शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

क्यों माटी की महक भाती नहीं


क्यों अब माटी की महक भाती नहीं
या भीड़ भरी गलन के बीच आती नहीं।

उस मिट्टी से निकली रवि रश्मि की आभा
क्यों अब भीनी ताप से भावविभोर करती नहीं।

सुहानी उषा की मंद-मंद बहती वयार
क्यों अब खुशनुमा लगती नहीं।

पल्लवियों बीच आँख मिचौली रवि किरणो की
क्यों अब आँखों को चौन्धयाती नहीं।

बन-घन बिरह बिलाप हिलांस की
क्यों अब जिगर को विह्वल करती नहीं।

चपल घसियारियों की खनक कानन में
क्यों अब दिल को रिझाती नहीं।

तोरण द्वार हर रोज सजे है मुड़ के देख देवसारी
उठा उतकण्ठा देहरी पग रखने की मत कर लाचारी।

ख़ुशियों की बगिया अभी भी खिली है माटी में
हर पाती में गिरी तुहिन कण मोती बनती माटी में
निसंकोच उड़ आ चढ़ती बदलियों संग मोती बनने को
बिना स्वाति नक्षत्र के मुँह खोल बैठी सीपीयां माटी में।

हिलांस = सुरीली कंठ वाली पहाड़ी पक्षी
घसियारियों = घास काटती जाती मृणालयों का दल
देवसारी = परदेसी रहने वाला

रचना :- बलबीर राणा 'अडिग'
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