धरा पर जीवन संघर्ष के लिए है आराम यहाँ से विदा होने के बाद न चाहते हुए भी करना पड़ेगा इसलिए सोचो मत लगे रहो, जितनी देह घिसेगी उतनी चमक आएगी, संचय होगा, और यही निधि होगी जिसे हम छोडके जायेंगे।
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सोमवार, 27 जुलाई 2015
एक और उद्वेग
तुझे अपना समझ जी रहा था
नहीं पता था तु पराया समझ निभा रहा है
इबादत लिखने चली जब कलम दिल में तेरे
देख हैरान हूँ परायापन की स्याही पहले से पुती हुयी है।
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