प्रयोजन होते सभी के पृथक, विलग,
पर! पाते वही जो स्वयं को खपाते हैं।
मद, सियासत लोलुपता चीज ही ऐसी,
यहाँ निर्देशक भी राह भटक जाते हैं।
कुठार* भरे पड़े हैं, भ्रष्टाचार से जिनके,
वही भ्रष्टाचार खत्म करेंगे बखाते हैं।
खुद घुटनों तक जल पड़े हैं, भीतर,
किड़ाण* कहाँ आ रही बाहर चिल्लाते हैं।
लगन की लागत पहचानने वाले 'अडिग'
अगर-मगर वाली डगर नहीं जाते हैं।
*
कुठार - भंडार
किड़ाण - बालों के जलने की गंध
@ बलबीर राणा 'अडिग'
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 4 सितंबर 2025 को लिंक की जाएगी है....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
आभार सर 🙏🙏
हटाएंसुंदर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर
हटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंसुंदर
जवाब देंहटाएंलगन की लागत पहचानने वाले 'अडिग'
जवाब देंहटाएंअगर-मगर वाली डगर नहीं जाते हैं।
सुन्दर 👍
आभार महोदया 🙏🙏
हटाएंबहुत ही सुन्दर भाव,उतनी ही सुन्दर रचना
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