यही प्रकृति निधि यही बही खाते हैं
मोह, प्रेम राग/अनुराग भरे नाते हैं
चेहरे ये आते जाते राहगीरों के नहीं
ये आनन हर उर में घर कर जाते हैं।
पतंग का दीपक प्रेम, पंछी का कीट
मछली का जल, बृद्ध का अतीत
उषा उमंग का निशा गमन करना
दिवा ज्योति का तिमिर हो जाना
फेरे हैं ये फिर फिर कर फिर आते हैं
यही प्रकृति निधि ..............
सुकुमार मधुमास का निदाघ तपना
निदाघ का मेघ बन पावस में बहना
तर पावसी धरती शरद में पल्लवित
तरुणाई शीतल हेमंत में प्रफुल्लित
फिर शिशिर में बुढ़े पत्ते झड़ जाते हैं
यही प्रकृति निधि........
जैसे आसमान में निर्भीक बादल टहलते
जैसे निर्वाध विहारलीन खग मृग विचरते
बेरोकटोक आती पुरवाई बलखाती मदमाती
नन्हे अंकुर को आने में धरती हाथ बढ़ाती
सृष्टिकर्ता की ये कृतियाँ जीवन गीत गाते हैं
यही प्रकृति निधि यही बही खाते हैं।
निदाघ - ग्रीष्म, पावस- वर्षा
रंचना :- बलबीर राणा 'अड़िग'