कहीं उधड़न, कुछ की तुलपन है,
हर किसी की अपनी उलझन है।
सुख दुःखों की समवेत कुटयारी यह,
जीवन कभी वीरान कभी गुलशन है।
घाम बर्खा शीत सबके अपने मिजाज,
सदैव न रहता मधुमास सा उपवन है।
सूदों भाताक खाते रहते संपदा को,
यह छूटने वाली केंचुली है उतरन है।
टपकते छप्पर के अंदर सिमटते हैं जो,
पुंगड़ों में श्रम उसी का नाचता सावन है।
पेट घबळाट, कबळाट न करता अडिग,
मनखी यूँ न मारा फिरता धरा आँगन है।
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कुटयारी - गठरी, भताक - धक्के
पुंगड़े -खेत, घबळाट- असहजता
कबळाट-कबलाहट
@ बलबीर राणा 'अडिग'
वाह लाजवाब ग़ज़ल आदरणीय
जवाब देंहटाएंधन्यवाद महोदय
हटाएंउत्कृष्ट सृजन
जवाब देंहटाएंआभार महोदया
हटाएंधन्यवाद आदरणीय
हटाएंबहुत बहुत धन्यवाद अग्रवाल ज़ी आभार
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंसुंदर अभिव्यक्ति आदरणीय ।
जवाब देंहटाएंआभार दीपक ज़ी
हटाएंजीवन के कई रंगों को उकेरती भावपूर्ण प्रस्तुति अडिग जी।हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं 🙏
जवाब देंहटाएंतहे दिल आभार रेणु ज़ी
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