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मंगलवार, 8 अगस्त 2023

अंतहीन : गीत

 

आज पुरुवाई संग एक कहानी आई,

खुशबु वो कुछ-कुछ पुरानी आई।

अंतस देखने लगा उस दुनियां को, 

जब थी लड़कपन की रवानी पाई।


दिखता नहीं था भेळ भंगार कहीं,

चलते थे पाँव ये कहीं के कहीं।

कहीं फाळ, कहीं कच्चाक लगती थी,

माँ कंडाली से फिर स्वागत करती थी।


आज वे कंडाळी के दमळे रुलाने आई,

खुशबु वो कुछ कुछ पुरानी आई।


डगर कहीं, नजर कहीं रहती थी,

ककड़ी के झ्यालों पर आँख टिकती थी।

बस्ते भर-भर नारंगी भकोरना था,

गालियों से मन नहीं झकझोरना था।


आज फिर वो गालियाँ डराने आई

खुशबु वो कुछ कुछ पुरानी आई।


स्कूल न जाने का अजीब बहाना था,

जाकर गदेरों में नहाना जो था। 

पीरियड गोल करना भी रौब  होता, 

गुरुजी के डंडे का खूब खौफ  होता।


आज डंडों का फंडा मन भाने आई,

खुशबु वो कुछ कुछ पुरानी आई। 


गुच्छी खेले बिना कहाँ ठौर था, 

मजा गुल्ली डंडे का कुछ और था। 

झड़प झापड़ मुक्का मुक्की चलती थी,

बिछुड़ते प्रेम भुक्की नहीं छूटती थी।


गजब दोस्ती की अजब कारिस्तानी आई,

खुशबु वो कुछ कुछ पुरानी आई।


वो बचपना आज कहीं खो गया,

बस्तों के नीचे दबा लिया लगा।

कंप्यूटर मोबाईल लत चाटने लगा, 

बाल मन डिजिटल डाटा कब्ज़ाने लगा ।


नोनीहालों का हाल ये दुखानी आई,

विकास अंधड़ उड़ाने आई।


चंचलता ये कैसी जद में आने लगी,

बच्चों की सरारतें सुस्ताने लगी। 

कोई नहीं जान रहा बाल मन की थाह,

बस प्रसंटेज की प्रसंशा भुनाने आई।

आज पुरवाई संग एक कहानी आई।



@ बलबीर राणा 'अडिग'

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