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शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

एक आहुति श्रद्धा की



जिस राह गुजरे हों शहीद उस राह की  माटी चन्दन है,
खप गए जो देश के लिए उन माटी पुत्रो को वंदन है।

राष्ट्र रक्षा के खातिर, सीना जिनका कवच बना रहता
नाम नमक निशान को जो स्व सर्वस्व न्यौछावर करता
जान हथेली पर रख कर जो फिरते ओर-छोर सारा
जिनकी  तप तपस्या से  सुख समृद्धि में वतन हमारा
मोती बन जाता जो कर्म उस कर्म को शत शत नमन है
खप गए जो देश के लिए उन माटी पुत्रो को वंदन है।

जिनकी रगों में रुधिर देश भक्ति का अविरल बहता रहता
जय घोष जयहिंद का करता गीत हरपल वंदेमातरम गाता
जिनकी राह गिरी राज नतमस्तक हो ठहरती हो गंगा धारा
नहीं डिगता ईमान बर्फीले बबंडर में वही ईमान हो सहारा
साधना जिनकी रच गए भारत भाग्य शादहत दे गया अमन है
खप गए जो देश के लिए उन माटी पुत्रो को वंदन है।

जिनकी अडिगता से अडिग है आज भी हिमालय
जिनके श्रम साध्य से बनी है ये धरती शिवालय
 तिरंगा लहराते हुए  जिनकी हर पल याद दिलाता
अमर ज्योत लपलपाते गौरव गाथा उनकी सुनाता
धन्य हो नींव की ईंटो  जिनपर बना भारत भवन है
खप गए जो देश के लिए उन माटी पुत्रो को वंदन है।

हम नहीं लौटा सकते उनका जीवन
ना दे सकते उन जननियों की हंसी
मांग भर नहीं सकते विरांगनाओं की
ना लौटा सकते उन अबोधों की ख़ुशी
एक आहुति श्रद्धा की उनके नाम सूना जिनका चमन हैं
खप गए जो देश के लिए उन माटी पुत्रो को वंदन है।

रचना : बलबीर राणा 'अडिग'

सोमवार, 19 दिसंबर 2016

****जय जवान****

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मुद्तों से बनाता रहता
वह उस आड़ को
कि उसके पीछे से
बचा सके अस्मिता
माँ भारती की।


इन्तजार नयीं सुबह का


ये झुर्रियां और गाल का पिचकापन्न 
देख रहा हूँ जीवन की साँझ ढलती जा रही है

पथरायी आँखे होंठों का बधिरपन
सवाल अनगिनित, तुझ से कर रही है।


माला के दानो में भजता रहा गिनता रहा 
तेरे  मूक को देख अब हिम्मत जबाब दे रही है 

अब कुछ आस जगी उसकी नींद खुल आलस अब भी है 
आने वाले नव भरतवंशी के लिए आस जग रही है

उग रहा एक सुरज भारत में 
काले वालों की काली रात जा रही है

होंठों पर जिसका भारत बंदन 
बीणा के स्वर संग बंदेमातरम गा रही है

इन्तजार है उस एक नयीं सुबह का 
जिसे देख रहा हूँ मैं वह हँसते आ रही है




*****मौसम बदलने लगा*****


अचानक ये कैसा मौसम बदलने लगा
गर्मी देख शिशिर भी हाथ मलने लगा।
सौ रहे थे जो गड़िड़्यों के ऊपर रजाई औढ़
बिन चदर पसीने से कागज पिघलने लगा।
कल तक सफ़र सुहाना था, गाडी सौ से ऊपर थी
ये मुआं कहाँ से आया, सौ का भी लाला पड़ने लगा।
चीरी मच गयी ये अचानक कैसी लपटों ने घेर दिया
इस गर्मी से वातानुकूलित तहखना उबलने लगा।
इतनी जल्दी जमीन पर आजाऊँगा सोचा नहीं था
अब तो नोकर भी लाईन में साथ खड़ा होने लगा।
तेरा क्या खाया था तोदी के बच्चे, सबका हिस्सा था
काला समझ बच जायेगा, अब सबका अंत लगने लगा।
अब घोषणा हो चुकी, जनाजा तो निकलना तय ठैरा
बिना भोज के जनाजियों का आना मुश्किल लगने लगा।

चीरी मचना = बहुत दर्द होना

****माँ माटी और मिशन****


माँ, माटी और मिशन 
यही मेरा धर्म 
शिकवा नहीं
मेरा घर बिलख रहा
उसका घर खिलखिला रहा
माटी के लिए
बलिदान फितरत में थी
बलिदान हो गए
जय हिन्द गाते गाते।



बलबीर राणा 'अडिग'

****** हकदार ******

इस प्रकृति के विभव कोष का 
कौन पुरुष सुख भोगा सकता
चिर काल तक मानस मन पर
केवल प्रजा वरद पुत्र रह सकता
श्रम जिसका मनु हित रचा गया
वही देव सिंहासन हकदार हो सकता ।



शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

कालग्नि


निर्द्वेष हृदय
द्रोहाग्नि का मूल
नहीं हो सकता
ना ही
निर्द्वेष शरीर बृत्ति
लड़ने की
ये कालग्नि लपटें तो
विषैले व्यक्तियों की
सांस से निकलती हैं
जिसकी जद से
मनुष्य युगान्तर से
युद्धरत है।

@ बलबीर राणा 'अडिग'

माँ माटी और मिशन


****माँ माटी और मिशन****
माँ, माटी और मिशन
यही मेरा धर्म
शिकवा नहीं
मेरा घर बिलख रहा
उसका घर खिलखिला रहा
माटी के लिए
बलिदान फितरत में थी
बलिदान हो गए
जय हिन्द गाते गाते।

@ बलबीर राणा 'अडिग'