हर ईंट जतन से संजोयी
कण कण सीमेंट का घोला
अट्टालिकाएं खड़ी कर भी
स्व जीवन में ढेला
यह कैसा मर्म कर्मो का
जीवन संदीप्त पा नहीं सकता
नीली छतरी के नीचे कभी
छत खुद की डाल नहीं सकता
मुठ्ठी भर मजदूरी से
उदर आग बुझ जाती
चूं चूं करते चूजों देख
तपिस विपन्नता की बड़ जाती
चिकना पथ बनाते बनाते
खुरदरी देह दुखने लगी है
पथ के कंकर नगें पावों को
फूल जैसे लगने लगी है
हाँ खुदनशीब हूँ
लिप्सा के शूल मुझे नही चुभते
टाट के इस बिछावन में
फूल सकून के हम चुनते।
@ बलबीर राणा 'अडिग'
यथार्थ वाली हृदय स्पर्शी लेखन ।
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन टीम की ओर से आप सब को कृष्णाजन्माष्टमी के पावन अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएं!!
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 24/08/2019 की बुलेटिन, " कृष्णाजन्माष्टमी के पावन अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएं “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंहृदय स्पर्शी रचना
जवाब देंहटाएंसादर
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसभी बुद्धिजनो का हार्दिक आभार
जवाब देंहटाएंआप विद्धवत जनो की टिप्पणी मेरी कलम लिए टॉनिक का काम करती है सभी का तहे दिल आभार
जवाब देंहटाएंहर शब्द अपनी दास्ताँ बयां कर रहा है हृदय स्पर्शी बधाई स्वीकारें
जवाब देंहटाएंहार्दिक अभिननदं भास्कर जी
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जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना 28 अगस्त 2019 के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
वाह!! सुंदर सृजन ।
जवाब देंहटाएंआदरणीय बलबीर जी , सार्थक और मार्मिकता से रचना , उन श्रमजीवियों के नाम -- जिन्होंने बहुमंजिला इमारते और हजारों किलोमीटर रास्तों के निर्माण में अपना सर्वस्व लुटा दिया , पर खुद के लिए पीढ़ियों से आजीवन एक छत का जुगाड़ ना कर सके |
जवाब देंहटाएंHardik aabahr Aadrneeya Shuba ji, Renu ji
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