जटिल
बिडमबनाओं की सय्या सोते,
मनुष्यों
को क्या कोई जगायेगा?
आभा
जिसकी कुत्सित पतंगों को जलाये,
कोई
ऐसा दीपक बन पायेगा?
व्यभिचार
की काली रातों में,
आचार
प्रकाश कोई फैला पायेगा?
फीकी
ना पड़े चमक आज इस दल-दल में,
वसुंधरा
गर्व से हीरा क्या कोई निकल आयेगा?
जिससे
सोभायमान देश का आँगन हो,
निर्मल
नीर भरा कलस कोई सजा पायेगा?
जब
नियत सबकी सागर पिने की हो
फिर
कौन प्याऊ कल्याण का लगायेगा?
लाक्क्षा
गृह बंद मानवता आज
विदुर
मददी भक्त कौन हो पायेगा?
ऐसे
अनगिनित यक्ष प्रश्नो के ओज से ,
मायावी
ताल जीवन मूर्छित मौन है,
सत्य
वेदी पर बैठा ऐसा
युधिष्ठर
आज कौन है?
शकुनियो
के इन महासभाओं में
मर्यादा
मोहरें हारती रहेगी,
नीती
जब मूक पांडव बन जाये,
चीर
द्रोपदियों की उतरती रहेंगी।
१४ मई २०१४
रचना:-
बलबीर राना “अडिग”
© सर्वाधिकार सुरक्षित
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (16.05.2014) को "मित्र वही जो बने सहायक " (चर्चा अंक-1614)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद राजेंद्र जी
जवाब देंहटाएंबेहद उम्दा रचना और बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@आप की जब थी जरुरत आपने धोखा दिया (नई ऑडियो रिकार्डिंग)