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रविवार, 31 जनवरी 2016

लिख गीत नव चेतना का


गुनगुना उठे मनुज मन
स्नेह विभोर रोमांचित तन रहे
लिख गीत नव चेतना का
मनुजता हर हृदयगम रहे
सब कंठ गाये गीत वतन का
हर हाथ तीन रंग का निशान रहे
एक ही हँसी का रस निकले
एक ही दर्द का लहू बहे
एक ही भारत वंदन बंद हो
ऐसा मानवीय वितान रहे
कर्म सत्य सृजन संचय करे
हरीशचंद्र की धरती का अभिमान रहे
एक बगिया के फूलों की
रंग बिलग एक सुगंध
एक ही नीर से सिंचित सब
सबको ये भान रहे
भारत भाग्य विधाता हो हर सुत
सबका स्वाभिमान जगे
लिख गीत नव चेतना का
मनुजता हर हृदयगम रहे

रचना : बलबीर राणा 'अडिग'
© सर्वाधिकार सुरक्षित 



रविवार, 17 जनवरी 2016

सैनिक की ख्वायिस


बैरी चाहे कितना भी बलशाली हो
तोपें चाहे उसकी कितनी भी हावी हो
बिजली की कड़क हो या बौछार हो
रेगिस्तान की आग बरसाती दुपहरी के अंगार हो
भारत पुत्र हूँ हर हाल से निपट के आऊंगा
तिरँगा लहरा के आऊंगा या तिरंगे में लिपट के आऊँगा।

कितनी भी शीत भरी बर्फीली आंधी चले
बादल गरजे या सैलाब बहे
ये अडिग हिमालय पुत्र हिलेगा नहीं
हेड सूट करेगा, लक्ष्य से चुकेगा नहीं
कसम जो को खायी थी गीता पर हाथ रख कर
उस कसम को हर हाल में निभाता जाऊंगा
तिरंगा .............

माँ कसम तेरी
दुश्मन के पग तेरी धरती पर  नहीं रखने दूंगा
कोख सूनी हो सकती पर बदनाम न होने दूंगा
अपने भाई के लिए निशान मातृभक्ति का छोड़ जाऊंगा
जो आँख भारत विशाला पर उठेगी उसे फोड़ के आऊंगा
तिरंगा लहरा के आऊंगा या तिरंगा लिपट के आऊंगा।

पता है मुझे भेदिये विभीषणों की कमी नहीं
चिता की आग में रोटी सेकने वालों की कमी नहीं
लेकिन मन मेरा भरमेगा नहीं है
कदम लड़खड़ा सकते पर रुकेंगे नहीं
क्योंकि राजगुरु विस्मिल का  एक सुरी जय हिन्द मेरे कानो गूंजता है
नाम नमक निशान पर मिटना मेरा सैनिक धर्म मुझे सिखाता है।
आखरी सांस तक माटी के लिए सर्वस्व न्यौछावर करना नहीं छोड़ूंगा
तिरंगा लहरा के आऊँगा या तिरंगे पर लिपट के आऊँगा।
रचना @ बलबीर राणा 'अडिग'
© सर्वाधिकार सुरक्षित ।
प्रस्तुत रचना सच्चे सैनिक भावना पर मन के उदगार है काश भगवान् इस कर्तव्य पथ पर हमेशा चलने का अवसर दे

सैनिक उद्गीथ



कोमल कोंपल राह ड़ाल की दौड़ने जब चला
यौवन नयी उमंग लिए नयी राह की और बड़ा

मधुरिम गीत जीवन के लिखने को सोचा था
नव चित प्रेम व्यंजना को पढ़ने जो लगा था
चातक की प्यास लिखुंगा भंवरे का गुंजन
बाँधूंगा बासंती चपलाहट को अक्षरों के बंधन।

पनघट पर नटखट यौवना का नाटक रचुंगा
अकेली बिहरन के गीतों को सुंदरबन गुंजाऊंगा
अथाह उमंगे थी यौवन की बृन्दाबन नाचने की
नहीं पता था चिंगारी अंदर सुलग रही देशभक्ति की।

सीड़ी से कूद पड़ा यौवन बन्दूक थामने ले लिए
निर्वसन हुयी मधुरिम गीतों की तान अपना मुँह लिए।

मंजुल भाव अंकुरित हुए थे जो रुपहले यौवन में
पनपते ही भेंट चड़ा आया मातृभूमि को दिए वचनो में
अब रुपहली वही स्वेत बर्फ की चोटियां लगती
जहाँ से देखता दिव्य भारत की तस्वीर मन में।

दो दिनी मुखोटा पहन लेता हूँ गृहस्त यात्रा में
फिर बनवासी बन जाता हूँ अनजाने सघन में
तमन्ना नहीं अब किसी प्रियसी के वहुपास की
अथाह प्रेम हो चला मातृभूमि के क्षितिज निर्जन में।

अब कारुण्य कल्पना के चित्र घूमिल हो गए चितवन में
अक्षर संवेदना के संज्ञा रहित, चिर निंद्रा पड़े भाव पलकन में
जिजीविषा की जद्दोजहद में सतरंगी जीवन सपना लगता
खुशहाल रहे वतन मेरा यही कर्मक्षेत्र अब अपना लगता।

रचना:- बलबीर राणा ‘अडिग’



शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

नयीं प्रभा नयी स्फूर्ति


आ गयी नयीं प्रभा नयीं स्फूर्ति लिए,
फिर उग आया सूरज नयां बन तेरे लिए।
पर्वत की ओट से छन-छन नयीं किरण,
आँगन जगमगाने आयी नयीं रोशनी लिए,
नव उमंग से फिर लाल हुआ व्योम तेरे लिए।
छोड़ उबासी नव पथ पर निकला भंवरा
नयें गीतों की नयीं तान, मोहनी गुंजन लिए
स्वागत में बैठी नव सुमन कली सिर्फ तेरे लिए।
कर्म साधना साध्य हो जीवन के नव पथ पर
नूतन वर्ष इन्तजार में खड़ा संग श्रम के लिए
नयीं सुगंध संग ताज़ी पुरवायी बह रही तेरे लिए।
आओ फिर संकल्प संगठित करें मानवता का
सतकर्म समर्पण करें, एक नयें भारत के लिए
सुगम, शुभम-शुभ अडिग आह्वान तेरे लिए।
@ बलबीर राणा 'अडिग'