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गुरुवार, 2 दिसंबर 2021

यादों की तह

छोड़ आया हूँ 
कुछ पहले  ब्रह्मपुत्र का तीर
1.
वैशाख में सजता है
ब्रह्मपुत्र का तीर,
मेखला चादर में कसी बिहू निर्तकांऐं 
थिरकती हैं ढोल की थाप पर
रंगमत हो जाती मौसमी गीत पर
प्रियतम का प्रणय निवेदन
नर्तकी का शर्माना,  बलखाना
ना-नुकर कर छिटक जान, 
प्रियतम का कपौ फूल से
जूड़े को सजाना, 
बिहू बाला का मोहित होना
परिणय को स्वीकारना 
प्रियतम को अंक लगाना 
अमलतास के फूलों का
स्वागत में झड़ना
ढोल की थाप का सहम जाना
दोनो ओर की पहाड़ियों का
आलिंगन के लिए मचलना
कितना आत्मीय 
जिजीविषा से जीवन ऊपर। 
और 
बह्मपुत्र की विशाल  जलधारा ? 
लज्जित हो जाती है 
कि 
कभी मेरा भी  अपने प्रियतम 
अहोम से ऐसा ही परिणय मिलन था।  
2.
सुहानी संध्या
नजर के आखरी छोर तक
ब्रह्मपुत्र का फैलाव
मांझी भूपेन दा के गीतों को
गुनगुनाते हुए पतवार चलता,
देश से आये यायावरों को वह सारंग ब्रह्मपुत्र का दिग दर्शन कराता
शहर की बिजलियों की झालर
ब्रह्मपुत्र की जलधारा में 
टिमटिमाती बतियाती
और
नाव आहिस्ता किनारे ओर सरकती। 
3.
कहर बन जाता है सावन
डूब जाता बह्मपुत्र का रंगमत तीर
सहम जाता है जीवन
लील जाता है बांस की झोपड़ियों को
जिनमें सजती हैं बिहू बालाएं। 
मांझी की पतवार किनारे में भयभीत रहती। 
ब्रह्मपुत्र के इस विकराल का
जीवन ध्वस्त करना
जीवन का फिर संभलना संवरना
तीरों को गुलजार होना
सदियों से सतत जारी है। 
@ बलबीर राणा 'अड़िग'

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