मैं बेल,
बिना सहारे के
जमीं पर रेंगता मेरा जीवन ।
कोई लांघता, कोई कुचलता
किसी की
सहानुभूति
एक ओर कर देती ।
बजूद अपना बचाने को
सहारे के लिए हाथ बढाती रही।
सहचर्य की चाह में
जमी पर सरकती गयी।
आया यौवन एक से दो, दो से चार
शाखाऐं मेरी बढती गयी।
चरों ओर रेंग - रेंग कर
एक घेरा बना डाला।
वो घेरा ! एक जाल बन गया
घरोंदा मेरा, कीट पतंगों की पनाह,
भुजगों की आरामगाह
बनके रह गया।
निचे के जीवन को
मारती गयी।
किसी को न उगने, न पनपने दिया
मैं हत्यारिन बनती गयी।
पत्ते मेरे सूखते रहे, गलते गए।
अभागे यौवन ने फूल उगाये
कुछ सन्तति के लिए लडते रहे,
कुछ दुनियां के दमन में
दम
तोडते
गए।
इस नारकीय जीवन में
फल मेरे सडते रहे
कीड़ों का निवाला बनते गए।
और किसी के काम न आये
जीवन भर,
आशमान की ओर
देखती रही
ऊंचाईयों को ताकती रही।
सुदृड सहारे की चाह में
जीवन काटती रही।
मेरे
भी ये
अरमानो थे
लताएँ मेरी,
ऊँची डाली पर लटकती
मस्ती करती और
फल मेरे लटकते झूमते
राहगीर को ललचाते।
मैं
अकड़ से कहती
अधिकार उसी का मुझ पर,
जिसने जीवन संवारा मेरा
लेकिन ?
मेरे अरमान अरमान ही रहे।
अब बृद्धा अवस्था ........
पत्ते साथ छोड गये
बिना आवरण के,
नंगी लताओं के साथ
निडाल ........ असहाय।
रचना
:- बलबीर राणा "अडिग"
हर शब्द बहुत कुछ कहता हुआ, बेहतरीन अभिव्यक्ति के लिये बधाई के साथ शुभकामनायें ।
जवाब देंहटाएं