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शनिवार, 31 जुलाई 2021

गजल : साँसों के टेंडर

 

अचानक गाँवों में झिंगुर उड़़ने लगे हैं,
सायद कुछ दिन बाद चुनाव आने लगे हैं।
 
कल तक एक पत्ता तक नहीं हिल रहा था
आज पुरवा पछुवा एक साथ बहने लगे हैं।
 
पाँच वर्ष तक दर्शन दुर्लभ थे जिन देवों के,
वे औचक दर्शनार्थ घरों मे भटकने लगे हैं।
 
फ्री से पहले ही कर्म शक्ति नेस्तानबूद है,
और फ्री से रहा-सहा जमीजोद होने लगे हैं।
 
पिंजरे में मांस दे दहाड़ बंद कर-करके,
जंगल के शेर शिकार करना भूलने लगे हैं।
 
बल, कुछ मत करो धरो, हम तुम्हें पालेंगे,
याचक बना उग्रता पर उतारने लगे हैं।
 
वोट के लिए समझ नहीं साँसें चाहिए अडिग,   
इस लिए फिर साँसों के टेंडर पड़ने लगे हैं।
 
 
रचना : बलबीर सिंह राणा ‘अडिग’

रविवार, 25 जुलाई 2021

पहली गुरु

 


 


नहीं आती थी उसे
गिनती पहाड़ा
पर !
उसने जिन्दगी के हिसाब किताब में
कभी गलती नहीं की ।
 
दिलों को जोड़ना,
बैरीपन घटाना,
दुनियां की रीति नीति का भागफल
और रिस्तों का गुणांक
वह भली भांति जानती थी। 
 
आता था उसे
संसार का रेखागणित ज्यामिति,
उसके त्रिकोणमिती में कोण
हमेशा समकोण रहते थे।
 
मनुष्यता का परिमेय अपरिमेय
कंठस्त था उसको,
गिरस्थी वाणिज्य की तो वो 
मजी हुई वाणिज्यकार थी। 
 
भले
अ, ब, स उसे काला अक्षर 
भैंस बराबर क्यों ना रहा हो 
पर ! उसने
ना कभी गलत गढ़ा,
ना गलत पढ़ा, ना ही पढ़ाया ।
 
उसके शब्दों में
अशुद्धि नहीं होती थी
ना ही व्याकरण में त्रुटि,
क्योंकि भाषा उसके 
पय से निकलती थी ।
उसके
नेह के गीत कविता
होने खाने के छन्द
व्यवहार के मुक्तक
जीवन पथ पर
दिशा र्निदेशित करती हैं।
 
जिन्दगी के हर मोड़ पर
सहारा बनती है
उसकी सुनाई कथा कहानियां।
 
ठोकरों से बचाती हैं
वे एकांकी नाटक
जिसमें वो स्वयं किरदारा रही हो
या मंचन उसके करीब मंचित हुआ हो।   
 
मनसा वाचा कर्मणा से
अडिग रहने का बल देती हैं
पुरखों की जीवनियां, यात्रा वृतान्त
जिसे वह काला टीका लगाते वक्त
मुझे बताया करती थी।
 
कंडाली से चतौड़*
और
मुठ्ठियों से कूटते
अच्छी तरह समझाई थी उसने मुझे
हमारी रीति-रिवाज, देव-धर्म, 
संस्कृति-संस्कार, भलाई बुराई । 
 
उसके अर्थ व्यर्थ नहीं होते थे
समाजशास्त्र, धर्मशास्त्र
सभी जीवन शास्त्रों की जानकार थी 
मेरी पहली गुरु, शिक्षिका
मेरी माँ लीला देवी राणा।
 
*
कंडाली - बिच्छू घास
चतौड़ -  सेकना / पीटना
 
गुरु पूर्णिमा पर अपनी पहली गुरु माता और सभी गुरुओं को सर्मपित।
 
रचना : बलबीर सिंह राणा ‘अडिग’