धरा पर जीवन संघर्ष के लिए है आराम यहाँ से विदा होने के बाद न चाहते हुए भी करना पड़ेगा इसलिए सोचो मत लगे रहो, जितनी देह घिसेगी उतनी चमक आएगी, संचय होगा, और यही निधि होगी जिसे हम छोडके जायेंगे।
शनिवार, 9 मार्च 2024
विवेचना: जून 2023 की पुरोला घटना देखी और सीख
होनहार की औनार
जब भी बेटा छुट्टी में घर आता है,
कुछ घर और कुछ वो बदल जाता है
उसको मैं कमजोर और बुढ्ढा दिखता हूँ,
मुझे वो पहले से समझदार नजर आता है
उसकी माँ इसलिए भोली हो जाती सायद
अब वो माँ के पास होने खाने की लगाता है
माँ समझ गई कि बेटे ने टहनी पकड़ ली
और वो खुद को चोटी तक समर्थ पाता है।
नहीं रहती हमें अब उससे कोई शिकायत
वो हमारी कचर-पचर से बोर नहीं होता है
कभी सुना भी देते हम कुछ गुस्से में तो
वो हाँ से हाँ मिलाता या मंद मुस्करा देता है।
चेहरे पर झुर्रियाँ हमारी बढ़ रही हैं,
और कंधे वो अपने झुकता देखता है
पैंसे की चिंता मत करना मैं बोलता था कभी
अब वही बात घर से निकलते वो दोहराता है।
ऊँच-नीच भली-बुरी समझाने लग गया बेटा
सायद घर की पूरी गठरी उठाना चाहता है
समय का चक्र अपनी जगह आता है अडिग
इसलिए एक दिन बेटा भी बाप बन जाता है।
औनार -शक्ल
©® बलबीर राणा 'अडिग'
भू क़ानून मूल निवास
पर निकले या परेशानी में निकले
देखा देखी यहाँ के वहाँ निकले
बस रहे बाहर वाले हमारे उबरे
हम अपनी ही बबौती के गैर निकले।
भूमी हमारी भुमियाळ हमारा
फिर क्यों नहीं भू क़ानून हमारा
मूल निवासी हो जाएंगे प्रवासी
गैर क्यों बनेगा मालिक हमारा ।
उत्तराखंड भू क़ानून मूल निवास
लागू करो या निकलो वनवास
अब ना कोरा आश्वाशन ना जुमलास
तभी जीत पाओगे राज गद्दी विश्वाश।
@ बलबीर राणा 'अडिग'
तेरी यादें
इस तन्हाई में तेरी
यादें तो हैं मेरे साथ
वक्त-वेवक्त, सुख-दुःख
खट्टी मीठी सभी किस्म की यादें।
ठंड में गुन-गुनी धूप
गर्मी में बांज की घनी छाया
बनी रहती हैं यादें ।
रात-दिन, उठते-बैठते
खाते-पीते, सोते-जगते
बहती रहती हैं यादें
कल-कल करती
सदा नीरा की तरह।
कुछ यादें तालाब की लहरों
की तरह किनारे आकर
थककर शांत हो जाती हैं
कुछ भागती गंगा की
लहरों की तरह
छलारें मारती
किनारे पटकती रहती हैं।
कुछ धार के सुरसुरिया बथों
की तरह सहलाती रहती हैं
कुछ बर्फ़ीली साड़ की तरह
काटती रहती हैं।
कुछ कुतक्याळी लगाती रहती हैं
कुछ रुसा भी जाती हैं
इन्हीं के सहारे गुजर रही हैं
मेरी तन्हाई
मैं थक जाता हूँ
पर
थकती नहीं तेरी यादें।
@ बलबीर राणा 'अडिग'
अडिग आह्वान
सति प्रथा कुरीति थी मैं मानता हूँ
घूँघट प्रथा बूरी थी मैं समझता हूँ
छोड़ दिया हमने जो गलत था, और
छोड़ने की मज़बूरियों को भी पहचानता हूँ।
पर! हलाला कैसे सही था नहीं बतलाया
तीन तलाक क्यों ठीक था नहीं सुनाया
बुर्खा हिबाज सब जायज थे एक पंथ के
बहु विवाह कैसे तर्क संगत था नहीं समझाया।
कुछ नहीं था, गढ़ा था नरेटिव हमें भरमाने को
सनातन को भारत भूमी से सदा मिटाने को
कुछ सफल भी हुए हैं ये सनातन विरोधी
हमारी पीढ़ी को अपनी जड़ों से काटने को।
कुर्सीयों पर सनातन विरोधी अज्ञानी थे
अंदर से अंग्रेज बाहर से हिंदुस्तानी थे
कोई कॉन्वेंट के नाम, मन को हरते रहे
कुछ मदरसों में हिन्दू नाम का जहर भरते रहे।
इन्हीं के बीच थे कुछ तथाकथित उदारवादी
परोसा था गलत इतिहास बने थे खादीवादी
गंगा जमुनी तहजीव का झुनझुना पकड़ाकर
इस्लाम की गोदी बैठ, थे स्वजनित समाज़वादी।
आततायियों को ये आसमान से महान बनाते रहे
सड़क गली चौबारे इनके नाम के सजाते रहे
लूटा था जिन्होंने, या लूट रहे थे जो भारत को
उन नाराधमों का महिमामंडन करके पुजाते रहे।
पर! जड़ सत्य है सूरज जग से कभी हटेगा नहीं
स्थितिजन्य छंटेगा लेकिन मिटेगा नहीं
इसी तरह अपौरुषीय सनातन भी है मित्रो
धरा में जीवन, जीवन में धरा तक मिटेगा नहीं।
अडिग आह्वान है मित्रो वही देश गुलाम होता है
जिनको न राष्ट्र धर्म संस्कृति पर गुमान होता है
फिर गुलाम रहती उसकी साखें क्या जड़ें तक
और भविष्य उसका औरों की अपसंस्कृति ढोता है।
आसुरी शक्तियों को फिर न उठने देना होगा
सर्वदा सनातन भारत को आगे बढ़ाना होगा
विराज गए हैं राम हमारे फिर अपने आसन
सर्वे भवन्तुः सुखिनाः भगवे को सदा लहराना होगा।
@ बलबीर सिंह राणा 'अडिग'
मटई बैरासकुण्ड, चमोली
सच्च वाले किसी की नजर के हो गए
आबो हवा जिधऱ की हुई उधर के हो गए,
सीधी डगर वाले भी किधर से किधर के हो गए।
बोल-बचन कौल-करार पर कब रहे वे,
जुबान से पलटे और खबर के हो गए।
चिंता न कर हम हैं पराळ जो दे रहे थे,
बारी आयी कि अगर-मगर के हो गए।
द्वीघर्यों का क्या वास्ता इज्जत आबरु से,
आज एक घर के कल दूसरे घर के हो गए।
चीफळी गिच्ची वाले सबके हुए अडिग,
सच्च वाले किसी की नजर के हो गए।
@ बलबीर सिंह राणा 'अडिग'
कर्म करते जाना रुकना नहीं
कर्म करते जाना रुकना नहीं,
जमके जीते जाना सोचना नहीं।
पहले या बाद छोड़ना ही है ये जहाँ,
मरने के डर से जीना छोड़ना नहीं।
छूटेगा जो यहाँ, वो सतकर्म होंगे,
इसलिए सतकर्मों से विरक्तना नहीं।
हम तो कर्ता हैं कराने वाला राम है
तो खुद को राम से दूर करना नहीं।
इच्छा नहीं इरादा रखना अडिग,
जीत होगी, भरोसा खोना नहीं।
@ बलबीर सिंह राणा 'अडिग'
9 फ़रवरी 2024
चिन्तन
मित्रो जीवन में जानकारी लेना और अमल में लाना दो विपरीत धाराओं का मिलकर प्रकाश रूपी सफलता प्राप्त होना जैसा है। लेकिन इसे सभी लोग प्राप्त नहीं कर सकते हैं कारण या तो जानकारी का ना होना या जानकारी होने के बाबजूद भी अमल में न लाना। ध्यान रखने वाली बात है कि या तो जानों या तो मानो, अगर हम जानते भी नहीं और मानते भी नहीं तो फिर जीवन का सामाजिकता के साथ समावेशी ढंग से आगे बढ़ना आसान नहीं होता।
वर्तमान युग सूचनाक्रांति और तकनिकी का युग है। तकनिकी से जीवन जितना आसान हुआ इसके विपरीत भी उतना ही सत्य है। कई जागरूक लोग जीवन से जुड़े तमाम जानकारियों को जुटाते हैं और कुछ लोग उसे औरों तक पहुंचाने में मदद करते है। इसमें धर्म संस्कृति इतिहास की सारी बातें शामिल हैं।
इसके साथ ये भी जनना जरुरी है कि वर्तमान में सोशियल मिडिया जहाँ एक तरफ भ्रामकता से भरा पड़ा है वहीं सत्य जानकारियों से भी पटा है, सच और झूठ पहचानना आम इंशान के लिए एक चुनौती है। सोशियल मिडिया आम जागरूकता के साथ झूठ फ्रॉड और भ्रमकता में भी कोर कसर नहीं छोड़ रहा है।
दगड़्यो जीवन में महत्व ये नहीं रखता कि आप कितने जानकार हो, महत्व ये रखता कि आप कितना चरिथार्त करते हो। चरिथार्त
के परिपेक्ष्य में हम सनातनियों की शिथिलता का सबसे बड़ा कारण, मुखमुल्याज होना, डर, मेरा तो क्या वाला नजरिया, और थोता व खोटा सैक्यूलिरिज्मवाद जो दशकों से हमारे रगों में घोला गया। 2014 से जब एक राष्ट्रवादी सरकार भारत में है, सनातन हित और वर्चस्व हेतु कई फैसले हुए हैं और आगे भी जारी है। सच कहूँ पाँच दशक पर पहुँचने वाले अपने जीवन काल में पहली बार ये आभास कर रहा हूँ कि हम भी कुछ हैं, हमारा भी कोई है। लगभग विखरता टूटता सनातन एक बार फिर अपने युग में आता नजर आ रहा है और यह यात्रा अनवरत जारी रहे इसमें हम सभी सनातनियों को अपना गिलहरी योगदान देना जरुरी ही नहीं अपितु बहुत जरुरी है ।
मित्रो आपका ध्यान एक और विशेष बात पर आकर्षित करना चाहता हूँ कि देश आजादी के बाद एक समुदाय द्वारा अपने सभी जेहादों के साथ एक लघु उद्योग जेहाद की भी शुरुवात अंदर ही अंदर की गई और इसमें वे सौ फीसदी सफल भी हो चुके हैं। यह योजना अंदर ही अंदर अमल में लायी गई तथाकथित उदारवादियों के द्वारा एक तरफ हमारे कामगारों को दलित बंचित बोल आरक्षण के लॉलीपॉप में उलझाया गया दूसरी तरफ एक समुदाय ने सारे छोटे बड़े कामों पर कब्ज़ा कर लिया। अब हमें अपने ये रोजमर्रा की जरुरी सेवाओं के काम करने में हिचक और शर्म आने लगी है। किसने कहा नाई का काम ख़राब है, बड़ई का ख़राब है, बूचड़ का ख़राब है, कारपेंटर ख़राब है, पेंटर ख़राब है या मिस्त्री ख़राब है। क्या जब ये मुस्लिम कारीगर नहीं थे तो क्या हमारे ये रोजमर्रा के काम नहीं होते थे? भाई जब दुकान में जूते बेचने में शर्म नहीं आती तो बनाने में कैसी शर्म। लेकिन अपनी झूटी नाक लम्बी जो रखनी है और बेरोजगारी का रोना भी रोना है।
कर्मशक्ति हीनता का एक और पहलु अपने वोट बैंक के लिए सरकारों द्वारा मुफ्त योजनाओं का दिया जाना। जब किसी व्यक्ति को सारी चीजें मुफ्त मिलेंगी तो वह काम काहे को करेगा भाई। सरकारों को चाहिए कि मुफ्त देने से अच्छा हाथों में काम देना रोजगार देना जरुरी है तभी जाकर भारत की कर्मशक्ति बढ़ेगी और फिर हम विश्व गुरु की राह आगे बढ़ेंगे। जापान चींन इतने कम समय में कैसे इतने उपर पहुंचे, उन्होंने काम देकर अपने देश के लोगों की कर्मशाक्ति बढ़ाई।
सभी चीजें सरकार के भरोसे नहीं छोड़ी जा सकती, जीवन मेरा है तो सक्षम मुझे होना पड़ेगा। स्किल डेप्लपमेंट के लिए सरकार मौका भी दे रही है पैंसा भी, पर करने वाला होना चाहिए। कर्मशक्ति को जागरूक करने की जरुरत है, तभी हम आत्मनिर्भर बन सकते हैं।
जिसके पास रोजगार नौकरी नहीं है अपने छोटे मोटे लघु उद्योग शुरू करो और खुद का रोजगार बनाओ, जैसे मुस्लिम समुदाय के लोग कर रहे हैं। कोई काम ख़राब नहीं होता, न छोटा बड़ा। छोटे लेवल की शुरुवात एक दिन बडी होती है।
अगली बात हमारे देवभूमी उत्तराखंड की डोमोग्राफी तेजी से बदल रही है, शहर तो हाथ से जाते नजर आ रहे हैं लेकिन हमें पहाड़ों को बचाना होगा, दो पैसों के लालच में बाहरी व्यक्ति को जमीन नहीं बेचनी है। और जब तक सरकार मजबूत भू कानून पारित नहीं करती संघर्ष जारी रखना है और विशेष मुस्लिम समाज को तो बिल्कुल भी जमीन नहीं बेचनी है भाईजान अभी एक और कल पूरा कुनवा बसा लेता है, ऐसा हम अपने कई पहाड़ी कस्बों में देख रहे हैं। अब उनको वहाँ से भगाना नामुमकिन है,
देव भूमी को लव लेंड जेहाद से बचाना आज सबसे बड़ी चुनौती है, अगर ये समुदाय अपनी हरकतों से बाज नहीं आता तो पुरोला जैसा संघर्ष जारी रखना होगा ।
यह लघु उद्योग जेहाद तभी ख़त्म होगा, जब हम अपने काम खुद शुरू करेंगे, सुद्दी खीसा उंद हाथ डाळी नि होंद…।
अब आप बोलेगे अडिग जी आप संप्रदायिकता फैला रहे हो, भाई फैला नहीं रहा हूँ आगाह कर रहा हूँ। हम केवल कहने मात्र से संप्रदायिक और वो करें तो?????
दिल्ली हल्द्वानी मात्रा ट्रेलर है, पूरी पिचर 90 के दशक कश्मीर जैसी ही होगी।
सत्य है कि :-
सिद्दो लखडू अर सिद्दो मनखी सबसे पैली कटयोन्दू सीधी लकड़ी और सीधा आदमी पहले काटता है।
पड़यूँ लखडू अर पड़यूँ आदिम जल्दी सड़दो पड़ी लकड़ी और पड़ा आदमी जल्दी सड़ता है।
आधुनिक युग के सुरुवाती दौर से आज तक नजर डाली जाए तो हम हिन्दुओं का नरम रवैया ही हमारी कमजोरी रहा है। रजवाड़े अपनी ढपली अपने राग के लिए आपस में कटते रहे और दुश्मन कमजोरी का फायदा उठा अपना विस्तार करता रहा है सनातन को डूबाता रहा। देश आजादी के बाद, दोगुले, जय चंदों ने अपने बारे के गारे पीसने के चक्कर में झूटे सैक्यूलर का चौला पहनकर पूरी नईं पिढ़ीको कायर और नराधम बनाया, वो हैं भारत के यूथ ढपली बजाकर देश द्रोही नारे लगा रहे हैं यूनिवर्सिटीयों में। ये ढपली वाले क्या राष्ट्र रक्षा करेंगे जो भारत टुकड़े के नारे लगा रहे हैं। अंग्रेज बीज ऐसा ही बो कर गए कि उनके जाने के बाद उनके वर्णसंकर यहाँ लगातार सनातन पर कुठारघात करते रहते हैं। सनातन के असली विरोधी अन्य पंथ के नहीं बल्कि हमारे ये तथाकथिक उदारवादी सैक्यूलर रहे हैं।
दगड़्यो पृथवी पर मानव सभ्यता के आभिरभाव से युद्ध चलते आए हैं, पौराणिक काल से आज तक इतिहास भरा पड़ा है। मानव समाजों में अपने वर्चस्व हेतु लड़ाईयाँ होती आई हैं और आज भी अनवरत जारी है। देवयुग में पाप, अनाचार, व्यभिचार, अत्याचार और अकर्म अधर्म विनाश हेतु भगवानों ने तक हथियार उठाकर असुर अधर्म का नाश कर धर्म की स्थापना की। आज हर देश द्वारा आधुनिक तकनिकी के घातक हथियारों का विकास इसी वर्चस्व श्रेणी का एक हिस्सा है। इसी वर्चस्व हेतु जीव की एक प्रवृति अग्रेसिव होना लड़ना भी होती है। पारिस्थितिकी संतुलन कहो या पृथवी पर वर्चस्व लेकिन जानवरों में भी एक दुसरे को हानि पहुंचाने या ख़त्म करने की प्राकृतिक प्रवृति होती है। पादपों को शाकाहारी मारते हैं, शाकाहारी को मांसाहारी, और मनुष्य दोनों को।
कहने का तात्पर्य है कि अब जब ज्यों ज्यों सनातन को कमजोर करने वालों की सच्चाई सामने आ रही है हमें सचेत और जागरूक होना पड़ेगा कि आगे ऐसा ना हो जैसा पिछले शदियों और शदियों में हुआ। "मनसा वाचा कर्मणा" से अपने सनातन के लिए डटना होगा। भारत को फिर वही आर्योँ वाला विश्व गुरु भारत बनाना है। मित्रो धरती पर वर्चस्व के लिए मुख्य दो रास्ते ही सामने होते हैं या तो लड़कर जीतो या डरकर मरो।
अठाहरवीं शदी में गढ़वाल की गोरख्याणी को देखो जो लड़े वो या तो मरे या जम कर जिए, लेकिन जो कायर जंगलों में भागे वहीँ भूखों मरे।
मेरे उदाहरणो का मतलब बिना प्रयोजन लड़ना नहीं बल्कि अपने वर्चस्व एवं हकों के लिए आवाज़ उठाना, अपने धर्म संस्कृति के लिए अग्रेसिव होकर काम करना। अगर हम अपनी पीढ़ी को वेद पुराण गीता नहीं पढ़ाएंगे, अपनी सनातन मनीषा के लिए प्रेरित नहीं करेंगे तो कल कोई उन्हें बाईबल या कुरान पढ़ा देगा और ऐसा हो रहा है और हुआ है। भारत के तमाम आदिवासी ट्राईब लोग क्रीश्चयन बना दिए गए हैं, गरीब की बीबी सबकी भाभी होती है ध्यान रखना। जिनके बच्चों ने कान्वेंट में पढ़ा देखना वे कितने सनातनी हुए या अपनी धर्म संस्कृति के हुए।
मित्रो एक समृद्ध राष्ट्र हेतु शांति सबसे बड़ी उपलब्धी होती है। शांति राष्ट्र कामयाबी का पहला औजार होता है। लेकिन जब कभी परिस्थितियाँ आए तो झुकना नहीं रुकना नहीं।
मित्रो इस बार हमें ध्यान देना होगा कि राष्ट्रवादी पार्टियों को ही चुनाव में समर्थ बनाना होगा। कुर्सी पर राष्ट्रवादी रहेंगे तो फैसला भी राष्ट्रवाद के हित के होंगे। हमें आगे कई और योगी मोदी तैयार करने हैं, ताकि सनातन बचा रहे हिन्दुत्व की उम्र और लम्बी हो।
ध्यान रहे वे भरे पड़े हैं उनका कॉन्सेप्ट क्लियर है जिस दिन सरकार गई वो अपने काम पर शुरू हो जाएंगे, इतिहास के पन्ने उनकी क्रूरता से भरे पड़े हैं।
ज्यादा दूर मत जाओ कुछ साल पहले UP में सपा की सरकार के वक्त कैराना को ही देख लो आज भी वहाँ के हिन्दू अपनी बपौदी में नहीं बस पाए। यह विकास, रोजगार एक तरफ, पहले जीवन और आगामी पीढ़ी।
बल
बच्यूँ रैलो लाटो
खेंणी खालो माटो
यानी जीवन सुरक्षित रहेगा तो मेहनत करके खा लेंगे।
दोस्तों अपनी बुद्धि, विवेक, चातुर्यपन, कर्म, और भुजाओं में दम रखो रोजगार पीछे आएगा, आज मुसलमान का लड़का क्यों नहीं रोता रोजगार के लिए, वो दमख़म के साथ सीख रहा है और ठोक बजा कर कमा रहा है।
हमारा सु छिन बजार दुकान्यूँ मा लन्यौर बणी घूमणा, मोबाईल पर चिपके हैं, इन मोबाईल से नहीं होणी वाळी बाबू मावासी। कर्म करना पड़ेगा. हटगे घिसने पड़ेंगे।
डार्विन का विकासवाद का सिद्धांत याद रखो, जो ताकवर होगा वह इस धरती पर जियेगा, ताकत बुद्धिबल और भुजबल दोनो का होना जरुरी है। भगवान कृष्ण की गीता को जीवन में उतरना होगा, भगवान राम के आदर्शो व मर्यादाओं को चरिथार्त करना होगा। आचार्य चाणक्य की नीतियों पर चलना होगा।
जाय भारत, जय सियाराम
आपका
@ बलबीर राणा अडिग
बबाल वाले बबालों से निकाले गये
बबाल वाले बबालों से निकाले गये,
बिगैर जबाब सवालों से निकाले गये।
धर पकड़ तक आशा थी कुछ होने की
पकड़े जाने पर कारागारों से निकाले गये।
उदघाटन में शामिल सभी कंगूरे छपा लिए गये,
नीव पर बैठे किताबों से निकाले गए।
जमाना खेलता रहा जब तक थी हवा
हवा निकली कि कबाड़खानो से निकाले गए ।
बटुवे के बजन तक सुमिरन में था अडिग
बटुवा खाली हुआ कि ख्वाबों से निकाले गए।
©® बलबीर सिंह राणा 'अडिग'
ग्वाड़ मटई बैरासकुण्ड, चमोली
हमारा महादेव है
लय भी है, प्रलय भी है
कला भी है, काल भी है
जटाधारी, बाघम्बरी
डमरू बाजगी, त्रिशूल धारी
नील वर्ण, नील कंठ
पवित्र गंगाजल के स्रोत
विष समन कर्ता
भक्त वत्सल
जो श्रेष्ठ श्रेयकर देवाधिदेव है
वह हमारा महादेव है।
@ बलबीर राणा अडिग
गजल
बाप का रखा जीवनभर पूरा नहीं होगा,
मंजिल बिगैर सफर पूरा नहीं होगा।
कम नहीं किसी की अहमियत जीवन में,
लेकिन यकीनन माँ बिना घर पूरा नहीं होगा।
स्पंदन है सभी के दिलों में तभी तो जिन्दे हैं,
पर! संवेदनाओं बिना जिगर पूरा नहीं होगा।
अगड़म सगड़म कुचाड़ना जरा कम करो ढोल में ?
पथ्य बिना औषधि का असर पूरा नहीं होगा।
इस अंग्रेजी फंग्रेजी फूकने से नहीं छुपोगे,
उत्तराखंडी हैं तो बिना बल, ठेरा के अधर पूरा नहीं होगा।
पीठ में उठाने वालों को पीठ दिखाके अडिग।
सुख सुकून का मंसूबा मगर पूरा नहीं होगा।
8 मार्च 2024
©® बलबीर सिंह राणा 'अडिग'
शुक्रवार, 1 मार्च 2024
गजल
कुछ की हकीकत कुछ की जुबानियाँ हैं ।
इन उपत्यकाओं पर जो पगडंडियाँ देख रहे हो,
ये असंख्य बटोहियों की निशानियाँ हैं ।
हर मंजिल, तरक्की, ठाट-बाट की नीव पर,
किसी के हाथों के छाले और पैरों की बिवाईयाँ हैं।
पहाड़ के सीने पर जो ये मोहक गाँव खेत दिख रहे हैं,
यह हमारे पुरुखों की जीवंत कहानियाँ हैं।
शीत घाम बरखा सब प्रकृति की परीक्षाएं है,
डरना नहीं शिशिर के बाद बसंत की रवानियाँ हैं।
ये सफेदी, झुर्रियाँ, बलय जो देख रहा अडिग
ये किसी के लिए खपी जवानी की गवाहियाँ हैं।
©® बलबीर सिंह राणा 'अडिग'