१.
मेरा चिन्तन गाँव के लिए
मेरा मंथन गाँव के लिए
चाहता हूँ उभरे और कोई भाई
उभरते ही गाँव से जाने के लिए।
२.
वे पलायन पर खूब बातें करते
ग्राम हालात पर चिन्तित दिखते
शहर के आलिशान आशियाने से
स्टेटसों में बहुत व्यथित दिखते ।
चाहत ने मन को बेमान बनाया
स्वाद ने रसना को गुलाम बनाया
लार टपकने से रुकती अब कहाँ
भौतिकता ने सबको स्वान बनाया।
कहाँ है भगवान किसने देखा
क्या होता ईमान किसमें देखा
ऐसे चेतनाहीऩ प्रश्न वालों का
मर्यादा निदान किसने देखा।
धन से खुसी खोजने वालो
हँसी के लिए चमन रौंधने वालो
नहीं मिली सांसे तिजोरी उड़ेल भी
चमन को तिजोरी में भरने वालो ।
जल्लादी सीरत पिघल सकती है
पत्थर से जलधारा निकल सकती है
इंशानियत पे आकर तो देख आदमी
भाग्य की रेखा बदल सकती है ।
ईमान राजनीति में बिक गई
चाटुकारिता में कलम बिक गई
अब मत पूछो बिकना क्या बाकी
कुर्सी की चाह में आत्मा बिक गई।
८.
हम भूखे पेट गुनाहगार बन बैठे
वे खा खा कर बिमार बन बैठे
चिखते चिल्लाते थे जो जनहित
वे ही जन के गद्दार बन बैठै ।
@ बलबीर राणा 'अडिग'
https://adigshabdonkapehara.blogspot.com/
गजब रचना च🙏🌺🌺🌺👌
जवाब देंहटाएंबढ़िया!!
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सृजन ।
जवाब देंहटाएंआभार मीना जी
हटाएंवाह!भौत सुंदर।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छे मुक्तक हैं...।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शर्मा जी
हटाएंसटीक विश्लेषण !आज के सत्य पर सीधे चोट करते सार्थक मुक्तक ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आदरणीया
हटाएंबहुत सुंदर मुक्तक
जवाब देंहटाएं