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शनिवार, 31 जुलाई 2021

गजल : साँसों के टेंडर

 

अचानक गाँवों में झिंगुर उड़़ने लगे हैं,
सायद कुछ दिन बाद चुनाव आने लगे हैं।
 
कल तक एक पत्ता तक नहीं हिल रहा था
आज पुरवा पछुवा एक साथ बहने लगे हैं।
 
पाँच वर्ष तक दर्शन दुर्लभ थे जिन देवों के,
वे औचक दर्शनार्थ घरों मे भटकने लगे हैं।
 
फ्री से पहले ही कर्म शक्ति नेस्तानबूद है,
और फ्री से रहा-सहा जमीजोद होने लगे हैं।
 
पिंजरे में मांस दे दहाड़ बंद कर-करके,
जंगल के शेर शिकार करना भूलने लगे हैं।
 
बल, कुछ मत करो धरो, हम तुम्हें पालेंगे,
याचक बना उग्रता पर उतारने लगे हैं।
 
वोट के लिए समझ नहीं साँसें चाहिए अडिग,   
इस लिए फिर साँसों के टेंडर पड़ने लगे हैं।
 
 
रचना : बलबीर सिंह राणा ‘अडिग’

8 टिप्‍पणियां:

  1. वोट के लिए समझ नहीं साँसें चाहिए अडिग,
    इस लिए फिर साँसों के टेंडर पड़ने लगे हैं।

    यथार्थ को समेटे हुए है आपकी यह रचना। शुभकामनाएँ व साधुवाद आदरणीय। ।।।।

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  2. फ्री से पहले ही कर्म शक्ति नेस्तानबूद है,
    और फ्री से रहा-सहा जमीजोद होने लगे हैं।

    पिंजरे में मांस दे दहाड़ बंद कर-करके,
    जंगल के शेर शिकार करना भूलने लगे हैं।

    वाह...अंदर तक झकझोरती रचना।

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  3. रकनीति का आईना दिखाती बेहतरीन ग़ज़ल ।

    सायद / शायद

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  4. आदरणीय पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा जी, संदीप कुमार शर्मा जी, संगीता स्वरूप जी, शांतनु सान्याल जी और अमृता तन्मय जी। आप सभी साहित्य सेवियों का दिल की गहराई से धन्यवाद और आभार प्रगट करता हूँ। आपका आशीष मेरी कलम को सबल देना। फिर से धन्यवाद।

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  5. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(०५-०८-२०२१) को
    'बेटियों के लिए..'(चर्चा अंक- ४१४७)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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