गुरुवार, 27 मई 2021

दादाजी का चश्मा

 

देखा है दादाजी के चश्में ने

मालिक की आँखों को आहिस्ता विदा लेते।

 

देखा है दादाजी के चश्में ने

रुदन करते बृक्षों और वनस्पतियों को

जो अंतिम प्राणवायु तक ना दे सके

जिनके लिए जीवन खपाया था मालिक ने।

 

देखा है दादाजी के चश्में ने

उनकी बेबसी

जो अपना आखिर सत पूरा ना कर सके

गंगा जल की बूंद

जिस गंगा की अविरल धारा के लिए

बिना अन्न जल के ना जाने कितने

दिनों तक देह तपायी थी मालिक ने

और, 

असहाय तुलसी पात को

जिसे मालिक सींचता रहा पूजता रहा

आजीवन देहरी की मुंडेर पर

बसुधैव प्राणवायु के लिए ।

 

देखा है दादाजी के चश्में ने

बेनामी रिश्तों और मनुष्यता को

अपनी जान को

मुँह ढकते छुपते

दूसरों के लिए छुपन छुपाई खेलते ।

 

और वो सब कुछ अप्रत्याशित देखा

दादाजी के चश्में ने

जिन्हे देखने के लिए

ना ताल* का फोकस था

ना ही समर्थ अपवर्तन गुणांक।

 

घरों में कैद जिंदगियां

विरान पथ

अदनी सी गोलियों और इंजेक्शनों की

एफिल टावर सी ऊँचाई 

निलाम होता सुषेणी ईमान

नारियल पानी की जेट उड़ान

नींबू की बुलेट रफ्तार

रोग प्रतिरोधक के लिए छद्दम युद्ध

और कराहती व्यवस्थायें

जिनके लिए मालिक ने

हजारों पन्नों को व्यवस्थित किया था

धरा पर सुगम जीवन के लिए।

 

पर ! आगे कुछ नहीं देख पायेगा

दादाजी का यह चश्मा

क्योंकि !

मानव उषाकाल से निशा तक का यह नम्बर

अब किसी अक्षि पर नहीं आने वाला।

 

* ताल = लेन्स

पर्यावरणविद श्रधेय स्व. सुन्दरलाल बहुगुणा जी को श्राद्धान्जलि स्वरुप अर्पित।

 

@ बलबीर सिंह राणा 'अडिग'

25 May 2021


सोमवार, 17 मई 2021

माँ पागल नहीं है

 

    हेलो सुमी क्या हाल है ? यार कब से फोन कर रहा हूँ फोन क्यों नहीं उठा रही हो ? और कल से वर्टसैप भी नहीं देखा तूने। घर में सब ठीक हैं ना ? अच्छा पापा कैसे है आज ? ध्यान से, तू मयंक और निकिता सावधानी रखना। घर में भी डबल मास्क यूज करो। मम्मी पापा के कमरे की तरफ मत जाना। दूर से ही खाना दवाई दो। जो दवाई मैने लिखकर भेजी थी वे घर पर मंगा ले ? यार पापा का ध्यान रखियो।  80 पर पहुँचने वाले हैं उपर से हार्ट पेशेन्ट अलग से हैं । तू ठीक ही तो कहती है कि पापा चले गए तो हमारी तो बेन्ड बज जायेगी। मेरी पच्चीस हजार की प्राईवेट नोकरी, बच्चों की कॉलेज की हाई-फाई फीस। उपर से आजकल इन शहरों के खर्चे। हेलो सुमी, सुमन तू सुन तो रही है ना ? हाँ ना का जबाब क्यों नहीं दे रही है ? दूसरी तरफ से बिना हेलो के जबाबा के मैं एक सांस में बोल पड़ा था।

            हों बुबा सुणणु छौं, सुणणु। कुछ नि बाबा तेरा बाप म्वोरी बि जायेगा तो मि तो हूँ पिन्शन की हकदार। उस साठ हजार से मिनै थ्वोड़ी यी यकुले अपणी गेर फाड़णी है। मोबाइल माँ ने उठाया था।

माँ की आवाज सुन मैं यकायक सकते में। 

अरे माँ तू !

यार माँ आज तु क्या कुड़बाग बोल रही है ? तेरा बड़बड़ाहट भी ना ?

कुड़बाग क्या ? म्येरी किलै पूछना तूने। हमेस बाप की यी लगी रैती है बाप लेण भैंस जो है तुमारे लिये। अरे त्येरे बाप के म्वरणें के बाद कुछ दिन तक मिन भी तो लेण रैणा है। अर ये करुणा फरुणा ने दोनों को चटका दिया तो फिर घाम तापते रैणा। जबाबा में माँ ने खरी खरी सुना दी थी मुझे ।

अरे माँ ऐसी बात नहीं है तू हमेशा उल्टा ही सोचती है। अच्छा सुमन कहाँ है ?

            ययीं है बाबा। ब्याळी से पड़ी है। तेरे पिता अर ब्वारी को नास्ता खवा के दवैई दे दी है सब ठीक हैं। क्या बोल्ते हैं आक्सीमीटर अर गिच में डालने वाला ठिक दिखा रा बल। वा निकिता अर म्यंक स्वोये हैं अब्बी तक। दोफर हो गयी। ज्वान जमान हो गए पर एक रुप्या का लकार नयी। थ्वोड़ी मदत कर देते म्येरे साथ तो क्या जाता। घोर मु बिमरि से ल्वोथ्यान लगी है। मोटर से मथि टेंकी में पानी भर दिया है। अब्बी झाड़ू अर भानी कूनी साफ करना बचा है। त्येरे पिता के कपड़े बि धोणा है। रात भर नि स्येणी कर रखी बुढ़या ने। पर तू चिन्ता ना कैर बाबा मि सब समाळ लूँगी। म्येरे रैते किसी को कूऽछ नि होगा। सोला बरस की ब्यवायी गई थी तब से क्या क्या नि समाळा आज तक घौर बोण से ये सैर तक।

            माँ के जबाब से मैं और सकते में आ गया। आज माँ का कौन सा बांध फूट पड़ा था। इस बांध के फूटने  की मुझे अपेक्षा नहीं थी। क्योंकि इस गहराई का मुझे आजतक कोई अन्दाजा नहीं था। होने खाने और काम के बारे में माँ का बड़बड़ाहट तो लगा रहता था पर आज तो ?

जबाबा नहीं सूझने पर  मैंने ठीक है माँ थोड़ी देर बाद कॉल  करता हूँ अभी ऑफिस का टाईम हो रहा है कह के कॉल  काट दी। 

कॉल  काटते ही मैं धम से सोफे पर सिर पकड़ के बैठ गया।

माँ के वचन मष्तिश्क में घूमने लग गए। भूंचाल सा आ गया।

            मि तो हूँ पिन्शन की हकदार। साठ हजार से मिनै थ्वोड़ी यी यकुले अपणी गेर फाड़णी है। म्येरी किलै पूछना है तूने। हमेस बाप की यी लगी रैती है बाप लेण भैंस जो है तुमारे लिये। त्येरे बाप के म्वरणे के बाद कुछ दिन तक मिन भी तो लेण रैणा है।  अर ये करुणा फरुणा ने दोनो को चटका दिया तो ? त्येरे पिता अर ब्वारी को नास्ता खवा के दवैई दे दी है। ब्वारी को नास्ता खवा के दवै दे दी। ब्वारी को..........

ओ हो सुमन भी चपेटे में।  

बाप लेण भैंस जो है तुमारे लिए। बाप लेण ........। हआंऽ ?

क्या यार माँ भी पागल है। पता नहीं क्या क्या बड़बड़ाती रहती है।

माँ पागल है। माँ पागल है ?

नहींऽऽ........... माँ पागल नही है।

मैं बाल नोचने लगा। माँ ने कौन सा बांध फोड़ा आज ? कब से भरा था ? क्यों भरा था ? क्या यही सच है ? हाँ यही सच है। अंर्तआत्मा चिल्लाने लगी। हाँ यही सच है।

            सब सच है। माँ ने एक भी शब्द क्या गलत बोला। सब सत्य। मैंने और सुमन नें कब माँ की चिन्ता की। शादी के इतने सालों में एक भी दिन एक शब्द उसको प्यार से नहीं पुकारा। और वो मेरा कृती, मेरा कृती। ब्वारी, ब्वारी करते पीछे घूमती रहती है। हर वक्त हमारे खाने पीने की पूछती है। हर काम में हाथ बांटती है। काम के लिए बड़बड़ाती रहती है और हम माँ को पागल कहते हैं। बुढापे की सनक कहते हैं तिरस्कृत करते हैं। पापा की गाली के बाद भी उनकी हाथों हाथ सेवा करते है। इसलिए बांध भरा था। माँ का बांध गलत नहीं भरा था।

            हम से बड़ा खुदगर्ज कौन है। पापा की पेन्शन नहीं होती तो क्या पापा की भी ऐसे ही उपेक्षा करते ?

हाँ, हाँ।  

नहीं, नहीं।

पापा की पेन्शन ? क्या पापा दुधारु गाय है हमारे लिए ?

हाँ हाँ । नहीं नहीं।

और मेरे मन का भूंचाल सात रिएक्टर से भी उपर। थरथराने लगा उपर से नीचे। अन्तर्द्वन्द्व।

            इसी अन्तर्द्वन्द्व के बीच दो बार मोबाइल का रिंग भी बजा। सुमन का कॉल था। नहीं उठाया। क्या पूछता उसे। यही ना कि तू कैसे चपेटे में आ गई। माँ फलाना डिमकाना बोल रही थी। और वो जवाब देती कि बुढ़िया पागल है सनका गई।

            फिर माँ की आवाज कानों में गूँजने लगी। तू चिन्ता ना कैर बाबा मि सब समाळ लूँगी। म्येरे रैते किसी को कूऽछ नि होगा। म्येरे रैते किसी को ........। और मैं एक लम्बी सांस लेते हुए सोफे पर निडाल हो फैल गया। निश्चिंत। अन्तर्द्वन्द्व खत्म। माँ सब संभाल लेगी। माँ पागल नही है।

 

@ बलबीर सिंह राणा अडिग

 

कुछ गढ़वाली शब्दों का अर्थ :-

 

सुणणु छौं - सुन रहा हूँ, मि - मैं, यकुले - अकेले, गेर - पेट, कुड़बाग – कुवचन/ र्दुवचन, लेण - दुधार, ब्याळी – कल, ब्वारी - बहु, ज्वान जमान - बड़े जवान, लकार - काम का लोभ लालच। ल्वोथ्यान - लथपथ,  भानी कूनी - भांडे वर्तन, स्येणी - सोनी, गिच - मुँह , मथि - ऊपर


 

मंगलवार, 11 मई 2021

कहानी संग्रह “भयमुक्त बुग्याल तथा अन्य कहानियां” एक नजर

 


“भयमुक्त बुग्याल तथा अन्य कहानियाँ” कहानी संग्रह के संर्धव में अपनी बात रखूँ उससे पहले द्वी बात बुग्याल के परिपेक्ष में कहना चाहूँगा।  बुग्याल नाम सुन आपके मानस पटल पर भी जीवन वैभव का एक चित्र उभर आता होगा जैसे कि मेरे। दूर नजर के आखरी छोर तक फैला हरा भरा मखमली घास का ढलवा मैदान, मैदान के आखरी छोर से चारों दिशाओं में उठे काखड़ सींग जैसे नुकीले हिम शिखर श्रृंखलाएं। शीतल शांत वातावरण। घास के मैदानों में सुरसुर्या चलती बथौं की ससर्राट में शरारत करते रंग बि रंगे फूल। इन पंयारों में चुगती बकरियों के झुंड मिम्यांट और उछल कूद करते मेमने चिनखे। घौड़े गाय भैंस बछड़े। किनारे किनारों या बीच में कुछ सहमें चौकन्ने लेकिन निर्भीक कुलांचे मारते घ्वेड़ काखड़ आदि अरण्य वासियों का संसार।          

बुग्याळ धरती पर सुख शान्ति का एक मात्र स्थान। बुग्याळ को हमारी क्षेत्रीय भाषा में गौ वंश और पशुपालकों के लिए पंयार भी कहा जाता है। पंयार माने आन्नद अतिरेक जहाँ जीवन का कोई कष्ट नहीं है, खाना पीना खेलना कूदना आमोद प्रमोद। किसी को अति खुश और सुखी  देख कहते भी हैं कि क्या छिन बल अजक्याल पंयारी ह्वयूँ। जब बुग्याल ऐसे सुखमय वैभव की जगह है तो यहाँ भय कहाँ से आ गया ? तो देखते हैं डॉ. नन्द किशोर हटवाल जी द्वारा देखा गया बुग्यालों का भय, और वहाँ के वासिन्दों द्वारा उसे भयमुक्त करने की जद्दोजहद । और क्या बुग्याल भयमुक्त होता है या और भय के घेरे में घिरता है संग्रह की प्रतिनिधि कहानी भयमुक्त बुग्याल में देखेंगे।

“भयमुक्त बुग्याल तथा अन्य कहानियाँ” कहानी संग्रह के कथाकार डॉ नन्द किशोर हटवाल जी किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं । श्री हटवाल  जी हमारे लोक साहित्य चितेरे शोधार्थी और मूर्धन्य मर्मज्ञ विद्धवानों  की पहली पंक्ति में आते है । मशहूर नाटक नन्दा की कथा, शोध ग्रन्थ चांचड़ी झुमाको, बालकथा चमत्कार आदि दर्जनों नाटक, कहानियाँ और शोध लेख हटवाल जी का परिचय देने के लिए काफी हैं।

कहानी संग्रह “भयमुक्त बुग्याल तथा अन्य कहानियाँ”, समय साक्ष्य प्रकाशन देहरादून से 2018 में प्रकाशित हुई है। लेकिन मेरे हाथ में इतने विलम्ब से क्यों आई ये समझ से परे है जबकि डॉ हटवाल जी मेरे साहित्य पथ प्रदर्शक और निकटवर्ती हैं।  उनसे बराबर आम बातचीत होती रहती है। विलम्ब का कुछ दोष मेरी जिजीविषा का भी हो सकता है। चलो जो हुआ हुआ, ज्यादा  भूमिका ना बांधते हुए सीधे कहानी संग्रह पर आता हूँ। हाँ एक बात और स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यह पुष्तक की कोई समीक्षा नहीं है बल्कि एक जिज्ञासु पाठक की भावनाएं हैं जो कहनियों के साथ चलते मेरे मन में आई वे हैं । समीक्षा लायक मति अभी प्रयासों की चढ़ाई में गतिमान है। फिर भी कहीं आमूल चूक भूल हो जाती है तो माफी चाहता हूँ।

इस संग्रह में दस कहानियाँ 112 पृष्ठों में पूरी होती जाती हैं । पुष्तक की एक खास बात यह है कि जैसा आम पुष्तकों में होता है पहले  के कुछ पन्नो में कुछ विशिष्ट साहित्यकारों की समीक्षाएँ  फिर लेखक की अपनी बात आदि आदि औपचारिकताएं। पर इस कथा संग्रह में ऐसा कुछ नहीं है पहला पन्ना प्रकाशक का अपने प्रकाशन संबन्धी औपचारिकताओं का, अनुक्रम और फिर सीधे दस कथाओं का सिलसिला एक किनारे से दूसरे किनारे तक। बल गौड़ी का सिंगयाळ से ज्यादा दुद्याळ होना मायने रखता है। यही बात डॉ हटवाल जी ने सार्थक समझा म्येल्यो। 

            अपने जीवन काल में आज तक कितनी पुष्तकें पढ़ी गिनती नहीं लेकिन इस कहानी संग्रह में ऐसा क्या कुछ था कि मैं किसी सम्मोहन की तरह कुछ घंटों में प्रथम पृष्ठ से अंत तक पहुँच गया। आम तौर पर पाठक की ऐसी स्थिति किसी थ्रीलर उपन्यासों में देखी सुनी जाती है। पर श्री हटवाल जी की कहानियों में न ऐसा कोई थ्रीलर हैं ना वैसा रोमांस। इस संग्रह की कहानियों की  कथावस्तु यानि थीम हमारे पहाड़ी परिवेश की है, समाज की है। कहा जाय कि ये हम सबकी अपनी अपनी कहानियाँ हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।  कथाओं के तत्व मौलिकता, संक्षिप्तता, रोचकता, क्रमबद्धता, उत्सुकता, शिल्प, नवीनता, विश्वसनीयता, प्रभावात्मकता आदि पाठकों को बांधने सक्षम तो हैं ही साथ में ये कहानियाँ  हमारे पहाड़ी समाज का प्रतिनिधित्व भी करती हैं। कथावस्तु में ऐतिहासिकता को नहीं बल्कि वर्तमान को केन्द्र में रखा है। जिसमें मुख्यतया सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक विषयों को केन्द्रित किया गया है।

            अब संग्रह की प्रतिनिधि कहानी “भय मुक्त बुग्याल” को ही ले लीजिए। यही तो रहा है हम मनुष्यों का सामाजिकता          का ताना बाना। सृष्टीकर्ता ने पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां और चार अंतःकरण से परिपूर्ण मनुष्य को बनाया। पृथवी के अन्य जीवों से पृथक मनुष्य को अंतःकरण अलग सा दिया जिसमें बुद्धि, चित्त और अहंकार। कि इन अंतःकरण के बूते वह इस धरा का सुसंचालन कर सके। पर बुद्धि चित्त के परे मन अहंकार मनुष्यता पर ज्यादा हावी रहा। धरा पर मानव इतिहास से आज तक सृष्टीकर्ता की इच्छा विरुद्ध बहुत कुछ हुआ व होता आया है, एवं और ही कुछ होने जा रहा है। भय मुक्त बुग्याल कहानी में कथाकार की नजर बुग्याल और वहाँ के वाशिन्दे बकरियों एवं भेडियों पर है परन्तु निशाना वर्तमान लोकतंत्र और उसके ठेकेदारों पर लगाया है। वो भी अचूक एक दम बुल हिट।

            कहानी कहती है कि पहले बुग्याल में सब मिलकर बकरियां थी लेकिन भयमुक्त होने के चक्कर में वे भेड़ियों की चाल में फंस गये। भेड़ियों के फूट डालो और राज करो की नीति ने उन्हे कठाले, ब्वगोट्या, लगोठे, भेड़, मेंडे, खाड़ू ,बाल्ले और चिनखे आदि में विभाजित कर दिया। अब वे अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ते खुद मर रहे हैं। मैं बड़ा तू छोटा में झगड़ रहे हैं। उलझे हुए हैं मेरा तेरा के चक्कर में। और भेड़िए निरंकुश राज करने और ऐशो आराम से रहने में सफल हैं। कहानी का अन्त देखें जो वर्तमान लोकतन्त्र का आईना है:-

भेड़ियों ने सरकार बना ली जिसमें भेड़ों कठालों मेंढ़ों को प्रतिनिधित्व मिला। इस बीच खाड़ू बाल्ले, ब्वगोट्या आदि इतने सारे विभाजन हो गये कि गिनना मुश्किल, उनको भी सरकार में शामिल किया गया।

सरकार क्या भेड़ियों ने एक वर्ग पहेली बनाई, इस पहेली का हल ना हो ऐसे नियम कानून और व्यवस्था बनाई। न्याय-वाय भी है। वर्ग के अन्दर वर्ग। उसके अन्दर भी वर्ग है। इनमें वोटर हैं। बढ़ें तो नसबन्दी। घटें तो टीकाकरण। चुनाव है। उन्हें चुने तो वे भेड़िए। इन्हें चुने तो ये भी भेड़िए। टोटल बकरियों को गिने तो संख्यां ज्यादा है ताकत कम। भेड़िए मुस्टंड हो रहे हैं। ताकतवर, फुर्तीले, आक्रामक, आधुनिक हैं। बुद्धी चातुर्य में बृद्धि है। काम ना धाम, चिंता ना मेहनत, आराम का खाना है। कहाँ खोह में रहते थे अब महलों में रहते हैं। और अंत मे भेड़िए सुखपूर्वक रहने लगे। 

            संग्रह की अन्य कहानियों में भी हमारे समाज के नानाप्रकार के मुखड़े, मुखोटे, चरित्र चरेतर और मनख्यों की  दुःख-विपदा, पिछड़ापन, विसंगतियां, रुढ़िवादिता, अन्धविश्वाश, मान्यतायें और धर्मान्धता आदि आदि विषयों को बखुबी चित्रित किया गया है। साथ में कुछ हास परिहास आदि सभी मिले जुले कथा तत्वों से सुशोभित है यह कहानी संग्रह।   

             संग्रह की पहली कहानी “जै हिन्द” हम पहाड़ी भोले भल मानुस दिदा, भुला, बौडा, दादा की औनार बिनार बताता है। यही कारण है कि अपनी ईमानदारी, सच्चेपन और वचन बद्धता के बूते पहाड़ी मनखी देश प्रदेश में निर्भीक कार्य करता है  उन्नति करता है। डंके की चोट पर कहा जा सकता है कि हममें पालसी (अन्वाळ/गडेरिया) हीरा के गुण मैच नहीं करते तो सायद हम विशुद्ध गढ़वाळीपन से कहीं और बाहर निकल गये फिर हमारी पहचान दुनियां की भीड़ में मुश्किल है। हीरा पालसी हम पहाड़ियों के गुण और चरित्र का प्रतिनिधित्व करता है यह बात कहने पर मुझे संशय नहीं।

कहानी संग्रह हिन्दी में हैं। पर हिन्दी जयशंकर प्रसाद वाली विशुद्ध हिन्दी नहीं बल्कि हमारे समाज की आम बोलचाल वाली साधारण हिन्दी। इसे मैं गढ़वाली हिन्दी बोलूँ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यही भाषा शिल्प इस कहानी संग्रह की रोचकता है। सच्चाई ये है कि कालांतर से हमारे बाप दादा ऐसी ही हिन्दी शब्दों का उच्चारण करते आये हैं और आज भी देहातों में लगभग किया जाता है। संग्रह की कहानियों में गढ़वाली शब्दों के सम्मिश्रण से आंचलिक रस्याण की खुशबू अपनी और खींचती है। और पाठकों की सुलभता के लिय इन शब्दों का अर्थ कहानी के अंत में क्रमवार दिया गया है। अंग्रेजी उर्दू और अन्य भाषाओं के मिश्रित शब्द हमारी भाष के साथ गढ़वाली उच्चाराण के साथ घुले मिले है जिजसे वे अपने ही पारम्परिक शब्द लगते हैं। जब इसे आम बोल चाल में स्वीकार किया जा रहा है तो लिखने में क्यों नहीं। इसी बात को डॉ. हटवाल जी ने अग्रणीय रखा। देखें जैसे:-

            अब देख मंगळु, बाग बोल्ता मि खाता, च्यांकु (हिमालयी भेड़िया) बोल्ता मि खाता, थरबाग बोल्ता मि खाता, मसाण बोल्ता मि खाता अर द्येबी द्यब्ता बोल्ते हम खाते। जो सबकी रक्षा करते हैं वे बि बकरी खाते, तो ये आरमी वाले बि तो हमारी रक्षा करते हैं।

ये बिल्कुल सयी बात!

इधर बौडर पे इन लोगों का हमारा भोत सारा रैता है। बिना हमारे ये कुछ नयी कर पाते।

ये तो सयी बात है भाय क्या कर पायेंगे।

दानीका इसलिए तो जस्ट लैक आरमी परसन बोल्ता हमकों। दानीका जो बोल्ता एकदम फिट बोल्ता। आल्तु फाल्तु नयी बोल्ता।

            ऐसा नहीं कि डॉ हटवाल जी विशुद्ध हिन्दी से अनविज्ञ हैं लेकिन मेरा मानना है कि शुद्ध देशीय शब्दों में आंचलिक खुसबू होती है साथ में आंचलिक सहजता और साधारणता का बोध होता है यही प्रयास कहानीकार द्वारा किया गया है कि अपनी आंचलिकता का बोध पाठकों कराया जा सके। जैसे को तैसा लिखा जाय तो इसमें कृतिमता की बू आने की सम्भवना नहीं रहती है। ऐसा ही हिन्दी के महान कथाकारों की कहानियों में भी देखने को मिलता है क्योंकि अपनी माटी अपनापन हर किसी को सहज लगता है और कथाकार चाहता है कि उनके आंचल और क्षेत्रीयपन की सहजता औरों तक भी पहुँचे । हमारी लचकदार हिन्दी हम गढ़वालियों को लाखों के बीच पहचान दिलाती है इसमें इसमें संशय नही। ठैरा और बल ही तो हम उत्तराखण्डियों की पहचान है।       

संग्रह की तीसरी कहानी “मेरा भुला”। कैसे सिद्धि सुख प्राप्ति से इन्सान का अहम अपने खून के रिश्तों को तिरस्कित  कर देता है कहानी में बखूबी चित्रित है। हमारे तुम्हारे बीच कतिपय ऐसे डी डी (देवीदत्त) कैलखुरा उर्फ द्यब्वा भुला जैसे सफल व्यक्ति हैं जो अपनी सफलता की चकाचौंध में रिश्तों को कूड़ा समझते है। और किसनू की खंतड्या माँ जैसी कितनी बेणियों (बहनों) की आशाएं जीवन्त है कि उसका भुला साब बनकर मेरी भी सुध लेगा। बचपन की ताण माण लगाकर घुघी में उठाना उसे आकंठ याद है । वह अभी भी सोचती है कि मेरा द्यब्बा भुला वही द्यब्बा है जो कभी अपने मुँह का आधा गप्फा उसके मुँह में डालता था। ऐसे ही कळकळी लगाने वाली कहानी साझा मकान भी है।

            संग्रह की चौथी कहानी “रतन को बालिग होने की बधाई”। यह भी एक व्यंग कहानी है। कहानी उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन की है। अनेक आंदोलनकारियों की शदाहत और भोली भाली जनता के संघर्ष पर बने उत्तराखण्ड की स्थिती आज बिल्कुल रतन के जैसी ही है। जो कुपोषण में पला है, बिमार बालिग है।  बालिग है पर बिना अच्चे सैं गुस्सें का लाचार है। लाचार बालिग । उसे याद नहीं कि इस आंदोलन ने उसकी माँ को उससे छीन लिया था। यह कहानी उत्तराखण्ड आंदोलन और आज की जमीनी हकीकत बयां करती है । सफ़ेदपोश कुर्सी हैकरों की वास्तविकता व्यक्त करती है ।

            संग्रह की पांचवीं कहानी “गाँव की पूजा” में कथाकार ने प्रवासी उत्तराखण्डियों की यथार्त जमीनी हकीकत का काल्पनिक ताना बाना बुना है। गाँव से बाहर शहरों की ऐशो आराम और लग्जिर्यस जीवन शैली में  हम सब यही तो कर रहे हैं। गाँव के प्रति अत्यन्त प्रेम। ग्राम संस्कृति की वर्चुअल पूजा।  ऐसा प्रेम जिसमें दिखावा है विज्ञापन है अपनेपन का मुखोटा है। ना मिटटी में, ना गोबर में , ना उकाळ उन्दार, सुख सुविधाओं से वंचित गाँव की सुख समृद्धी वाली भक्ति। इस ग्राम भक्ति में समाज के सभी छोटे बड़े चेहरे शामिल हैं । क्या नेता क्या नौकरशाह । अपनी लग्जिर्यस लाईफ स्टाईल के साथ बिकट शूलों में कराहती थाती की प्रेम भक्ति। और जब भगवान ने प्रशन्न होकर संसाधन हीन वास्तविक गाँव की स्थिती में लाकर खड़ा कर दिया तो सब बिलबिला उठते हैं गिड़गिड़ाते हैं । भगवान ये कैसा अन्याय। कैसे नर्क में लाकर रख दिया। फिर भगवान ग्राम भक्तों को वापस शहरी स्थिती में लाता है तो मुखोटे के अन्दर वास्तविक चेहरे की चमक देखते ही बनती है । कहानी का अन्त हमें आईने के सामने खुद को देखने की धर्म धाद लगाता है । देखें :-

            सभी मंत्रियों, रामनाथ ग्रामभक्तों और निर्मल कुमारों ने सार्वजनिक रुप से दुःख प्रकट किया और खुसी अपने घर के अन्दर गोपनीय रुप से अपने परिजनों के साथ साझा की। पूर्ववत ग्रामभक्तों का कीर्तन का दौर चलने लगा। ग्राम कथाएँ, फैन्सी ड्रेस शो, ग्रामदेवता का अवतरण। गाँव की सभ्यता, परमपराएं, रीतिरिवाज, समाज का अंतिम व्यक्ति, हर गरीब, बीपीएल, एपीएल आदि अदि। गाँव पवित्र और पुरातात्तिवक मंदिरों से बाहर नहीं निकल सका और बचे खुचे लोग आज भी उसमें मूर्ति बने बैठे हैं।

            संग्रह की छटवीं रोचक कहानी है “बैल की जोड़ी” । यह कहानी किसी जमाने के हमारे विशुद्ध लोक की याद दिलाता है। हाँ वर्तमान समय के बजारी पराभव में पले बच्चे या युवाओं को कहानी की रस्याण उतनी अच्छी ना लगे जिनती कि हम जैसे उस लोक में जन्में पले वयस्कों को लग रही है।

बल नाक ना हो ता आदमी कुछ ना करे। कुछ भी हो पर नाक तड़तड़ी रहनी चाहिए, चाहे पीठ पर लोते लग जाय। यही नाक है जिस पर समाज देश दुनियां के तड़के की छिंछयाट लगती है। नाक याने प्रतिष्ठा। एक तरफ देखा जाय तो आदमी के जीवन की हाय तौबा ही वर्चस्व के लिए है प्रतिष्ठा की है। सारी मेहनत संघर्ष नाक के लिए। नहीं तो उदर ज्वाला मंदिर में बैठे जोगी की तरह भी शांत की जा सकती है।  धन्नी काका के बोले वचन सिर उठायेगा तो गिरेगा नाक टूटेगी, से कहानी के पात्र इंदरु के नाक में छिंछयाट लगी है। इंदरु के गज्जू और रज्जू जिस बैलों की जोड़ी पर उसे नाज था वह रज्जू के भेल गिरके मर जाने पर टूट गई। किसान की शान और नाक खेत में जुते बैलों की जोड़ी। बैलों की जोड़ी टूटना नाक पर कटाक की चोट। चोट वाली नाक तड़तड़ी नहीं रह सकती इसलिए नाक तड़तड़ी रखने के लिए वैसे ही बैलों की जोड़ी फिर पाळी पर बांधना जरुरी है। और इंदरु अपने नाक के लिए गज्जू के लिए समदिष्ट नाक नक्स के साथी की खोज के लिए निकल पड़ा । सारे इलाके में कई दिनों तक भूखे प्यासे ढूंढ ढपड़ करता रहा।  और महिने भर की मेहनत के बाद आखिर गज्जू का साथी मिल गया विल्कुल रज्जू के जैसे बल ढूंढके भगवान भी मिलता है।  वक्त की नजाकत देखते हुए बैल के मालिक बिस्सू गळदार ने चार चारगुना दाम बताया पर नाक के लिए इन्द्रू ने हामी भर दी। बैल मिला है तो हाथ से जाना नहीं चाहिए।  कुछ नगत कुछ उदार में बैल उठा लाया। नाक के लिए उधार लेने में कोई अपमान नहीं। उदार पगाळ की उदारता में इन्द्रू नाक बचाने में सफल रहता है। कहानी में पात्रों का संवाद और पहाड़ी जीवन का सुन्दर चित्रण है।

संग्रह की सातवीं कहानी है “साझा मकान” कोंकळी (करुणा) लगाने वाली कहानी। कहानी पहाड़ों से होते पलायन से किसी समय के एक समृद्ध परिवार के वैभव का द्योतक ढैपुर्या मकान की दुर्दशा का है। मकान की जीर्ण-शीर्ण अवस्था पर रैवासी वारिस का चिन्तन, और अन्य शहरी वारिसों की लालची गिद्द निगाहों को बखुबी चित्रित किया गया है। जहाँ कहानी का पहला संवेदनशील कृतज्ञ पक्ष रामकृष्ण नोटियाल जी अपनी नैतिक जिम्मेवारी को समझते हुए पैत्रिक विरासत को बचाते आया और क्षतिग्रस्त होने पर मरम्मत के लिए वचनबद्ध है। वहीं दूसरा संवेदनहीन पक्ष शहरी वंशजों का, जिन्होने जाने के बाद कभी उस पित्र कूड़ी की तरफ मुड़ कर नहीं देखा, और जब भूकम्प से क्षतिग्रस्त मकान के मुआवजे की बात आई तो अपने तीते दांत उस पैत्रिक विरासत पर ढुबाने से नहीं हिचके।  कहानी संयुक्त परिवार के द्वकुले वैभव से इकुले स्वहित गामियों तक के ताने बाने के साथ गंतव्य पूरा करती है।

            संग्रह की आठवीं कहानी “कबट” हमारे समाज में गहरी पेठ बनाये अति अन्धविश्वास रुढ़िवादिता की कहानी है। कितनी बिडम्बना है किशोर बेटा भांग सुल्पे के नशे में जीवन बर्बाद कर रहा है और माँ बाप व समाज आँख बंद कर किसी ने कुछ कर दिया या कबट खला दिया पर जतन करते जूझते हैं। कहानी का एक पढ़ा लिखा युवा पात्र आशीष लोगों को इस रुढ़िवाद से बाहर आने के लिए हर संभव कोशिश करता है, सच्चाई दिखता है।  लेकिन समाज के अंर्तमन में बैठा अन्धविश्वास उस पर भी कुछ लगा, बिल्का (चिपका) या खलाने की बात करता है।

 आजके पुख्ता और प्रूफ वैज्ञानिक युग में जब तक हम अपने समाज में व्याप्त रुढ़िपंथ और अन्धविश्वास से बाहर नहीं आएंगे तो कहानी के निर्दोष निरार्षित पात्र बुढ़िया बौडी के जैसे कईयों को लांछन से तिरस्कित होना पड़ेगा। और भविष्यवक्ता बक्ये पुछयारे और गणत वाले नटवरलालों की दुकानों पर घरों की सुख शान्ति बिकती रहेगी। कहानी की आत्मीय भाषा और देहाती संवाद पाठकों के समय को इन्वेस्ट करेगा ऐसे मेरा विश्वास है।

            संग्रह की नौवीं कहानी “राम जी की लीला” एक वेहतरीन हास्य और रोमांचक कहानी है। ऐसा नहीं कि कहानीकार ने पूरे कहानी संग्रह में समाज के ज्वलन्त मुद्दों और बिडम्बनाओं को रेखांकित किया हो बल्कि पाठको के मनोरंजन और मानसिक स्फूर्ति के लिए हास्य विनोद भी लिखा है।  राम जी की लीला कहानी के वाकये जैसे जैसी घटनाएं आपके सामने भी घटित हुए हो तो कतिपय प्रसंगों में आप भी मेरे जैसे हँसते हँसते पेट पकड़ेंगे ।

            कहानी जहाँ हास्य और विनोदपूर्ण है वहीं फिर ग्रामिण समाज के आन्तरिक द्ववन्द और गुटबाजी को चित्रित करती है। कहानी ‘नेता बणि कि दिखोलु रे मार ताणि अब कि दौं’  वाली बात पुख्ता तौर पर केन्द्र बिन्दु में है । चाहे इसमें गांव की प्रतिष्ठा जाए या किसी का अहित ही क्यों ना हो। कहानी शराब, स्व प्रतिष्ठा और भावी नेता बनने की चाह में कुछ भी करेगा के वर्तमान राजनीति चरित्र का बखुबी बखान करती है। 

संग्रह की आखरी और दशवीं कहानी “पुत्र प्राप्ति” ।  कहानी हमारे समाज के पुरुष सत्तामक वीभत्स चेहरे को उजागर करता है। यह कहानी डॉ नन्द किशोर हटवाल जी की प्रतिष्ठ कविता “बोये जाते हैं बेटे उग आती हैं बेटियां” का प्रतिनिधित्व करती है। आज भी हमारे कतिपय भारतीय समाजों में पुत्र को गृहस्थ रत्न और बेटी को घास फूस, पराया धन मान कर परवरिश में विभेध किया जाता है। यही अन्तर पुरुष प्रधान मानसिकता को बल देता है। जबकि आज पूरा विश्व वुमेन इम्पावरमेन्ट की बात करता है। मातृशक्ति मर्दों से चार कदम आगे जीवन के हर क्षेत्र में संसार का संचालन कर रही है। बेटे के प्रति अति आत्ममुग्ता, अन्धा लाड़ प्यार और हाथ हातों की परवरिश कैसे पुत्र को कुपुत्र बना देता है एवं बिना खाद पानी के बेटियां कैसे बिना खाद पानी की सी लगुली (बेल) ठंगरे के चोटि पर पहुँचके माँ बाप ठंगरों का ठंगरा बन जाती है, कहानी के मूल कथानक उग आती हैं बेटियां कथन को मजबूती देता है।

            अंत में कहानी संग्रह “भयमुक्त बुग्याल तथा अन्य कहानियाँ” के परिपेक्ष में इतना ही कहूँगा कि ये कहानियाँ सभी को पढ़नी चाहिए। देश एक मेस द्वी सभी जगह है। डॉ नन्द किशोर हटवाल जी की ये कहानियाँ पूरे भारत में ही नहीं बल्कि तमाम विश्व विरादरी में पहुँचने की आशा करता हूँ । यह हम सभी सुधी पाठकों के  सहयोग से संभव हो पायेगा। सुधी पाठक पुष्तक प्राप्ति हेतु समय साक्ष्य प्रकाशन से ऑनलाइन आर्डर भी कर सकते हैं या स्वयं डॉ. हटवाल जी या मुझसे सम्पर्क कर सकते हैं।

 

@ बलबीर सिंह राणा ‘अडिग’

मटई चमोली

9871469312


 


 

रविवार, 9 मई 2021

उषा किरण




मुश्कान बिखेरती झर-झर

किसलय कलियों अधरों पर

आहिस्ता दस्तक दे रोशन दान से

चुंबन देती गुड़िया कपोलों पर। 


अलसाई तरुणी देह संकुचाती 

चुपके छुवन आनन उरोजों पर

छूती अचला का हर कोना 

ख्वळयाँस अंशु बेधड़क निडर। 


चूं चूं चां चां की भोर वंदना

निकले विहग उर जतन पर

मुक्ता बन चमक रही ओश 

नहीं उसको मिट जाने का डर।


@ बलबीर राणा "अडिग"

Adigshabdon

सोमवार, 3 मई 2021

मातृभाषा अभियान में प्रथम पंक्ति के संगेर थे श्री हरीश ममगांई जी

 



    करोनाकाल चल रहा है। चल क्या आँख मुँह बन्द कर भाग रहा है। आंधी चल रही है। और बबडंर चक्रवात में इन्सानी जान त्राहीमाम कर रही है। दो हजार बीस को लोग ट्वेंटी ट्वेंटी कह अशुभ मान रहे थे कि येन अध्या पध्या कने च। लेकिन इक्कीस तो बीस का भी बाप निकला। पिछले साल करोना जिस धीमी रफ्तार से भारत में आया उसी धीमी रफ्तार से जाने के उपक्रम में आ चुका था। देश ने स्वदेशी वेक्सीन भी र्निमत कर दी थी जनता आस्वस्त हो गई कि अब बच जायेंगे। पिछले साल खोये अपनो की यादें धुंधली होने के साथ नये साल में जख्म भरने के रुप में देखा जाने लगा था। अपनों का खो जाने का जख्म, बिजनिस बाड़ी रोजी रोटी का जख्म देश की अर्थ व्यवस्था का जख्म, टूट चुके आस को जगाने का वक्त देखा जाने लगा। सब जख्मों को भरने की उम्मीद से आम जन ने कमर क्या कसी र्निभीक हो गई और इस अदृश्य  काल ने मौका ना चुकाते हुए  झपट पड़ा और एक तरफ से। लपेटता झपेटता जा रहा है छोटे बड़े जवान बृद्ध जो सामने आ रहा है चटकाता जा रहा हैं। महामरी हाँ घोर महामारी। अन्य कालों में भी फैली थी बल महामारियां पर अहसास नहीं था। ऐ अपड़ी ब्वै का यनु भयाक्रांत ऐसास दुश्मन तैं कि ना हुयां। सारे जतन धरे के धरे रह गये ढाई पाई ऐन मौके पर व्यर्थ। लाखों पाई भी जान नहीं वख्स रही है। कब किसका नम्बर लग जाये पता नहीं। हे राम कौन दोषी। सिस्टम या समाज।पर समय दोषारोपण का समय नहीं सम्भलने का है और वो भी एक दूसरे का हाथ पकड़कर। धाद सहित देश की कई संस्थायें और महामानव दिन रात खुद की परवाह किये दूसरे की जान बचाने की मुहिम में लगे हैं। ऐसे लोगों की बदौलत ही  अभी तक धरती टिकी है नही तो आपदा को अवसर देख बटोरने वाले हैवानो के चलते परलय निश्चित है ।

            इसी महाप्रलय करोना महामारी के चलते कुछ दिन पहले हमने भी खोया है एक साथी को। अजीज को। धाद मातृभाषा और गढ़वाली साहित्य का संगेर श्री हरीश ममगांई जी को। पूरा धाद परिवार स्तभ्ध है। पर होनी को कौन टाल सकता। होनी निश्चित है और जतन अनिश्चित। ये वर्तमान समय बता रहा है । जतन का मौका ही नहीं दे रहा है। बल ब्याली त बात ह्वे छै अर ब्याली चलग्यां। 

            फरवरी दो हजार बीस से मैं देख रहा था कि हर दिन हरीश भैजी सबसे आगे लग कर धाद मातृभाषा ग्रुप की सांग ग्रुप एडमिन श्री गरीश पंत मृणल जी के साथ पूरे सार्मथ्य से तड़तड़ी कमर से उठाये चल रहे थे। हम लोग समयानुसार कभी कभार बोक (किनारा) भी लग जाते हैं पर हरीश भैजी कभी नहीं। ग्रुप में लगभग सभी नोकरी पेशे से हैं समय की वाध्यता हर किसी के पास होती है पर हरीश ममगांई जी का हिगनत्यार (सर्मपण) ऐसा कि हर कविता लेख पर अपनी उचित प्रतिक्रिया जरुर देते थे। उनकी इसी प्रतिबद्धता से आज सभी साहित्यकारों स्तभ्ध हैं। शोक में हैं। काणा त्वे क्या चैणा द्वी आँखा साणा। ऐसे ही हर लिख्वार को प्रतिक्रिया रुप में साणी आँखी दे जाते थे।

            श्री ममगांई गढ़वाली के उम्दा गजलकार तो थे ही साथ ही उनकी पकड़ हिन्दी कविता संस्मरण और कहानियों पर भी अच्छी थी। साहित्य परख भाषायी ज्ञान की गहराई व विवेचना आपकी पहचान थी। और ये सब होने के साथ वे एक वेहतर पाठक थे लर्नर थे, जिज्ञासु बाल चित वालेे। वर्तमान मा दिख्येणु च कि लिखणु त भौत छन पर पढ़ेणु नि, हरीश भैजिक पाढ़ाकु आदत वूं कि रचनों मा साफ दिख्येन्दी। जीवन में लर्नर एटीटयूड लाना हर किसी के बस का नहीं साब। आम इन्सान में देखा जाता कि एक आध सीड़ी कामयाबी के बाद वह खुद को सम्पूर्ण घोषित कर लेते हैं। जबकि धरती पर मानव इतिहास बताता है कि धरा पर कोई व्यक्ति सत गुण सम्पूर्ण नहीं हुआ। पिछले कुछ महिनों से मंमगांई जी अनुवाद पर लगे थें और अनुवाद की परिपक्वता ऐसे कि जैसे अनुवाद ही उनका सृजन होगा।      

ममगांई जी का सानिध्य मुझे धाद मातृभाषा ग्रुप से ही मिला उससे पहले मैं भैजी को जनता नहीं था। दो हजार बीस के लोकडाउन से धाद से ही आभासी दोस्ती हुई, दोस्ती क्या हुई कुछ दिनों में ही अजीज बन गये। क्या रुलाने के लिए ही आप इतने कम समय में अजीज बने ? सायद हाँ। गलवान संघर्ष के दौरान जब में अरुणाचल तवांग बोर्डर पर तैनात था और काफी दिनों से नेटवर्क से दूर रहा तब नेटवर्क में आने पर देखा निजी परिजनों के साथ हरीश भैजी के भी मिस काॅल व मैसेज मिला। कि राणा जी कख छै पोस्टिंग, अजक्याल भौत दिनो बटिन दिखेणा नि सब असल कुसल। उस प्रतिकूल परिस्थित में इस आपार स्नेह को कैसे भूल सकता हूँ। यदा कदा कहीं पर संसय होने से मैं उनके पास चला जाता था छुवीं लगाने यानि फोन पर। छुवीं मातृ भाषा की अपने पहाड़ की और गढ़वाली साहित्य की। वे कहते थे राणा जी आप लोगों से ही सीख रहा हूँ जबकि कौन नहीं जानता हैं कि आप हमारे सृजन र्निणायक थे। गुरु थे। चाहे पद्य हो या गद्य।

            इस अप्रेल 21 के पहले सप्ताह में हमनें फिर दाध मातृभाषा अभियान ग्रुप में काव्य प्रतियोगिता रखने का प्लान रखा जिसमें आपने डियूटी पर व्यस्त रहूँगा की बात कही थी फिर भी साथ पूरा निभाने का भरोसा दिया था और मृणाल जी को हंडरेड नहीं हंडरेड फिफ्टी परसेन्ट यकीन था कि हम मैजूद हो पायेंगे कि नहीं आप जरुर मैजुद रहेंगे। अब मृणाल जी भी एक तरफ से निहत्थे हो गये। सायद अप्रेल दूसरे हप्ते तक ममगांई जी दिखे थे फिर वे ग्रुप में नजर नहीं आये । 20-22 अप्रेल के आस पास एक दिन मैने ग्रुप में संदेश भी प्रेसित किया था लेकिन उनका कोई प्रतिउत्तर नहीं आया कामेश भाई गांव जाने की आशंका जता रहे थे लेकिन मि जाण करोना वूं तैं दिव्यलोक मा ल्यी जाणू तैयार कनू रै। उसी दौरान एक रात दस बजे फोन भी  लगाया था पर उत्तर नहीं मिला मन कुछ आशंकित हो रहा था। और एक मई को ग्रुप में मिले सन्देश ने स्तभ्ध कर दिया। कमर टुटग्ये।

            कितनी बारिकी से वे हर रचना की परख और मुल्यांकन करते थे। जब पिछले साल ग्रुप में गढ़वाली छंद बध काव्यशाला के तहत  प्रतियोगिता होती रही थी तो हरीश भैजी पहले ग्रुप में छंद विधान से संबन्धित तमाम प्रकार की जानकरी साझा करते थे कि किस प्रकार से कौन छंद लिखा जाता है उस छंद का मापदंड क्या है मात्रा भार क्या होना चाहिए आदि आदि। फिर मुल्यांकन पर एक एक पंक्ति और मात्रा को गिनते हुए हर प्रतिभागी को उसकी कमी बताते थे। ता ब्वाला अगला भै कु यतनु सर्मपण अपणी भाषा का पैथर जन कि बल्द बेची रितो हुयूं ह्वलु। मि स्वचदू छै कि यीं मनखी घौर बार नि छ जु इत्गा टेम होणु। पर जुनूनी मनखी तैं समै कमि नि होन्दी बल।

            मातृभाषा अभियान तैं इनु संगेर नि मिललू। सांग उठाने वाले हम सब हैं पर आप जैसा नहीं क्योंकि अपनी अडिग बात बोलुं तों हर इन्सान कहीं ना कहीं आत्ममुग्द होता है पर आपके चेहरे पर ये छव्या (झाई) मुझे तो कभी नजर नहीं आई । जितनी भारी और गहरी आवाज उतना धीर गंभीर चरित्र। किसी बात पर भी उतावलापन नहीं। शालीनता और धैर्य की प्रतिमूर्ति। आज जहां हमारी गढ़वाली भाषा ने अपना योग्य सृजक खोया वहीं आपके परिवार और आपके विभाग को आपके रुप में हुई क्षति की भरपाई मुष्किल है। भगवान आपके परिवार को इस महा दुःख सहने की शक्ति और आपको अपने दिव्य लोक में यथोंचित स्थान प्रदान करे।

            श्री हरीश भैजी से मिलने का मौका नहीं मिला क्योंकि पिछले साल से मिलना अभिषाप हो रखा हैं। साहित्य सेवियों का मिलन साहित्य संगोष्ठियों में ही होता है जो पिछले वर्ष से वेवनारों पर ही चल रहा है। और मैं ठैरा वेबनार रहित मनखी इस लिए एक आद विडयो काॅल के अलावा र्वच्वल मिलन भी नहीं हुआ।

            यह आंधी आप जैसे कतिपय स्वजनो को उड़ा ले गयी और आगे क्या होगा राम जाने। अल्प समय में जितने अनुभव आपसे मिले और आपको जान पाया उतनी बातें आलेख में लिखना संभव नहीं हो पा रहा है, क्येंकि बार बार गला भी रुंध रहा हैं और आँखें पसीज रही है। मैं अतिभावुक होना नहीं दर्शाना चहता हूँ क्योकि मेरा फिल्ड मुझे भावुकता की इजाजत नहीं देता है। खैर सैनिक होने के साथ मैं आम नागरिक भी हूँ इसलिए भावुक होना लजमी है। दिल से श्रधेय ममगांई जी की सदगी को सल्यूट करता हूँ। हर बात को इम्तीनान से सुनते थे और अधिकतर प्रतिउत्तर में सहमति ही जताते थे। सबके साथ सामंजस्य बैठाना आप से सिखने को मिला और मिला हर चीज वस्तु का सम्मान करना, धैर्य रखना।  

            धाद मातृभाषा अभियान के एडमिन श्री गिरीश पंत मृणाल जी के साथ अपना यथा संभव सहयोग जताते हुए श्री ममगांई जी के सृजन को एकत्रित कर पुष्तक रुप में लाने के लिए अपनी वचन बद्धता व्यक्त करता हूँ और धाद के अन्य साधकों से भी सहयोग की अपील करता हूँ। यह एक साहित्यकार के लिए सच्ची श्रृद्धांजली होगी और हम भाषा प्रेमियों का कर्तव्य । अपणु किंचक प्रयास से यीं श्रद्धान्जली स्मारिका कु कैर अफूं तैं तस्सली देणु कि वा देवआत्मा कखि ना कखि बटिन जरुर द्यखली अर आश्रीवाद द्येली। पैली श्रदेध छाँ अब प्रथम पुज्यनीय ह्वेग्यां किलै कि वा अब पितर बणग्यां।

आखिर मा गढ़वळि साहित्य का यीं सिपै तैं वूं कि द्वी रचना आखिर जात्रा अर प्राण (मरण विषै) से याद करि अपणी श्राद्धान्जली देन्दू।

 

@ बलबीर राणा अडिग

 

आखरी जात्रा

1.

जूनी जलूड़ी त आज तलक कैन नि खाई

सूना पलंग मा से ह्वा या बुगचा बण्युं रै उमर भर

एक दिन सब छोड़ी छाड़ि आखिरी जात्रा का

बाटा लग जाण

एक दिन तय च जब आखिरी संदेश जालु

भै. भयातए ओर. पोराए रिस्तादारए अर दगड़या. सगड़या होला कठ्ठा

तांतु लग जालु वूंकु भी जौं खाडकरों तैं जिंदा मा

द्वी छुईं भी गाड़णु कु बगत त बिल्कुल हराम

पर जिकुड़ी मा टोम करणा खुणि हत्यार पळ्यौणौ खूब छौ।

2.

अपरी ठसक अर ठंगट्याट लेकि मड़घाट आला कना कना

अर वख भी अपरी चपराट से बाज नि आला

मड़घाट मा द्वी तरों का मनखि ह्वे जांदन जरा हेरा

एक विशेषाधिकार युक्त जौंमु सांस कु अर जिकुड़ी की धकधक कु परमिट बाकी रंदु

हैका वु जु टुप्प सांग पर पोड़ि पोड़ि सब्युं कु तमासु देखदन

मिजाण हैंसदा भी होला गात से भैर हवा का रूप मा

अर खरोळदा होला जिन्दों का जिकुड़ी का भैर. भितर ।

3.

अडिंठा वु देखला कु नकन्याट करणु च अर कैकी निरक डबळाट च

वु ई भी देखला कि क्वी त बानु बणैकि वख बटि भी ठसकणा छन

कुछ कोणों मा गुणमुण गुणमुण चार पुश्तों की योजना बणाणा छन

बल हमुन अब तलक यु तीर मारयालि अर ऐथर हौर धमाकु करला

माथि मजिस्ट्रेट झणि क्या आदेश जारी ह्वा करणु अपरी कलम से।

4.

दगड़योंए पाणि पिलौण त ल्वोटा माए मटयाळा मा नि

वु सब्युं कु बुबा भी बुल्दु बल प्रेम का द्वी फूल

पाती भी वे खुण बिजयाँ छन

मड़घाट मा आखिरी जात्रा मा सब कुछ

देखणो कु मिलदु

नि मिलदि कुछ त वु च द्वि सच्चा आंसुओं का दगड़ ष् मौन विदाई ष्।

 

प्राण (मालिनी छंद मा)

कसम वसम खावाए चा नि खावा हमारी ।

हम त मर गयां रेए जान ह्वेगी तुमारी ।

सुरुक सुरुक बैरीए प्राण ली ग्ये चुरैकी ।

सरम वरम भी ख्वैए ह्वे अदानो भिखारी ।।

 

हरक फरक मायाए से कु होंदों कु चांदो ।

जख जख ठग चांदोए वो दिलों तैं मिसांदो ।

जनम मरण से भीए माथि प्रेमी कु बाटो ।

कतर कतर ह्वे जौए वो खुट्टी नी उठांदो ।।

 

रचना :  हरीश ममगांई