की लीला कहानी के वाकये जैसे जैसी घटनाएं
आपके सामने भी घटित हुए हो तो कतिपय प्रसंगों में आप भी मेरे जैसे हँसते हँसते पेट
पकड़ेंगे ।
कहानी जहाँ हास्य और विनोदपूर्ण है वहीं
फिर ग्रामिण समाज के आन्तरिक द्ववन्द और गुटबाजी को चित्रित करती है। कहानी ‘नेता बणि
कि दिखोलु रे मार ताणि अब कि दौं’ वाली बात
पुख्ता तौर पर केन्द्र बिन्दु में है । चाहे इसमें गांव की प्रतिष्ठा जाए या किसी का
अहित ही क्यों ना हो। कहानी शराब, स्व प्रतिष्ठा और भावी नेता बनने की चाह में कुछ
भी करेगा के वर्तमान राजनीति चरित्र का बखुबी बखान करती है।
संग्रह की आखरी और दशवीं कहानी “पुत्र
प्राप्ति” । कहानी हमारे समाज के पुरुष सत्तामक
वीभत्स चेहरे को उजागर करता है। यह कहानी डॉ नन्द किशोर हटवाल जी की प्रतिष्ठ कविता
“बोये जाते हैं बेटे उग आती हैं बेटियां” का प्रतिनिधित्व करती है। आज भी हमारे कतिपय
भारतीय समाजों में पुत्र को गृहस्थ रत्न और बेटी को घास फूस, पराया धन मान कर परवरिश
में विभेध किया जाता है। यही अन्तर पुरुष प्रधान मानसिकता को बल देता है। जबकि आज पूरा
विश्व वुमेन इम्पावरमेन्ट की बात करता है। मातृशक्ति मर्दों से चार कदम आगे जीवन के
हर क्षेत्र में संसार का संचालन कर रही है। बेटे के प्रति अति आत्ममुग्ता, अन्धा लाड़
प्यार और हाथ हातों की परवरिश कैसे पुत्र को कुपुत्र बना देता है एवं बिना खाद पानी
के बेटियां कैसे बिना खाद पानी की सी लगुली (बेल) ठंगरे के चोटि पर पहुँचके माँ बाप
ठंगरों का ठंगरा बन जाती है, कहानी के मूल कथानक उग आती हैं बेटियां कथन को मजबूती
देता है।
अंत में कहानी संग्रह “भयमुक्त बुग्याल
तथा अन्य कहानियाँ” के परिपेक्ष में इतना ही कहूँगा कि ये कहानियाँ सभी को पढ़नी चाहिए।
देश एक मेस द्वी सभी जगह है। डॉ नन्द किशोर हटवाल जी की ये कहानियाँ पूरे भारत में
ही नहीं बल्कि तमाम विश्व विरादरी में पहुँचने की आशा करता हूँ । यह हम सभी सुधी पाठकों
के सहयोग से संभव हो पायेगा। सुधी पाठक पुष्तक
प्राप्ति हेतु समय साक्ष्य प्रकाशन से ऑनलाइन आर्डर भी कर सकते हैं या स्वयं डॉ. हटवाल
जी या मुझसे सम्पर्क कर सकते हैं।
@
बलबीर सिंह राणा ‘अडिग’
मटई
चमोली
9871469312
राणा जी बहुत बढिया। विस्तृत एवं शानदार समीक्षा। शुक्रिया
जवाब देंहटाएंप्रणाम भैजी
हटाएंसंग्रह के प्रति आकर्षण पैदा करती विस्तृत समीक्षा।
जवाब देंहटाएंनन्द किशेर हटवाल जी को संग्रह के लिए हृदय से बधाई।
आपको शानदार समीक्षा की आत्मीय शुभकामनाएं।
बेहतरीन समीक्षा सर👌
जवाब देंहटाएंहमारे ब्लॉग पर भी आइएगा आपका स्वागत है🙏🙏
धन्यवाद मनीषा जी। जरूर आपके ब्लॉग पर आएंगे।
हटाएं