घर में बहुत भीड़ लगी थी, एक तरफ माँ बिलख रही एक तरफ दादी, दादा एक कमरे में मौन सिर झुकाए बीड़ी पर बीड़ी सुलगाये जा रहा था, बड़ी बहन राजी जो मात्र 12 साल की थी सबक़े दुख की साझीदार हो रही थी सायद उसको कुछ आभास और समझ थी, कभी माँ के गले लग फ़फ़क्ति कभी दादी के आंसू पौंछती और कभी दादा की जलती बीड़ी हाथ से दूर फेंक रही थी। छः साल का वैभव समझ नहीं पा रहा था ये क्या हो रहा है ! सब लोग क्यों रो रहे हैं। उसके दोस्त भी अपनी माँ या दादी साथ आये थे वे भी चुप, जो भी आ रहा सर पर हाथ फिराता और रुआंसा मां दादी और दादा के पास जाते और सांत्वना देते, विधि का विधान है, भगवान अनर्थ हो गया, एरां बीर गति पा गया बीर सिंह, अपने को संभालो। घर के बाहर लोगों की भीड थी जिसमें मीडिया नेता, नजदीकी रिश्तेदार सभी थे। इतने में भारत माता की जय, बीर सिंह अमर रहे, पाकिस्तान मुर्दाबाद, बीर सिंह अमर रहे के नारे लगने लग गए। शहीद बीर सिंह का पार्थिक शरीर तिरंगे ताबूत में पहुंच चुका था, सलामी देने फौज का बैंड और बीस जवान एक जनरल साहब और कुछ ऑफिसर आये थे, किसी रिश्तेदार ने एक कंधे में ताबूत दूसरे कंधे में वैभव को उठा रखा था, वह अबोध जनता के जोश के साथ हाथ उठा बीर सिंह अमर रहे के नारों को लोगों के साथ दोहरा रहा था। अंतिम दर्शन के लिए ताबूत खुला सबने बेहाली में दर्शन किये कोई वैभव को भी अंतिम दर्शन के लिए ले गए, बक्से में चिर निद्रा में पापा को देख वह मासूमियत से कह रहा था पापा उठो...उठो न ! इस बक्से में क्यों सोये हो? सुनो सब आपको अमर रहे कह रहे हैं, उठो न.... उठो.....रोवो चिल्लाओ मृत देह कहाँ आवाज देती है। उस अबोध को क्या पता था पापा मातृ भूमि के लिए हमेशा को अनंत यात्रा पर चले गए, अब कभी नहीं उठेंगे। इस दृश्य को देख पत्थर भी अपने आंशू नहीं रोक पाया रहा था।
@ बलबीर राणा 'अडिग'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें