शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

एक आहुति श्रद्धा की



जिस राह गुजरे हों शहीद उस राह की  माटी चन्दन है,
खप गए जो देश के लिए उन माटी पुत्रो को वंदन है।

राष्ट्र रक्षा के खातिर, सीना जिनका कवच बना रहता
नाम नमक निशान को जो स्व सर्वस्व न्यौछावर करता
जान हथेली पर रख कर जो फिरते ओर-छोर सारा
जिनकी  तप तपस्या से  सुख समृद्धि में वतन हमारा
मोती बन जाता जो कर्म उस कर्म को शत शत नमन है
खप गए जो देश के लिए उन माटी पुत्रो को वंदन है।

जिनकी रगों में रुधिर देश भक्ति का अविरल बहता रहता
जय घोष जयहिंद का करता गीत हरपल वंदेमातरम गाता
जिनकी राह गिरी राज नतमस्तक हो ठहरती हो गंगा धारा
नहीं डिगता ईमान बर्फीले बबंडर में वही ईमान हो सहारा
साधना जिनकी रच गए भारत भाग्य शादहत दे गया अमन है
खप गए जो देश के लिए उन माटी पुत्रो को वंदन है।

जिनकी अडिगता से अडिग है आज भी हिमालय
जिनके श्रम साध्य से बनी है ये धरती शिवालय
 तिरंगा लहराते हुए  जिनकी हर पल याद दिलाता
अमर ज्योत लपलपाते गौरव गाथा उनकी सुनाता
धन्य हो नींव की ईंटो  जिनपर बना भारत भवन है
खप गए जो देश के लिए उन माटी पुत्रो को वंदन है।

हम नहीं लौटा सकते उनका जीवन
ना दे सकते उन जननियों की हंसी
मांग भर नहीं सकते विरांगनाओं की
ना लौटा सकते उन अबोधों की ख़ुशी
एक आहुति श्रद्धा की उनके नाम सूना जिनका चमन हैं
खप गए जो देश के लिए उन माटी पुत्रो को वंदन है।

रचना : बलबीर राणा 'अडिग'

सोमवार, 19 दिसंबर 2016

****जय जवान****

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मुद्तों से बनाता रहता
वह उस आड़ को
कि उसके पीछे से
बचा सके अस्मिता
माँ भारती की।


इन्तजार नयीं सुबह का


ये झुर्रियां और गाल का पिचकापन्न 
देख रहा हूँ जीवन की साँझ ढलती जा रही है

पथरायी आँखे होंठों का बधिरपन
सवाल अनगिनित, तुझ से कर रही है।


माला के दानो में भजता रहा गिनता रहा 
तेरे  मूक को देख अब हिम्मत जबाब दे रही है 

अब कुछ आस जगी उसकी नींद खुल आलस अब भी है 
आने वाले नव भरतवंशी के लिए आस जग रही है

उग रहा एक सुरज भारत में 
काले वालों की काली रात जा रही है

होंठों पर जिसका भारत बंदन 
बीणा के स्वर संग बंदेमातरम गा रही है

इन्तजार है उस एक नयीं सुबह का 
जिसे देख रहा हूँ मैं वह हँसते आ रही है




*****मौसम बदलने लगा*****


अचानक ये कैसा मौसम बदलने लगा
गर्मी देख शिशिर भी हाथ मलने लगा।
सौ रहे थे जो गड़िड़्यों के ऊपर रजाई औढ़
बिन चदर पसीने से कागज पिघलने लगा।
कल तक सफ़र सुहाना था, गाडी सौ से ऊपर थी
ये मुआं कहाँ से आया, सौ का भी लाला पड़ने लगा।
चीरी मच गयी ये अचानक कैसी लपटों ने घेर दिया
इस गर्मी से वातानुकूलित तहखना उबलने लगा।
इतनी जल्दी जमीन पर आजाऊँगा सोचा नहीं था
अब तो नोकर भी लाईन में साथ खड़ा होने लगा।
तेरा क्या खाया था तोदी के बच्चे, सबका हिस्सा था
काला समझ बच जायेगा, अब सबका अंत लगने लगा।
अब घोषणा हो चुकी, जनाजा तो निकलना तय ठैरा
बिना भोज के जनाजियों का आना मुश्किल लगने लगा।

चीरी मचना = बहुत दर्द होना

****माँ माटी और मिशन****


माँ, माटी और मिशन 
यही मेरा धर्म 
शिकवा नहीं
मेरा घर बिलख रहा
उसका घर खिलखिला रहा
माटी के लिए
बलिदान फितरत में थी
बलिदान हो गए
जय हिन्द गाते गाते।



बलबीर राणा 'अडिग'

****** हकदार ******

इस प्रकृति के विभव कोष का 
कौन पुरुष सुख भोगा सकता
चिर काल तक मानस मन पर
केवल प्रजा वरद पुत्र रह सकता
श्रम जिसका मनु हित रचा गया
वही देव सिंहासन हकदार हो सकता ।



शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

कालग्नि


निर्द्वेष हृदय
द्रोहाग्नि का मूल
नहीं हो सकता
ना ही
निर्द्वेष शरीर बृत्ति
लड़ने की
ये कालग्नि लपटें तो
विषैले व्यक्तियों की
सांस से निकलती हैं
जिसकी जद से
मनुष्य युगान्तर से
युद्धरत है।

@ बलबीर राणा 'अडिग'

माँ माटी और मिशन


****माँ माटी और मिशन****
माँ, माटी और मिशन
यही मेरा धर्म
शिकवा नहीं
मेरा घर बिलख रहा
उसका घर खिलखिला रहा
माटी के लिए
बलिदान फितरत में थी
बलिदान हो गए
जय हिन्द गाते गाते।

@ बलबीर राणा 'अडिग'

रविवार, 27 नवंबर 2016

अचानक मौसम बदलने लगा


अचानक ये कैसा मौसम बदलने लगा
गर्मी देख शिशिर भी हाथ मलने लगा।

सौ रहे थे जो गड़िड़्यों के ऊपर रजाई औढ़
बिन चदर  पसीने से कागज पिघलने लगा।

कल तक सफ़र सुहाना था, गाडी सौ से ऊपर थी
ये मुआं कहाँ से आया, सौ का भी लाला पड़ने लगा।

चीरी मच गयी ये अचानक कैसी लपटों ने घेर दिया
इस गर्मी से वातानुकूलित तहखना उबलने लगा।

इतनी जल्दी जमीन पर आजाऊँगा सोचा नहीं था
अब तो नोकर भी लाईन में साथ खड़ा होने लगा।

तेरा क्या खाया था तोदी के बच्चे, सबका हिस्सा था
काला समझ बच जायेगा, अब सबका अंत लगने लगा।

अब घोषणा हो चुकी, जनाजा तो निकलना तय ठैरा
बिना भोज के जनाजियों का आना मुश्किल लगने लगा।

चीरी मचना = बहुत दर्द होना

व्यंग by :- बलबीर राणा 'अडिग'

मंगलवार, 9 अगस्त 2016

हिम्मत के संग चलना होगा।

काँटों की चुभन, सहना आना होगा
फूलों की सेज, संभलना आना होगा
सुख-दुःख का सारथी हिम्मत
हिम्मत के संग चलना होगा।

अँधेरे में कदम बढ़ाना होगा
उजाले में ठहरके देखना होगा
कुछ नया जरुर दिखेगा पथ पर
उस नयें से कुछ समझना होगा
हिम्मत के संग चलना होगा।
कहीं तपती धूप होगी
कहीं ठिठुरती ठंड मिलेगी
कभी अवरोध बनेगी मूसलाधार  
निर्जन सूखे के संग निभाना होगा
हिम्मत के संग चलना होगा।
एक तरफ छूटती ढलान दिखेगी 
सामने टोपी गिराती चढ़ाई होगी
सीधे-सुगम में हौंसले टूटते देखे अकसर 
जोश-होश बंधुओं को मिलाना होगा
हिम्मत के संग चलना होगा।
कडुवा हितेषी पहचानना मुश्किल
मीठा विद्वेषी समझना मुश्किल
गुप-चुप शांत सुखी की पहचान कठिन होगी  
हँसाने वाले दु:खी का हाथ खींचना होगा
हिम्मत के संग चलना होगा।
रचना:- बलबीर राणा ‘अडिग’

गुरुवार, 4 अगस्त 2016

आवाज लगानी होगी

बर्फ जमी जो संशय की पिघलानी होगी,
एक और धारा गंगा की पश्चिम को बहानी होगी।

जिन्न बन चिपका जो बधिरपन   
सहन की दीवार हिलानी होगी ।

हर घर सड़क और चौबारे से   
मसाल जय भारत की उठानी होगी

बस में नहीं सफ़ेद धोती काले कृत्य ढोलेरे की 
ये लड़ाई हमारी है खुद लड़नी होगी।

बिखंड करते अमन के दुश्मनों को,
ये बात सरद पार जाकर बतानी होगी ।

बाज आ जाओ नापाको छोडो गीदड़ भभकियां


आज एक सुर में आवाज लगानी होगी ।
आवाज लगानी होगी।


@ बलबीर राणा ‘अडिग’

शनिवार, 25 जून 2016

जथा नाम तथो गुणों

जथा नाम तथो गुण
   नाम से भीष्म और कर्मो से भी भीष्म, हमेशा मार्गदर्शक और सारथी बने रहते हैं लेकिन मुकुट की कभी अभिलाषा नहीं रही, जी बात कर रहा हूँ गढ़ साहित्य के प्रखर लेखक, विश्लेषक व् समालोचक श्री भीष्म कुकरेती जी की, श्रद्धा से शीष खुद व् खुद झुकता है, जब कलयुग में बिचरते मनीषियों के साक्षात् दर्शन होते हैं।
      जून 2016 में निजी काम से मुम्बई में होने के कारण मन में उत्कण्ठा थी कि यहाँ आके जरूर गुरूजी भीष्म कुकरेती जी के दर्शन करूँ और समय ने इजाजत दे दी, गुरूजी से उनके आवास का गंतव्य पूछ कर पहुँच गया, 17 गढ़वाल दर्शन जोगेश्वरी मुम्बई, दरवाजे की घंटी बजाने के एक सेकण्ड में अंदर से आवाज आई आओ राणा जी, सामने साधारण सफ़ेद दाढ़ी वाले व्यक्ति ने दरवाजा खोला, कुछ संशय हुआ, चरण वंदन किये, गुरूजी आप हाँ राणा जी, वास्तव में 6 वर्ष पहले से शोसियाल मिडिया से गुरूजी का आश्रीवाद मिलता रहा लेकिन उनकी तस्वीर कभी देखी नहीं थी, इतना तो पता था कि गुरूजी जीवन दर्शन से छपोडे (मजे) व्यक्ति हैं, उनके सामने कुछ नर्वस कुछ खुसी और एक आत्मिक सुख की अनुभूति हो रही थी, वो इस लिए नहीं कि मुम्बई जैसे महानगर में वे रहते हैं इस लिए कि माया नगरी में जिजीविषा की पूर्ति के साथ कैसे एक व्यक्ति अपनी जड़ों से इतनी गहराई से जुड़ा है, क्योकि इतिहास गवाह है जब कोई व्यक्ति पलायन करता है तो इच्छित रूप से उस संस्कृति समाज का हिस्सा बनता है जहाँ वह आया है फिर जिजीविषा वापस मुड़ने का मौका नहीं देती, लेकिन बिरले लोग ही होते हैं जो दुनियां की सारी वैचारिकता के बाद भी खुद से खुद बने रहते हैं,
मित्रो वैसे हमारे उत्तराखण्डी साहित्य जानकारों के लिए श्री कुकरेती जी नए नाम नहीं हैं फिर भी जो लोग साहित्य से कम रु व् रु हैं उन्हें बता दूँ कि श्रद्धेय कुकरेती जी अपने आप में उत्तराखंड के साहित्य इनसाइक्लोपीडिया हैं, आज उनके पास उनकी साधना का आपार भण्डार है लेकिन दुनियां की दृष्टि में कम ही है क्योंकि गुरूजी ने उनको कम ही पब्लिश किया है, गुरूजी कहते हैं राणा जी क्या जरुरत है सब रखा है जिसको अभिलाषा होगी ढूंढ लेगा, आज इंटरनेट के जमाने उत्तराखंडी साहित्य के प्रचार प्रसार और व्यख्या में श्री गुरूजी के आगे कोई नहीं है उनके द्वारा 19वीं शताब्दी के उतराध से लेकर आज तक सभी उत्तराखंडी साहित्यकारों की समीक्षा की गयी है,  और हम जैसे नव साहित्यकारों के लिए हमेशा बालजीवन घुटी बने हैं, गुरूजी ने ही पहली बार तमाम नव गढ़ कवियों  के सृजन को अंग्वाल् कविता संग्रह में समेटा।
      कभी कभी अचरज होता है कि यह व्यक्ति कब लिखता है इतना साथ ही उस विश्लेषक मष्तिष्क की परख पर,  हाँ एक बात जरूर है कहते हैं गॉड गिप्ट तो गुरूजी भी इसे भगवान् की देन मानते हैं कि राणा जी उसी परम ब्रह्म का आशीष है जो इतनी शक्ति दे रहा हैं। गुरूजी की संप्रीति सयुंक्त गढ़वाली कविता संग्रह अंग्वाल्, समसामयकी पर तमाम व्यंग, गढ़वाली  भाषा का हिंदी इंग्लिश कोष, स्वरचित नाटक, इंग्लिश नाटकों का गढ़वाली रूपांतरण, तमाम गढ़ कवियों  और साहित्यकारों की कृतियों की इंग्लिश हिंदी समीक्षा, व् इंटरनेट के बृहद संसार में उत्तराखंडी लोक साहित्य संस्कृति का प्रसार, श्रध्येय कुकरेती जी का अथक प्रयास ही है जो आज देश विदेश में रह रहे सभी उत्तराखंडी इंटरनेट के माध्यम से अपने इतिहास और संस्कृति से रु व् रु हो रहे हैं।
     गुरूजी के ना चाहते हुए भी गुरूजी का अप्रितम फोटो खींच लिया तीन बिसी (60)  से ऊपर चले गए, घर में सुखी परिवार का साथ है, और है गुरूजी का अपनी माटी से जुड़ाव व् संवेदनाये। जुग जुग जियो गुरूजी।
    अंत में गुरूजी के विषय में इतना ही कहना चाहूँगा कि गुरूजी आप नीव की ईंट है जो कभी दिखती नहीं है, बसरते उस नीव की ईंट में खड़े भवन पर लगी कंगूरे की ईंटें चमकती रहती हैं।
@  बलबीर राणा 'अडिग'
अडिग शब्दों के पहरे से
www.balbirrana.blogspot.in

गुरुवार, 26 मई 2016

चकबंदी इच्छा परन्तु इरादा नहीं


         

इच्छा और इरादे में फर्क समझे बिना उत्तराखंड में चकबंदी का होना मुश्किल हैं चाहे सरकार हो या जनता!, इच्छा और इरादे में फर्क इतना है कि इच्छा रखने के लिए हिलना डुलना नहीं पड़ता अर्थात कर्म की जरुरत नहीं होती पड़े पड़े इच्छा रख लो, परंतु इरादा क्रियान्वयन मांगता है और क्रियान्वयन के लिए हिलना डुलना ही नहीं चौदह कर्म पंद्रह ध्यान करने होते हैं तभी किसी रस्ते की पहली सीडी के लिए कदम बढाया जा सकता। यहाँ पर मेरा चौदह कर्म पंद्रह ध्यान से तात्पर्य स्व् जीवन या समाज के अन्य कार्यों को इंगित करते हुए मुख्य बिंदु उत्तराखंड में चकबंदी से है क्योंकि उत्तराखंड में चकबंदी कराना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं है, चकबंदी के लिए चौदह कर्म और पंद्रह ध्यान जरुरी है अर्थात सीधे मतलब की बात की जाय तो सरकार को उन जटिल मुद्दों पर शोधपरक कार्य योजना बनानी पड़ेगी और क्रियान्वयन करना होगा जो आज तक चकबंदी की राह में पहाड़ बने खड़े है, वो जटिल मुद्दे क्या हैं जिनकी वजह से कोई राजनेता और पार्टी  चकबंदी की बात नहीं करती और सरकारें  पहल, तो ये कुछ जटिल मुद्दे हैं जो पिछले दो वर्ष से इस मुहीम के लिए गरीब क्रांति अभियान के साथ जुड़ने पर मेरे सज्ञान में आये।
1. पृथक उत्तराखंड राज्य परन्तु रेवन्यू एक्ट उत्तर प्रदेश वाला जो चकबंदी हेतु पहाड़ी मानकों के लिए पेंच वाला है।
2. नयें भूमि बंदोवस्त कानून का न होना।
3. जनता की मंशा और आधे से अधिक भू-स्वामियों का घर से बहार होना (प्रवासी पेंच)।
4. चकबंदी के बाद कोई ठोस पायलट प्लान नहीं जिससे युवा वर्ग चकबंदी से अपने सुनहरे भविष्य के सपने देख सके।
5. 16000 गाँवों के चप्पे चप्पे का सर्वेक्षण करना और सही भूमि मालिक और भूमि का मूल्याकन।
6. श्री गणेश सिंह रावत 'गरीब', यधुबीर सिंह रावत, विद्यादत्त शर्मा आदि भूमि पुत्रों द्वारा तैयार किये चकबंदी मोडल पर विशेषज्ञों की राय और जनता तक पहुँच, ताकि खेती से बिमुख होते लोगों के मन में इक्कठी जोत के फायदे का कोंसेप्ट क्लियर हो सके 
7. चकबंदी से समृद्ध खेती और समृद्ध खेती से स्वाबलंबी कैसे बना जाता इसके लिए जमीनी स्तर पर सर्व शिक्षा अभियान की तरह जनजागरण और प्रशिक्षण ताकि राजनीती पार्टियों और नेताओं के दुष्प्रचार से जनता बिचलित न हो सके
8. मुख्य और अहम् बात इच्छा का होना इरादा नहीं (Less will power) चाहे सरकार हो या जनता।
     उपरोक्त बिंदुओं के अलावा अन्य छुट-पुट मुद्दे भी हैं जिन पर  शोधपरक कार्य योजना का होना नितांत आवश्यक है नहीं तो दाणिम की दाणी ऊपर ही ऊपर बन्दर खा जायेंगे और लाटी का लड़का ऊँ ऊँ करता देखता रह जायेगा।
     वर्तमान मुख्यमंत्री हरीश रावत जी इस रग से बखूबी वाखिप् है जमीनी नेता जो ठहरे, और सुनने मै आ रहा है कुछ उड़ते-उड़ते प्रयास कर भी रहे हैं लेकिन मेरा विश्लेषण यह निकलता है कि कुर्सियों के भोगी उत्तराखंड के शासकों से फिलहाल उम्मीद करना व्यर्थ है चकबंदी जैसे महत्वपूर्ण और जटिल प्रक्रिया के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ ठानने (इरादा) की लाठी को उठाना अत्यंय जरुरी है साथ ही इस मानवोदय कार्य हेतु क्षेत्रीय विद्धवत जानकार अधिकारियों की क्रियाशीलता , संकल्पी और क्रियान्वयन की हद तक जाने वाले विभाग व् कर्मचारियों का बल और जागरूक, सहयोगी जनता का होना जरुरी है।
     चकबंदी के लिए 42 से अधिक वर्षों से संघर्षरत श्री गणेश गरीब जी के सानिध्य में वर्तमान गरीब क्रांति टीम पिछले कई वर्षों से जन जागरण और चकबंदी के लिए सरकार से संघर्ष कर रही है लेकिन आज तक की सरकारों के कान में जूं तो रेंगे लेकिन सरकारों ने पितोड़ने के लिए हाथ नहीं रगडा, जिसकी परिणीति सरकारों ने फंड व्यय करने के लिए छुट -पुट आयोगों का गठन तो किया लेकिन जमीनी प्रारूप इन पंद्रह सालों में सिफर रहा, कारण अस्थिर मुख्यमंत्रियों की डगमगाती कुर्सियां। इस हमेशा हिलने वाले अस्थिर कुर्सियों से  महान निर्णय की आशा करना फिलहाल वेवकूफी है,  प्रदेश में पांच साल के कार्यकाल में दो दो मुख्यमंत्री बदलने का चलन किसी भी केंद्रीय सरकार और राष्ट्रिय पार्टियों का रुख राज्य हित के लिए क निष्क्रीय रहा।  सरकारें  बहुमत में आती है एक साल तक तो वो नयी ब्वारी के झलके-मलके करती है दूसरे साल कुछ पुराने गड्ढे भरने और अपनी कुछ लोक लुभावनी योजना को आजमाती है तीसरे साल में मुख्या की बदली ! और नयां राजा को मुकुट पहनाया जाता है और राजा साहब नयीं-नयीं गोड़ी (गाय) के नो पूळे (लघु बंडल) घास को जनता में डालने में लग जाता, तब तक कार्यकाल ख़तम और फिर नयीं विधान सभा के चुनाव हो हल्ला नए वादे इरादे निरंतर न रुकने वाला चक्र । लगभग अभी तक की हर सरकारों को (बीजेपी हो या कांग्रेस) जनता ने अपना स्पष्ट बहुमत दिया, लेकिन ये कुपुत्र अपनी झोली भरने में मगसूल रहे आज प्रदेश माफियों का अड्डा बन गया व भ्रष्टाचारी की नयीं नयीं इबादाओं से प्रदेश का इतिहास पटने लगा है, ऊपर से मुंडे हुए सिर में लगातार ओलों का गिरना याने नित्य वर्ष प्राकृतिक आपदांयें रही सही कसर निकाल दे रही है, इन बिडंबनाओं को देखते हुए लोगों का पहाड़ के प्रति बिमुख होना लाजमी है कोई तो आस हो यहाँ श्रम शक्ति के इस्तेमाल के लिए इस बात को हर उत्तराखंडी को आज समझना जरुरी है
  सहाब (नेता जी) को क्या फर्क पड़ता, उनकी तरफ से पूरी जमीन बंजर पड़े गांव खाली हो जाय इनको क्या लेना है कि बिखरी जोत इकठ्ठा हो या न हो और लोग अपने-अपने चकों में अपनी मेहनत और नयीं तकनिकी से खेती करे स्वावलंबी बने, इनको तो केवल बोट रोकने के लिए गरीब के ऊपर सरकार की तरफ से फ्री का इक्का फेंकना है ताकि उसका पेट में निवाला पहुंचे रहे मुंह खाने में व्यस्त रहे उसकी कर्मशीलता शीला सिमार डूबी रहे, उनको ये भी पता है कैसे एक पव्वे में हमारे यहाँ बोट मिल जाता है,  नेता जी  को पांच साल के कार्यकाल में कम से कम  पांच पीढ़ियों को आलिशान जो रखना है उसके बाद की पीडी की  चिंता राम ने भी नहीं की थीजी के बच्चे विदेश पढ़ते हैं, रानी देश के अनेक हिस्सों में बने महलों की देख रेख की यात्राओं में निमग्न है,  यार रिश्तेदार, चापलूसों की फ़ौज नोकरी दिलाना मनमाफिक ट्रांसफर करना, अय्युचित पद्दोनति दिलाने में फ़ोकट की मोटी मलाई चाटती है, अपने चारों ओर अपनों के रावण राज्य पर आँखें बंद ही रहती है खुलती नहीं, माया बला ही ऐसी है।
     आज कर्मशील, मेहनती इमानदार पहाडियों की श्रमशक्ति शिथिल होने और तीसरी टांग के सहारे जीवन की दौड़ जितने की जो ललक पैदा हुयी है इसका एक मात्र कारण सिर्फ और सिर्फ दूषित राजनीती और सरकार द्वारा लुभावने फ्री देने वाले प्रलोभन हैं, अगर देना ही है तो लघु उद्योग दो औजार दो काम दो ताकि खुद के श्रम को देख आगामी पीडी भी श्रम पर विश्वास करे और पैंसों के लिए सोर्टकट न खोजे 
Ø  आज प्रदेश में हजारों स्वयंसेवी संस्थाएं क्यों नहीं कोई एक भी चकबंदी की डोर को सहारा देने के लिए हाथ बढ़ाती है क्योंकि उन्हें पता है यहाँ मलायी कम खट्टी छाँस ज्यादा है।
Ø  क्यों नहीं कुकुरमुत्तों की तरह उपजी राजनेतिक क्षेत्रीय पार्टियां इस मिशन को अपना चुनावी एजेंडा नहीं बनाना चाहती है इन अधकचरों  को भी पता है मनिआर्डर अर्थव्यवस्था वाले राज्य में इंटरनेशनल ट्रांजिक्शन वाले डाकखाने खोलना आसान नहीं।
Ø  क्यों नहीं पहाड़ की आवाज बनने का दावा करने वाली प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मिडिया परमानेंट अपना एक स्तम्भ चकबंदी के महत्व और भविष्य पर ब्रॉड कास्ट नहीं करती है, उनकी टी आर पी घट जायेगी  और  रोजी रोटी के लाले पड़ सकते हैं स्थापित सरकार की स्वामी भक्ति जरुरी है
Ø  क्यों नहीं संस्कृति संवर्धन की बड़ी-बड़ी बात करने वाले साहित्यकार गीतकार, रंगकर्मी अपने-अपने माध्यमो से लोगों तक चकबंदी जागरूकता के लिए कदम नहीं बढ़ाते क्योकि उनको करनी और कथनी अंतर का पता है।
Ø  क्यों नहीं पहाड़ और प्रदेश से बहार (इनमें प्रदेश के तराई में पलायन करने वाले शामिल) रहने वाले प्रवासी जो अपने धन बल पर हाईटेक आयोजनों में पहाड़ की समृद्धि के मन्त्र चकबंदी पर आयोजन कराने से कतराते हैं क्योंकि भैजियों को पता है किसी ने मुझे कह दिया की चल तू करके दिखा तो आफत आ जायेगी। न जाने और कितने क्यों इस अडिग की अडिगता को माँ भारती की सीमा से हिलने को विवश करती, लेकिन मनसा वाचा कर्मणा का शूत्र फिर तथष्ट कर देता है।
         मैं  अपने उन निम्न आय वाले नव युवा भाईयों से अपील करता हूँ कि शहरों में प्राइवेट कंपनियों की चाकरी में 18 घंटा काम करने से आप दो जून की रोटी, एक आध महंगी जीन्स, स्मार्ट फोन का खर्चा तो कमा सकते हो लेकिन स्वालंबी कभी नहीं बन सकते क्योंकि आपके पास समय ही नहीं है, अपने समय का आंकलन खुद कर लेना। हिम्मत और धैर्य रखो “इच्छा मत करो इरादा रखो और चकबंदी की राह पर खुद और पहाड़ के हितेषी बनो।
~~~जय भारत जय उत्तराखंड~~~
स्वतंत्र विचार
@ बलबीर राणा 'अडिग'
टीम गरीब क्रांति अभियान
चकबंदी समर्थक
मटई चमोली

9871469312

शुक्रवार, 20 मई 2016

अडिग सन्देश


किसी को सत्ता चाहिए किसी को मद चाहिए
मेरी हद इतनी है मुझे मेरा वतन सुरक्षित चाहिए।

तथष्ट हूँ क्षितिज पार के बैरी की चिंता  करो
विनती है अपने ही घर में आततायी पैदा  करो।

एक ही कोख से जन्मे थे ये मैं क्षण में भूल जाऊंगा
देश द्रोही उस भाई का कंठ पल भर में घोंट जाऊंगा।

जननी के बिलाप को सहस्र सहन कर जाऊंगा
लेकिन माँ भारती के क्रंदन को नहीं सह पाउँगा।
 नहीं सह पाउँगा

रचना :- बलबीर राणा 'अडिग'

बुधवार, 23 मार्च 2016

कबिता में होली


बाशंती बयार चली चलो बहार निकलें
फागुन में बहार आयी चलो होली खेलें।

आओ उग्र तमस तम का दहन कर आएं
फिर सिरे से प्रेम की एक अलख जगाएं।

रंग दें अबीर गुलाल से एक दूजे का तन मन सारा
न रहे पहचान मेरी न रहे तेरा कोई कारा।

आओ ढ़ोल मृदंग की थाप पर ताल मिलाएं
एक गीत एक सुर बाँध गिले शिकवे भुलाएँ।

सत्य का सन्देश होली
प्रेम की बेल होली।

ख़ुशी का पैगाम होली
सुख का अंजाम होली।

एकता की डोर होली
उमंग भरी भोर होली।

सदैव होलीमय संसार रहे
सबके जीवन बहार रहे।

रचना:- बलबीर राणा अडिग

शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

क्यों माटी की महक भाती नहीं


क्यों अब माटी की महक भाती नहीं
या भीड़ भरी गलन के बीच आती नहीं।

उस मिट्टी से निकली रवि रश्मि की आभा
क्यों अब भीनी ताप से भावविभोर करती नहीं।

सुहानी उषा की मंद-मंद बहती वयार
क्यों अब खुशनुमा लगती नहीं।

पल्लवियों बीच आँख मिचौली रवि किरणो की
क्यों अब आँखों को चौन्धयाती नहीं।

बन-घन बिरह बिलाप हिलांस की
क्यों अब जिगर को विह्वल करती नहीं।

चपल घसियारियों की खनक कानन में
क्यों अब दिल को रिझाती नहीं।

तोरण द्वार हर रोज सजे है मुड़ के देख देवसारी
उठा उतकण्ठा देहरी पग रखने की मत कर लाचारी।

ख़ुशियों की बगिया अभी भी खिली है माटी में
हर पाती में गिरी तुहिन कण मोती बनती माटी में
निसंकोच उड़ आ चढ़ती बदलियों संग मोती बनने को
बिना स्वाति नक्षत्र के मुँह खोल बैठी सीपीयां माटी में।

हिलांस = सुरीली कंठ वाली पहाड़ी पक्षी
घसियारियों = घास काटती जाती मृणालयों का दल
देवसारी = परदेसी रहने वाला

रचना :- बलबीर राणा 'अडिग'
© सर्वाधिकार सुरक्षित

रविवार, 31 जनवरी 2016

लिख गीत नव चेतना का


गुनगुना उठे मनुज मन
स्नेह विभोर रोमांचित तन रहे
लिख गीत नव चेतना का
मनुजता हर हृदयगम रहे
सब कंठ गाये गीत वतन का
हर हाथ तीन रंग का निशान रहे
एक ही हँसी का रस निकले
एक ही दर्द का लहू बहे
एक ही भारत वंदन बंद हो
ऐसा मानवीय वितान रहे
कर्म सत्य सृजन संचय करे
हरीशचंद्र की धरती का अभिमान रहे
एक बगिया के फूलों की
रंग बिलग एक सुगंध
एक ही नीर से सिंचित सब
सबको ये भान रहे
भारत भाग्य विधाता हो हर सुत
सबका स्वाभिमान जगे
लिख गीत नव चेतना का
मनुजता हर हृदयगम रहे

रचना : बलबीर राणा 'अडिग'
© सर्वाधिकार सुरक्षित 



रविवार, 17 जनवरी 2016

सैनिक की ख्वायिस


बैरी चाहे कितना भी बलशाली हो
तोपें चाहे उसकी कितनी भी हावी हो
बिजली की कड़क हो या बौछार हो
रेगिस्तान की आग बरसाती दुपहरी के अंगार हो
भारत पुत्र हूँ हर हाल से निपट के आऊंगा
तिरँगा लहरा के आऊंगा या तिरंगे में लिपट के आऊँगा।

कितनी भी शीत भरी बर्फीली आंधी चले
बादल गरजे या सैलाब बहे
ये अडिग हिमालय पुत्र हिलेगा नहीं
हेड सूट करेगा, लक्ष्य से चुकेगा नहीं
कसम जो को खायी थी गीता पर हाथ रख कर
उस कसम को हर हाल में निभाता जाऊंगा
तिरंगा .............

माँ कसम तेरी
दुश्मन के पग तेरी धरती पर  नहीं रखने दूंगा
कोख सूनी हो सकती पर बदनाम न होने दूंगा
अपने भाई के लिए निशान मातृभक्ति का छोड़ जाऊंगा
जो आँख भारत विशाला पर उठेगी उसे फोड़ के आऊंगा
तिरंगा लहरा के आऊंगा या तिरंगा लिपट के आऊंगा।

पता है मुझे भेदिये विभीषणों की कमी नहीं
चिता की आग में रोटी सेकने वालों की कमी नहीं
लेकिन मन मेरा भरमेगा नहीं है
कदम लड़खड़ा सकते पर रुकेंगे नहीं
क्योंकि राजगुरु विस्मिल का  एक सुरी जय हिन्द मेरे कानो गूंजता है
नाम नमक निशान पर मिटना मेरा सैनिक धर्म मुझे सिखाता है।
आखरी सांस तक माटी के लिए सर्वस्व न्यौछावर करना नहीं छोड़ूंगा
तिरंगा लहरा के आऊँगा या तिरंगे पर लिपट के आऊँगा।
रचना @ बलबीर राणा 'अडिग'
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प्रस्तुत रचना सच्चे सैनिक भावना पर मन के उदगार है काश भगवान् इस कर्तव्य पथ पर हमेशा चलने का अवसर दे