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शुक्रवार, 21 जुलाई 2023

गजल


बस्ती में ईमानदार कोई तो मिले, 

छुवीयूँ का साझेदार कोई तो मिले।


कौन करता विश्वास पर काम अब, 

तोता सिंह ठेकेदार कोई तो मिले।


रिश्ते भी मतलब के मोहरे बन गए, 

मतलब बिन नातेदार कोई तो मिले।


गलेदार भर गए गली मोहल्लों में, 

सच्चा सौदेदार कोई तो मिले।


चेहरे पे चेहरा चढ़ाए घूम रहे छोटे बड़े,

मुखड़ा बिन नकाबदार कोई तो मिले।


नकली माल-ताळ, चाल-ढाल चारों ओर,  

अडिग मौळयाण मालदार कोई तो मिले।


शब्दार्थ :-


छुवीयूँ - बातों 

गलेदार -झूठ की बुनियाद का सौदागर

मौळयाण - मूल स्रोत


@ बलबीर राणा 'अडिग'

सोमवार, 17 जुलाई 2023

पर्वत गीत




वे नहीं समझते पर्वत को 

जो दूर से पर्वत निहारते हैं,

वे नहीं जानते पहाड़ों को

जो पहाड़ पर्यटन मानते हैं। 


पर्वत को समझना है तो 

पहाड़ी बनकर रहना होता,

पहाड़ के पहाड़ी जीवन को 

काष्ठ देह धारण करना होता।


जो ये चट्टाने हिमशिखर

दूर से मन को भा रही, 

ये जंगल झरने और नदियाँ  

तस्वीरों में लुभा रही, 

मिजाज इनके समझने को 

शीत तुषार को सहना होता।


पर्वत को समझना है तो......


इन वन सघनों की हरियाली  

जितना मन बहलाती है,

गाड़ गदनों की कल-कल छल-छल

जितना मन को भाती हैं,

मर्म इनके जानने हैं तो 

उकाळ उंदार नापना होता।


पर्वत को समझना है तो ......


सुंदर गाँव पहाड़ों के ये 

जितने मोहक लगते हैं, 

सीढ़ीनुमा डोखरे-पुंगड़े 

जितने मनभावन दिखते हैं, 

इस मन मोहकता को 

स्वेद सावन सा बरसाना होता।


पर्वत को समझना है तो ......


नहीं माप पहाड़ियों के श्रम का

जिससे ये धरा रूपवान बनी,

नहीं मापनी उन काष्ठ कर्मों की

जिससे ये भूमि जीवोपार्जक बनी,

इस जीवट जिजीविषा के लिए

जिद्दी जद्दोहद से जुतना होता।


पर्वत को समझना है तो ......


मात्र विहार, श्रृंगार रचने

पहाड़ों को ना आओ ज़ी,

केवल फोटो सेल्फी रिलों में 

पर्वतों को ना गावो ज़ी,

इन जंगलों के मंगल गान को 

गौरा देवी बनकर लड़ना होता।


पर्वत को समझना है तो ......


दूरबीनों से पहाड़ को पढ़ना

इतना आसान नहीं,

इस विटप में जीवन गढ़ना

सैलानियों का काम नहीं,

चल चरित्रों के अभिनय से आगे

पंडित नैन सिंह सा नापना होता। 


पर्वत को समझना है तो 

पहाड़ी बनकर रहना होता,

पहाड़ के पहाड़ी जीवन को 

काष्ठ देह धारण करना होता।


शब्दार्थ :-


गाड़ गादने - नदी  नाले

उकाळ उंदार - चढ़ाई उतराई

डोखरे पुंगड़े - खेत खलिहान


चिपको प्रेणता *गौरा दीदी* और महान हिमालय सर्वेरियर *पंडित नैन सिंह रावत* को समर्पित। 


@ बलबीर राणा 'अडिग'

मटई बैरासकुण्ड चमोली 





रविवार, 9 जुलाई 2023

गजल

 


कहीं उधड़न, कुछ की तुलपन है,
हर किसी की अपनी उलझन है।

सुख दुःखों की समवेत कुटयारी यह,
जीवन कभी वीरान कभी गुलशन है।

घाम बर्खा शीत सबके अपने मिजाज,
सदैव न रहता मधुमास सा उपवन है।

सूदों भाताक खाते रहते संपदा को,
यह छूटने वाली केंचुली है उतरन है।

टपकते छप्पर के अंदर सिमटते हैं जो,
पुंगड़ों में श्रम उसी का नाचता सावन है।

पेट घबळाट, कबळाट न करता अडिग,
मनखी यूँ न मारा फिरता धरा आँगन है।

**
कुटयारी - गठरी, भताक - धक्के
पुंगड़े -खेत, घबळाट- असहजता 
कबळाट-कबलाहट

@ बलबीर  राणा 'अडिग'