धरा पर जीवन संघर्ष के लिए है आराम यहाँ से विदा होने के बाद न चाहते हुए भी करना पड़ेगा इसलिए सोचो मत लगे रहो, जितनी देह घिसेगी उतनी चमक आएगी, संचय होगा, और यही निधि होगी जिसे हम छोडके जायेंगे।
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रविवार, 30 दिसंबर 2018
फौजी की डायरी
शनिवार, 10 नवंबर 2018
देवांगन बैरासकुण्ड
सर माथे पंचजूनी पर्वत छत्रछाया
धरती की यह सुंदर मोहनी काया
जिसके मस्तक शिव शंकर बिराजमान
कलित मनोहर प्रकृति परिधान।
जहां भद्र से पहली रवि किरण पड़ती है
वह देवांगन बैरासकुण्ड की दिव्य धरती है।
हरे भरे बन, बांज बुरांस की शीतल बयार
दशानन तपस्थली धारा विहंगमता आपार
आशुतोष सिद्धपीठ, प्रकृति अनुपम छटा
चहल पहल सुखी वैभव जीवन घटा।
जहां भाईचारा व मानव आत्मा बसती है
वह देवांगन बैरासकुण्ड की दिव्य धरती है।
सौम्य मटई बैरूँ की हरी-भरी सैणी सार
अति रमण रमणीय फेन्थरा सेमा की धार
कल कल करती चरणों में मोलागाड़ सदानीरा
लहलहाते खलतरा मोठा चाका के सेरा।
जंगलों को संवार पर्यावरण रक्षा जहां होती हैं
वह देवांगन बैरासकुण्ड की दिव्य धरती है।
देव थानों की भुमि पुण्य अति पावन
हीत दोणा देणी भुम्यालों का आंगन
रहा वशिष्ठ मुनि आश्रम कहते पुराण
लगते हर वर्ष पुज्य पांडवो के मंडाण।
जो दिग दर्शन महा हिमालय का कराती है
वह देवांगन बैरासकुण्ड की दिव्य धरती है।
गमन अब इस देव स्थली में हो गया आसान
सुगम यात्रा मोटर वाहन हर समय चलायमान
सच्चे मन से जो मांगोगे भोले मन्न्त करेंगे पूरी
नयनाभिराम मिलेगा, यात्रा नही लगेगी अधूरी।
बार बार जिसके दीदार को आंखे तरसती है
वह देवांगन बैरासकुण्ड की दिव्य धरती है।
रचना : बलबीर राणा 'अड़िग'
बुधवार, 31 अक्टूबर 2018
रावण दहन
आज फिर पुतला जलेगा
राख ढेरों में शहर लिपटेगा
बारूदी धुंवें में दुभर होंगी सांसे
रावण अवशेष वैसे ही अट्टहास भरेगा
अर्थ सारे व्यर्थ हैं
दानवी चलन वैसे ही अनर्थ हैं
पापी पुतले अकड़े हैं
ज़िंदे रावण वैसे ही खड़े हैं
तंत्र कुम्भी नींद मदहोशी में हैं,
कर्मकार मेघनाथ जैसे निर्दोषी है
जनता तमाशाबीन मूक बधिर खड़ी है
खिसको यहां से मेरी क्या पड़ी है।
कागजी रावण हर वर्ष जलता है
अंदर का रावण वैसे जी हंसता है
राम बाण शब्द जालों में भ्रमित है
मर्यादा निर्बल लोगों तक सीमित है।
जरूरत है अंदर के रावण दहन करने की
मेरा तो क्या भावनाओं को समन करने की
रामराज्य खुद व खुद चौक से चौबारे आयेगा
भारत फिर से सोने की चिड़िया कहलायेगा।
@ बलबीर राणा 'अड़िग'
बुधवार, 3 अक्टूबर 2018
श्रम शक्ति
कमी रखता नहीं कोई रह जाती है
राह संभलते भी ठोकर लग जाती है
अवरोध नहीं होता हर कोई प्रस्तर
कंकरी छोटी सी भी रोड़ा बन जाती है।
इम्तहान है जिंदगी का हर एक लम्हां
प्रश्न एक के बाद एक सामने आता है
पन्ने भरने की कोशिश हर कोई करता है
फिर भी कोई पन्ना कोरा ही रह जाता है।
सफर है यह जिंदगी चलती का नाम गाड़ी है
न चाहते हुए भी कुछ अवशिष्ट छूट जाता है
कोशिश करता है हर कोई निशानी छोड़ने की
वाकिया नुक्ता सा भी निशानी मिटा देता है।
रंग मंच है यह जिंदगी खुल के अभिनय करने का है
क्रीड़ा स्थली है यह यहाँ खूब जमके खेलना का है
ऐसा संभव नहीं हर मैच में जीत तेरी ही हो अड़िग
लेकिन तन मन से श्रम शिल्प नहीं छोड़ने का है।
@ बलबीर राणा "अड़िग"
बुधवार, 15 अगस्त 2018
वतन पहरेदारों की जय बोल
जय बोलो जय हिन्द की वो सबके साझेदार हैं
जय बोलो उन वीरों की जो वतन के पहरेदार हैं
चैन की नींद वतन सौता है जिन बीरों के पहरे में
हर घड़ी के जागरण से भी सिकन नहीं चेहरों में
अमन गीत वो गाते फिरते काष्ठ के उस जीवन में
माँ माटी का तिलक लगाया खाते पीते यौवन में
मोह मात्र, उस क्षितिज की जिसके वे ठेकेदार हैं
जय बोलो उन बीरों की जो वतन के पहरेदार हैं।
देश खुशियों के खातिर जो खून की होली खेलते हैं
सरहद की अग्नि लपटों को सहज सीने पर झेलते हैं
युद्ध समर महायज्ञ में मृत्यु मंत्रों का जाप वो करते
बारूद समिधा की लो में होम अरि मुंडों का धरते
समग्र आहुती देते वे योद्धा तेज जिनकी धार हैं
जय बोलो उन वीरों की जो वतन के पहरेदार हैं।
शीत लहरों की ठिठुरन हो या तपता रेगिस्तान हो
मेघों की बौछारें हो या चीरता बर्फीला तूफान हो
कदम नहीं लखड़ाते जिनके धूल भरी आंधियों मैं
शेर ए हिन्द मस्त मोले रहते हिमखंडी वादियों में
दुर्गम उतुंग हिमालय चौकियों के वे चौकीदार हैं
जय बोलो उन बीरों की जो वतन के पहरेदार हैं।
पुकार त्राहिमाम पर संकट मोचन बन उढ़ आते हैं
अमोघ शास्त्र हैं आफत के झट प्रत्यंचा चढ़ जाते है
निज जीवन अभिलाषा उनकी टंगी रह जाती है
नहीं पता कब देह इनकी तिरंगे पर लिपट जाती है
माँ भारती के इन तपस्वियों को नमन हजार बार है
जय बोलो उन वीरों की जो वतन के पहरेदार हैं।
रचना : बलबीर राणा "अडिग"
रविवार, 12 अगस्त 2018
उषा किरण
मुश्कान बिखेरती है वह झर-झर
किसलय कलियों के अधरों पर
आहिस्ता दस्तक दे रोशन दान से
चुपके चुम्बन करती कपोलों पर
अलसायी मृणांली देह संकुचाती
स्पर्श उसका आनन उरोजों पर
सरस सुरभि शीतल स्नेह लेकर
आयी है उषा किरण लाली भर कर
चिडया चूं चूं कर भोर वंदन करती
उषा किरण संग उर साधना जुट जाती
कंचन आभा सी चमकती ओश बूंद
दूर्वा शीश बैठ सबको लुभाती।
@ बलबीर राणा "अडिग"
सोमवार, 30 जुलाई 2018
आशाओं की उमंग
कब उजलेगी दिशाएं कब छंटेगा कुहासा
कुचली हुई शिखाओं की कब जगेगी आशा
कोई जरा बता दे ये कैसे हो रहा
धुंधली तिमिर का तम क्यों बढ़ रहा
अपसय की झालर गहरी हो रही
आकंठ झोपडियों टिमटिमाती लो बुझ रही
कौन दाता इस संदीप्ति को सुला रहा
उगते हुए की जड़ जहर सींच रहा।
इस वतन के हित का अंगार मांगता हूँ
सो रही जवानियों में एक ज्वार मांगता हूँ।
बैचैन हैं हवाएं, चहुँ और हुदंगड़ है
सालीन किश्ती को बबंडर का डर है
मँझदार में है केवट ओझल है किनारा
उछलती लहरों के कुहासे में डूबा एक सितारा
नभ अनल ताप भी रह गया अब बेचारा
किस सुत ज्योति पुंज से दूर होगा अँधेरा।
इस दुर्भिक्षण के लिए एक संग्राम मांगता हूँ
धारा पर भारत की फिर वही पहचान चाहता हूँ।
कुचक्र के पहाड़ से अवरुद्ध है गंग धारा
शिथिल है बलपुंज केसरी का वेग सारा
अग्निस्फुलिंग रज ढेर होने के कगार है
स्वर्ण धरा का यौवन अँधेरे में भटक रहा है
निर्वाक है हिमालय यमुना सहमी हुई है
निस्तब्धता थी निशा, दुपहरी डरी है।
फिर एक विकराल भीमसेन का माँगता हूँ
भ्रष्टाचारियों के जिगर भूचाल माँगता हूँ।
मन की बंधी उमंगें कब पुलकित होगी
अरमान आरजू की बरात कब सजित होगी
दुःखीया रातें आशा की किरण खोज रही
विक्रमादित्य की वसुन्धरा कराहने लगी
क्या ब्राह्मण क्या ठाकुर क्या कहार कुर्मी
लक्ष्मी कीचड़ में लिपटी बिलख रही।
गर्त में पड़ी मानवता का उत्थान माँगता हूँ
शासक अभिमन्यु, शिव जैसा तूफान माँगता हूँ।
भर गया है भयंकर भ्रष्ट टॉक्सिन हर रग में
बेचैन है जिन्दगी घर घर में
ठहरी हुई साँस को कौन राह दिखायेगा
गरीब घर का दीप कैसे टिमटिमायेगा
लेकिन राजनीति के इन शकुनी पांसों से
निजात मिलना आसान नहीं लगता
असंख्य दुर्योधनों के संग कुरुक्षेत्र में
कटने का संशय कम नहीं लगता।
जन्म वसुधा हित तुझसे वरदान माँगता हूँ
वासुदेव कृष्ण का फिर अंशदान माँगता हूँ।
रचना: बलबीर राणा "अडिग"
सोमवार, 7 मई 2018
रण नाद
शूरबीर तुम भारत के बढ़ते जावो चढ़ते जावो
रण नाद जय हिंद, जय भारत का करते जावो।
न रुके कदम कभी, न कभी बाहुबल लड़खड़ाये
चहूं ओर भारत क्षितिज पर तिरंगा लहराते जावो।
हौंसले में उमंग हो, उमंग में जतन हो
जतन में बिराम न आये, पौरुष रिपु माथे चढ़ता जाए
हे भारत पुत्र भरतवंशी, रंग बिलग संग चलते जावो
जय घोष जय हिंद, जय भारत का करते जावो।
2.
वार क्राई जय घोष, जब युद्ध मैदान गरजता है
दुश्मन का काल बन, हिन्द का जवान उतरता है।
आदर्श वाक्य रेजिमेंट का, सर माथे हमारा होता है
हुंकार भर रण भूमि में दुश्मन के पग तोड़ता है।
3.
“जय महाकाली आयो गोर्खाली” गोरखा बोलता है
“कायर हुनु भन्दा मरनु राम्रो” आदर्श संग खड़ा होता है।
“बोल बद्री विशाल लाल की जय” करके गरजते गढ़वाली
"युद्धाय कृतनिश्चय:" आदर्श से कोई वार न जाता खाली।
“गरुड़ का हूँ बोल प्यारे” तगड़े गार्ड्स चिल्लाये
“पहला हमेशा पहले” आदर्श से झंडा लहराये।
“कर्म ही धर्म है” के आदर्श की जब बजेगी मुनादी
“जय बजरंगी बोल” पवन पुत्र की तरह कूदते बिहारी।
जब चल पड़ेगा विजय रथ “शत्रुजीत सर्वदा शक्तिशाली”
हर हर महादेव कर छातों से कूद पड़ता छाताधारी।
“जो बोले निहाल सत श्री काल” गुरु मंत्र ले रण भूमि पंजाबी उतरते है।
आदर्श “स्थल और जल” पर पताका फहराने का वे जज्बा रखते हैं।
“अडि कोलू अडि कोलू” की हुंकार भर जब मद्रासी चलता है
“स्वधर्मे निधनं श्रेयः” आदर्श के लिए समग्र समर्पण करता है।
सर्व धर्म एक ही परिवार के जब ग्रेनेडियर्स जवान फांदता है
“सर्वदा शक्तिशाली, जय हिंद का नारा” चहुँ ओर गूँजता है।
“छत्रपति शिवाजी महाराज की जय” बीर मराठा जब कहता है
आदर्श “कर्तव्य मन साहस” ले रुधिर चाप रण में चढ़ता है।
वीर वे जब दहाड़ खोले,
“राजा राम चन्द्र की जय” वो बोले
“बीर भोग्या वसुंधरा” का आदर्श ले चल
राजपूताना राईफल के दृग से अरि साहस डोले।
“सर्वत्र विजय” का साहस जिसमें है
भारत के राजपूतों का खून उनमें है
“बजरंगबली की जय” जयकार से
नेस्ता नबूत करने की हिम्मत उसमें है।
“जाट बलवान जय भगवान” का जय घोष जिसका
“संगठन और बीरता” आदर्श शूत्र में विश्वास जाट का।
गुरु मंत्र “बोले निहाल सत श्री अकाल” जय घोष जो गरजते हैं
“निश्चय कर जीत अपनी करूं” वह सिख रेजिमेंट के बरसते हैं
नाम नमक निशान के लिए माँ भारती के शूर मर मिटते हैं
“डेग तेग फतेह” आदर्श संग सिख लाईट इन्फेंट्री के बन्दे होते हैं।
अनन्त पराक्रम की यह धरती
आदर्श जिसका “कर्तव्यम् अनवतमा्” है
“ज्वाला माता की जय” का चीर जो बांधे
वह डोगरा इस भूमि का बहादुर सर्वोतम है।
“पराकर्मो विजय” का दम्भ से शौर्य गाथा जो लिखता है
“कालिका माता की जय” घोष बीर कुमाऊंनी चिंघाडता है।
“यश सिद्धि” पर विश्वास रखने वाले पराक्रमी हमारी शान हैं
“भारत माता की जय” महार रेजिमेंट का बीर सर्वत्र विद्यमान हैं।
“प्रस्शत रण बीरता” आदर्श, “दुर्गा माता की जय” वे बोले
जैक राईफल के रण बीरों समुख दुश्मन का साहस डोले
“बलिदानम् बीर लक्षणम्” श्री श्रेयकर जो पूजते हैं
“भारत माँ की जय” जय घोष जो करते हैं
काफिरों को जहनुम भेज देते ततक्षण
जब जैक लाईट इन्फेंट्री के बन्दे रण उतरते हैं
आदर्श “स्नो वेरियर और स्नो टाईगर” उतुंग शिखर रणधीर
जय घोष “की की सो सो ल्हरग्यालो” बोलते लादाखी हिमबीर
जिन्न दुश्मन का तब हिल जाता है
“रईनो चार्ज” करते जब आसामी आता है
“आसाम बिक्रम” आदर्श ले जब
हुंकार आसाम रेजिमेंट का बीर भरता है
4.
इन वार क्राई युद्ध घोषों की सह
रिपु दमन कभी बिराम नहीं लेने वाला
आप सुनिश्चिंत रहो देश वासियो
बीरों का तारुण्यताप नहीं गिरने वाला
कटिबद्ध प्रण है प्राण जब तक देह में
नहीं उखड़ेंगे अडिग के कदम किसी नेह में
अग्नि निर्झरी फूटेगी जिगर के तप्त कुण्डों से
भारत का अभिषेक होता रहेगा दुश्मनों के मुंडों से।
प्रस्तुत रचना भारतीय थल सेना का मुख्य अंग जमीनी लडाई लड़ने वाले इन्फेंट्री रेजिमेंटस (पैदल सेनानगों) को समर्पित है जिनका पौरुष लडाई की आखरी विजय को सुनिश्चित करता है ।
मंगलवार, 24 अप्रैल 2018
परिणय गीत
कहा था परिणय गीत लिखने को
संग-संग जीवन संगीत रचने को
मुड़ गयी राह तेरे लोचन संकेतों से
चल दी कलम प्रीत ग्रंथ लिखने को।
देख चमन प्रेम फुहारों का विहार
दो मालियों के दो फूलों का संसार
कितने सुंदर किसलय पंखुड़ियों का
सज्जित गुलमोहर का जीवन हार
अब हो गए दो हृदय एक स्पंदन
मन कर्म वचन की एक जकड़न
जीवन सुरभित अभ्यारण्य में
नहीं कोई चाहत न कहीं भटकन
चलो प्रिये अब प्रेम उषा अर्पण कर दें
यौवन दोफरी निशा को समर्पण कर दें
जब तिमिर आ जाये भटकें नहीं हम
आओ तपिश उच्छ्वासों का तर्पण कर दें।
@ बलबीर राणा "अडिग"
शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018
बॉर्डर के इस पार उस पार
तीक्ष्ण बाज निगाहें गड़ी हैं सीमा के इस पार उस पार
खूनी पंजो के नीचे तड़फ रहा, समदृष्ट जीवन संसार
एक इन्शान ट्रिगर थामे बैठा सीमा रेखा के इस पार
ठीक वैसा इन्शान वहाँ भी बैठा, बॉर्डर के उस पार
प्रकृति रचना पर किसका हक किसका है व्यापार
किसने खींची बर्बर खूनी रेखा, कौन है वो ठेकेदार।
किसान हल चला रहा, बैल जुते हैं इधर भी उधर भी
चहकते चुल-बुल स्कूल दौड़ रहे, इधर भी उधर भी
श्रम में मग्न मजदूर, जीवन दौड़ इधर भी उधर भी
बिलग नहीं हसरतें जीवंतता की इधर भी उधर भी
कोई बताये कौन सी बात, जिससे है यह प्रतिकार
फिर क्यों हर पल मौत का खौप, बॉर्डर के आर-पार।
कर्म साधना में लीन जिजीविषा दोनों और मस्त मौन है
अचानक गोलों के सोले से, घर उजाड़ने वाला वो कौन है
नित बुझ रहा चिराग किसी घर का, चमन सूना हो रहा
एक तरफ के जनाजे पर, ईद दीवाली का जश्न मन रहा
केवट वो पार लगाने वाला, किसी घर का होगा खेवनहार
क्यों खामोश कबीर जायसी के छंद, बॉर्डर के आर-पार
चली आ रही कल्पों से, इंसानी फनो की विभत्स फुंफकार
अपने अहम के लिए लील गयी, मनुज को मनुज की हुंकार
एक विधि से सजायी विधाता ने, गढ़ा धरती का सौम्य सोपान
बस एक कृतिम रेखा से टूटते रहे, ईशु पीर प्रभु के अरमान
तस्वीर सजाएं जग माता की, पुष्पहार चढ़ा के देखें एक बार
फिर न उठेंगी गिद्ध निगाहें "अडिग", बॉर्डर के इस पार उस पार।
रचना: बलबीर राणा "अडिग"
गुरुवार, 8 मार्च 2018
अबला नहीं अब वो सबला है
अर्पण समर्पण सहनशील अडिग चट्टान है
माया ममता की करुण कोमल किसलय है
काष्ठ है वो त्याग की प्रतिमूर्ति पन्नाधाय है
निर्मल नीर से भरा प्रेम सरोवर मीराबाई है
बुलंद हौंसले धीर दृग उतुंग हिमालय रथी भी है
तीक्ष्ण बुद्धि तेज जेट बिमान की सारथी भी है
शक्ति वह जो जल-थल क्या नभ तक अजेय है
मातृ शक्ति का ताप घर से क्षितिज तक तेज है
पूर्ण परताप जीवन पर उसका, धरा है वो जननी है
बात्सल्य की सुनिन्द गोद है गृहस्त जोत संगिनी है
फिर भी स्वार्थी मनुष्य ने युगों से उसे जकड़ के रखा
किसी ने घूँघट में तो किसी ने बुर्के में पकड़ के रखा
पिसती है दिन रात अपनो को तपती रहती चूल्हे पर
घूमती रहती चौक चौबारे क्या ऑफिस के कूल्हे पर
मत भ्रम पालो अब अबला नहीं वो दृढ़ सबला है नारी
जीवन की हर क्रीड़ा स्थली की कुशल कला है नारी
बहुत हो गया अब न पहनाओ धर्म संस्कारों की बेड़ियाँ
अवनी चतुर्वेदी कल्पना सी उड़ना चाहती सभी बेटियां।
रचना:- बलबीर राणा "अडिग"
www.balbirrana.blogspot.in
रविवार, 18 फ़रवरी 2018
कुर्सी पर चूं नहीं हुई
रहा जीवन सदियों से कुर्सी की दासी
महल अजीर्ण, बाहर भूखी उबासी
जन घिसता रहा पिसता रहा
पर कुर्सी तुझ पर चूं नहीं हुई।
बुद्धि लिखती रही, बेबसी बकती रही
लाचार मरता रहा ईमानदार खपता रहा
बाहर नगाड़े फूट गए बज-बज कर
लेकिन कुर्सी तुझ पर चूं नहीं हुई।
साल बदलते रहे सार बदलता रहा
कुर्सी पर आदम से, आदमी बदलते रहे
तख्त बदलता रहा ताज बदलता रहा
लेकिन तुझ कुर्सी पर चूं नहीं हुई।
वादे होते रहे करार होती रही
कुर्सी के लिए ललकार होती रही
लपका ली गयी कुर्सी उम्मीदें देकर
लपकाते समय कसमकसाई जरूर
लेकिन चूं फिर भी नहीं हुई।
@ बलबीर राणा 'अडिग'
बुधवार, 14 फ़रवरी 2018
सावन का अंधा
शिव रात्रि के लिए हर परिवार तन मन धन से महीने दो महीने से तैयारी करते थे। मकान की साज सज्जा हो या घर में लूण तेल की व्यवस्था, परिवार के गार्जिन की प्रतिष्ठा मानो शिवरात्रि के त्योहार में सफल मेहमानबाजी पर निर्भर होती थी, क्योंकि शिव रात्रि पर्व पर पूरे बैरासकुण्ड क्षेत्र के हर परिवार में रिस्तेदारों के साथ उनके भी सगे संबधियों का जमवाड़ा होता है। नयें रिश्ते जोड़ना या यूं कहें कि इलाके में नयीं ब्वारी की खोज का पर्व ही शिवरात्रि का मेला था। लड़की या घर परिवार देखना इत्यादि सामाजिक परिवेश पर नयें रिश्तों की को-करार होती थी। तब हम बच्चों का उल्लास सायद आज की पीढ़ी को मयस्सर नहीं हो पायेगा, गारंटी से कहता हूं। छः महीने से गुच्छी और अंटी (कंची) से पैसे जमा करना, मकान पर पुताई के लिए कमेड़ा (सफेद मिट्टी) और लाल मिट्टी दूर के गांव से लाना, दरवाजों के लिए गोन्त (गोमूत्र) और चूल्हे की कीर से काला पेंट बनाना, घर आंगन की सफाई, राई पालक की क्यारी को पानी दे झक झक बनाना और मैले में क्या खरीदना और कौन रिश्तेदार आ रहा है और कितने रुपये देगा इस खुशी की संसद ख़्वाले ख़्वाले और स्कूल में चलती थी। शिवरात्रि की अगली रात को घर में सबसे बड़ा त्योहार होता अर्थात अच्छा खाना हलवा खीर इत्यादि खाने को मिलता था क्योंकि अगले दिन सभी का ब्रत होता था। शिव को फलाहार चढ़ाने तक तो हम बच्चे भी ब्रत रखते थे दाने सयाने शाम को भगवान शिव की डोली मठ से मंदिर आने के बाद ही अन्न जल ग्रहण करते थे। सुबह घर में फलाहार बनता था जिसमें तेडू स्पेशल बेराईटी के साथ पिंडालू (अर्बी), राजमा, मुंगरी और चुवे (मरसों) का बनता था। भगवान शिव को यह फलआहार बिना नमक मशाले के चढ़ता है, शिव को चढ़ने के बाद नमक मशाले से उसे लजीज बनाया जाता हैं जिसके चटकारे लोग कई दिनों तक लेते थे। शिव रात्रि के दिन सुबह से मंदिर में जलाभिषेक के लिए तांता लग जाता है मंदिर के चारों तरफ पंचदेव परिसरों में स्थानीय पंडितों की पीली धोती और लंबे टिका देखते ही बनता था, ऊपर मठ (मुख्य पुजारी निवास) से मंदिर में बिराजमान सभी देव थानों में पुजारी की आठों पहर पूजा का अपना ही महत्व होता है। परिसर में एक तरफ कीर्तन मंडली जम जाती अगले 24 घंटे के लिए। सिद्ध पीठ बैरासकुण्ड महादेव में शिवरात्रि महातम की सबसे खास बात है अंखड दिपक रखना, अखण्ड दिया निसंतान दम्पत्ति रखते हैं और लोगों का परम विश्वास आज भी है कि अखंड दिया रखने के बाद कोई भी दम्पत्ति आज तक निरास नहीं हुआ। इस प्रक्रिया में स्त्री 24 घंटे तक हाथ में जलता दिया रख तपस्या करती है बिना अन्न जल लिए यहां तक की 24 घंटे तक शरीर की जरूरी प्रक्रिया लघु या दीर्घ संका भी नहीं जाना होता है, मर्द जनानी की कुछ जरूरी मदद करता है जैसे मख्खी हटाना या नाक साफ करना कहीं पर खुजली करना इत्यादि, इस कठिन तपस्या का साहस अपने आप में दृढ़ मातृ शक्ति का द्योतक है। पट्टी मल्ला दशोली अब विकास खंड घाट में स्थित यह शिव स्थली नंदप्रयाग से 17 मील उत्तर में पंचजूनि पर्वत के तल पर लगभग 3 एकड़ समतल मैदान के बीच बना है। स्थान का भौगोलिक और मंदिर के ऐतिहासिक व पौराणिक पहलू को इस संस्मरण में उधृत नहीं कर पा रहा हूँ इस पर पूर्ण साक्ष्य के साथ बैरासकुण्ड महातम नाम से मेरी आने वाली किताब अभी अपूर्ण है शिव कृपा होगी तो एक आध साल में इसे में पाठको तक पहुंचा सकूंगा। हाँ तो मंदिर के विशाल मैदान में दो दिन तक मंदिर समिति के तत्वाधान में मैला चलता था जो आज भी सतत चलता है मेले में स्थानीय लोगों द्वारा विभिन्न प्रकार की दुकाने लगाई जाती है, जिनमें बच्चों के खिलौने, महिलाओं के शृंगार के सामान और मिठाइयां प्रमुख होती थी। रात को धर्मशालाओं में बुजुर्ग महिलाओं द्वारा जागर बाहर मैदान में युवाओं द्वारा झुमैला चांचडी का अपना ही आनंद होता था, दिन भर मैले में बच्चों का कोतुहल बना रहता था। तब के दौर में हमारे क्षेत्र के लोगों के लिए इस मेले का महत्व वार्षिक उल्लास का था जो वर्तमान में औपचारिक सा प्रतीत होता है । संचार क्रांति के चलते अब मंदिर तक पक्की सड़क हो गयी आधुनिक भौतिक सुख सुविधायें पूर्ण उपलभद्द है अब मेले का स्वरूप भव्य और आधुनिक हो गया है हर वर्ष राज्य की कोई बड़ी हस्ती मेले का उदघाटन करने पहुंच जाते हैं अब मेला तीन दिन तक चलता है रात्रि में राज्य के बड़े कलककरों का द्वारा सांस्कृतिक प्रोग्राम होता है और दिन में जिला स्तरीय खेलों का आयोजन होता है जो कि क्षेत्र की तरक्की और युवाओं के शाररिक और बौद्धिक विकास के लिए शुभ संकेत है। उम्र के 18वें हेमंत में सेना में आने के बाद आज 24 वर्ष तक मेले में न जा पाना अखरता है इए लिये मेरी स्मृति में 80 और 90 के दौर का बैरासकुण्ड मेले का उल्लास आज भी वैसा का वैसा है, कहते हैं सावन के अंधे को हमेशा हरा भरा दिखता है।
@ बलबीर राणा "अडिग"
शनिवार, 3 फ़रवरी 2018
बीस हजार की सिगरेट
हठो हठो बामण जी आ गए उन्हें काम करने दो, बेहोस पान सिंह की माँ चैता रोती हुए बोली पंण्ज्यू कल देवी का डोला रखने गया था मेरा लड़का शाम को कडकडू (बेहोश) हो गया, भद्र डांडे बयाळ (बन देवी की हवा) लग गयी मेरे पानू पर, हे !! भगवान ठीक कर दो मेरे लड़के को जो मांगेगा दे दूंगा। पंडित जी ने गरुड़ पंख, कंडाली के पत्ते में राख और एक लोटे पर पानी मंगाया और अपनी पौथी निकाल झाड़ा (तंत्र कर्मकांड) डालने लग गया, ॐ हर दत्त को आदेश, डाकनी शाकिनी छू मंतर ॐ...होम क्रीं आँचडी-बयाल छू मंतर... बीच-बीच में सौलह वर्षी पान सिंह अचानक हिचक्की लेता और शांत हो जाता सभी लोग मंत्रों के असर का इंतजार कर रहे थे, बामण के मंत्र खत्म हो गए और कहा सब झाड़ दिया है बयाल का असर कुछ देर और रहेगा घबराने की बात नहीं मैं पूछ (देव अवतारी खोज) डालकर बताता हूँ कहाँ की बयाल है। पल डांडा (उधर का पहाड़ की) या वल डांडा (इधर के पहाड़ की)। तभी गांव के मास्टर जी कंपाउंडर को ले आये, उन्होंने नब्ज देखी हाल जाना और बी पी चैक करने के बाद गलूकोज स्लाइन लगा दिया और कहा गर्मी चढ़ी है मस्तिष्क में लगता है कुछ नशा किया इस मास्ता ने, कौन थे रे साथ? साथ वाले क्या बताते सब ना नुकर कर पीछे छुप गए, मंगतु मन ही मन कह रहा था उस समय तो कमीना सिगरेट छोड़ ही नहीं रहा था, आते वक्त पूरे चार सिगरेट पियर सुल्पा (भांग) पिया अपने हाथ का सिरगाड़ वाला, लेकिन डर के मारे बताये कौन। बक्या ने भी दोखै (ऊन का बिछौना) में आसन लगा दिया, परिवार वाले और गांव के बड़े बूढे बक्या के सामने हाथ जोडे बैठ गए। ॐ थ्रू ॐ हट करते हुए पंडित जी ने गर्दन झटकते हुए चूल (चोटी) खोली और थाली से चांवल उछालते हुए कंपकंपी आवाज में कहा ऐड़ी....आँछड़ी...(बन देवियां) नहीं सिर.. सिर... गाड़ का मशाण (भूत) लगा है, इसका.. पैर...फिसला है...और शरीर... शरीर...में हिर्र...हिर्र हो गयी। तभी पीछे से मंगतु ने हाँ प्रभो सही है में स्वीकृति दे दी, वही पानसिंह के साथ डोली में आगे से लगा था, मना करता तो कंपाउंडर की दुबारा रेड पडती, पल्ला जो छुड़ाना था। शनिवार को दो बकरे के साथ मशाण पूजना तय हुआ, सिर गाड़ का मसाण खरतनाक होता है दो बकरे से कम नहीं मानता। सोबन सिंह ने पांच का सिक्का निकाला और पंडित जी को उच्चयाणा (बचन) करने को कहा। शाम तक पांच बोतल एन एस, डी एन एस दो इंजेक्शन एन्टी ड्रग के साथ चढ़ गए थे और पानसिंह ने आंखे खोल दी थी लोगों की भीड़ को एक टक देख रहा था चरस का नशा जो था। पंडित जी फिर दो बार झाड़ दे गए थे। दूसरे दिन गांव के लगभग सभी मर्द और सयाने बच्चे सिर गाड़ की धार (रिज लाईन) पहुंच गए आठ-आठ हजार के दो मस्त बकरे आ रखे थे, चैता कह गयी थी कमजोर बकरे मत लाना मेरा लड़का ठीक हो जाना चाहिए छक धिताणा (पूरी धीत देना) उस मसाण को। अगले दिन मसाण पूजा हुई सिरी-फट्टी (बकरे का सिर और एक टांग) बामण ले गया ऊपर से पांच सौ दक्षिणा, मैण-मसाले, हलवा पूरी और पूरी दस लीटर कच्ची !भाई दो बकरे भी तो पचाने हैं, नहीं तो मसाण नहीं तूसेगा मीट घर ले जाना बर्जित है। मंगतू, देबू और करणि ऊंचे ढुंगे (पत्थर) में कचमोली (भुना हुआ कच्चा मीट) चाव से चबाते गप्प मार रहे थे, अरे बेटे पान सिंह की सिगरेट बीस हजार की पड़ गयी यार, अब नहीं करना ऐसा काम।
@ बलबीर राणा 'अडिग'
उठो पापा बक्से में क्यों सोये हो
घर में बहुत भीड़ लगी थी, एक तरफ माँ बिलख रही एक तरफ दादी, दादा एक कमरे में मौन सिर झुकाए बीड़ी पर बीड़ी सुलगाये जा रहा था, बड़ी बहन राजी जो मात्र 12 साल की थी सबक़े दुख की साझीदार हो रही थी सायद उसको कुछ आभास और समझ थी, कभी माँ के गले लग फ़फ़क्ति कभी दादी के आंसू पौंछती और कभी दादा की जलती बीड़ी हाथ से दूर फेंक रही थी। छः साल का वैभव समझ नहीं पा रहा था ये क्या हो रहा है ! सब लोग क्यों रो रहे हैं। उसके दोस्त भी अपनी माँ या दादी साथ आये थे वे भी चुप, जो भी आ रहा सर पर हाथ फिराता और रुआंसा मां दादी और दादा के पास जाते और सांत्वना देते, विधि का विधान है, भगवान अनर्थ हो गया, एरां बीर गति पा गया बीर सिंह, अपने को संभालो। घर के बाहर लोगों की भीड थी जिसमें मीडिया नेता, नजदीकी रिश्तेदार सभी थे। इतने में भारत माता की जय, बीर सिंह अमर रहे, पाकिस्तान मुर्दाबाद, बीर सिंह अमर रहे के नारे लगने लग गए। शहीद बीर सिंह का पार्थिक शरीर तिरंगे ताबूत में पहुंच चुका था, सलामी देने फौज का बैंड और बीस जवान एक जनरल साहब और कुछ ऑफिसर आये थे, किसी रिश्तेदार ने एक कंधे में ताबूत दूसरे कंधे में वैभव को उठा रखा था, वह अबोध जनता के जोश के साथ हाथ उठा बीर सिंह अमर रहे के नारों को लोगों के साथ दोहरा रहा था। अंतिम दर्शन के लिए ताबूत खुला सबने बेहाली में दर्शन किये कोई वैभव को भी अंतिम दर्शन के लिए ले गए, बक्से में चिर निद्रा में पापा को देख वह मासूमियत से कह रहा था पापा उठो...उठो न ! इस बक्से में क्यों सोये हो? सुनो सब आपको अमर रहे कह रहे हैं, उठो न.... उठो.....रोवो चिल्लाओ मृत देह कहाँ आवाज देती है। उस अबोध को क्या पता था पापा मातृ भूमि के लिए हमेशा को अनंत यात्रा पर चले गए, अब कभी नहीं उठेंगे। इस दृश्य को देख पत्थर भी अपने आंशू नहीं रोक पाया रहा था।
@ बलबीर राणा 'अडिग'
मंगलवार, 2 जनवरी 2018
वर्ष नया बन आता है
कुछ दुखी क्षणों को वो दे गया
किसी की भर दी किताब उसने किसी के अध्याय अधूरे छोड़ जाता है
वर्ष नया बन आता है
उबासी को भगा जरा
पष्चिम से जिन्हे जाती देखा पूरब से वही बिपुल किरणो का झुरमुट फिर लुभाता है
वर्ष नया बन आता है।
थी रानी या होगी रानी
सजा ना सका सिंहासन पर फिर बाहु पास में बाँधने को देखो कैसे सकपकाता है
वर्ष नया बन आता है।
ना वो कहीं ना तू कहीं
संख्याओं की जमी परत से ये जीवन परमार्थ नहीं कमा पाता है
वर्ष नया बन आता है।
एक ही आदेश उसका
नेक नियति संग कर्म कर भय्या इसलिए हर वर्ष मौका बन कर आता है
वर्ष नया बन आता है।
नव वर्ष आगम अभिनंदन
आशाओं के दीप जले
जीवन उन्नति पथ बढ़े
निश्चल गंगा धार सी धवल
भावनाओं की पाती बहे
महके जीवन वाटिका
खुशियों का मृदंग बजे
आगोस में हो प्रेम बन्धन
नव वर्ष आगम अभिनंदन।
उन्नत हो खेत खलियान
बाग-बगवान खूब फले
हरित रहे धरा माँ आँचल
हर घर सुत समभाव पले
राष्ट्र हित में कर्म साध्य हो
नव सृजन कीर्तिमान गढ़े
न हो आपदों का क्रंदन
नव वर्ष आगम अभिनंदन।
न छिने किसी बाल का बचपन
वृद्धों का ससम्मान बना रहे
मान मर्यादा जन पल्लवित हो
मानवता हर हृदय गम रहे
देश प्रतिभा विश्व पटल छाये
ज्ञान विज्ञान परमचम लहराए
महकता रहे भारतवर्ष आँगन
नव वर्ष आगम अभिनंदन।
आगम = आविर्भाव
@ बलबीर राणा ‘अडि