गुरुवार, 19 जून 2025

पंचायती चुनाव : एक विमर्श



स्वच्छ व पारदर्शी चुनाव के लिए इस सवाल का जब तक संतोषप्रद उत्तर नहीं मिल जाता तब तक किसी को वोट करना एक शिक्षित व जागरूक वोटर की पहचान नहीं होती। नहीं तो मात्र भीड़ का हिस्सा बनने वाली बात है और यह पूर्व स्थिति को यथास्थिति रखने वाला उपक्रम होगा। साथ में इस सवाल के साथ ये सवाल भी कनेक्ट है कि क्या मुझे पता है कि कुशल या अच्छा नेता कौन होता है ? या कैसा होना चाहिए ? सर्वगुण सम्पन्न कोई नहीं होता, फिर भी हमारे दिमाग़ में इस सवाल का उठना और इसका जबाब जानना जिम्मेवारी का काम है। मूल विषय वर्तमान पंचायती चुनाव पर आऊं इससे पहले संक्षिप्त में जानते हैं कि कुशल राजनेता कौन होता है? एक कुशल राजनेता वह है जो:-

1.    सार्वजनिक हित में प्रभावी ढंग से काम करने योग्य हो।

2.    नीतियों को लागू करने और चुनौतियों का सामना करने के लिए उचित गुणों व कौशल का प्रदर्शन कर सके। यानि एक्टफुल और टेक्टफुल।

3.    जो स्वहित से परे हो दूरदर्शी हो ।

4.    जो प्रशासन और जनता के साथ वेहतर संवाद स्थापित करने मे सक्षम हो ।

5.    जो समय पर वेहतर डिसीजन लेने वाला हो ।

6.    जिसके अन्दर नेगोसिएटिंग स्किल अथवा सहकारिता व समझौते की क्षमता हो ।

7.    जो ज्ञान रखता हो, अपने ग्राम की, समाज की, क्षेत्र व देश प्रदेश की और अंतराष्ट्रीय परिदृश्य से वाकिफ हो तो अति उत्तम।

8.    जो समस्या सुनने वाला हो और हालात का विश्लेषण करके उत्तम निष्कर्ष निकाल सके।

9.    निःस्वार्थ व पक्षपात रहित हो ।

10.   जो व्यवसायिक नहीं भावनात्मक रूप से अपने लोगों के साथ जुड़ा रहे, खड़ा रहे।

और आखिर में  कि - जो जनता के प्रति सेवा व समर्पण की भावना रखने वाला हो और केवल भावना रखना ही नहीं उसे जमीन पर उतारने वाला हो। 

 

वैसे सफल नेता के 23 गुण बताये गए हैं, लेकिन कहते हैं किसी में 40 प्रतिशत भी गुण मैजूद हो तो वह जनता की आकांक्षाओं और अपेक्षाओं को पूरा कर सकता है। लेकिन मोटा-मोटी उपरोक्त क्वालिटी का होना जरूरी होता है नहीं तो क्या ब्वन ? जन आज तलक होयूँ तनि अगनै बि होलू, बिल्कुल सत्य है कि मैं खुद बदलाव के लिए तैयार नहीं हूँ तो और भी नहीं होंगे यह पक्का है। अच्छे बदलाव के लिए सुरूवात खुद से ही करनी होती है लेकिन आम ऐसा देखने को नहीं मिलता, आम का समाज ‘जख देखि घळकि तखि ढळकि’ वाला ही काम करता है। एक उपयुक्त नेता के लिए हमें उपरोक्त बातों का विश्लेषण स्वहित को परे रखकर करना होगा, फिर सही जबाब मिलना तय है और यह जबाब हमें उपयुक्त निर्णय लेने में मदद करेगा। यह व्यक्ति विशेष की स्वच्छ रीति और नीति होती है।

अब आते हैं मूल विषय वर्तमान पंचायति चुनाव में हमें किस किश्म के व्यक्ति को चुनना चाहिए। पंचायती चुनाव से संबन्धित नेतृत्व में प्रमुखतया ग्राम प्रधान, क्षेत्र पंचायत व जिला पंचायत सदस्य हमारे गांव व क्षेत्र के विकास की धुरी पर विराजमान होते हैं तथा इनके ठीक उपर केन्द्र में होते हैं ब्लॉक व जिला अध्यक्ष। अगर साफ आईने में देखोगे तो उपरोक्त नेतृत्व चाहे तो अपने ग्राम व क्षेत्र का समुचित विकास कर सकते हैं और करते आए हैं इसमें कोई दो राय नहीं। विकास केवल और केवल चाहत से जुडा मुद्दा है अगर सम्बंधित व्यक्ति अपने स्वार्थ को परे रखकर सरकार की विकासोन्मुख योजनाओं को जमीन में उतारता है तो वो कार्य भी संभव है जो आम जन मानस की सोच से बाहर हो। बसरते नेता के पास सही रोड़ मैप हो और पहल करने की क्षमता हो। ऐसे कई उदाहरण हमारे आस-पास हैं। विशेषकर ग्राम प्रधान की शक्तियां असीमित तो नहीं कहा जा सकता लेकिन अपने ग्राम का चंहुमुखी विकास करने के लिए पर्याप्त तो हैं ही । 

अब सवाल यह उठता है कि हम किस प्रकार के योग्य व्यक्ति को चुने जिन्होने दावेदारी ठोकी है। क्योंकि वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में आपको विभिन्न प्रकार के क्षमतावान व्यक्ति मिल जायेंगे। जैसे कि:-

1.    वह व्यक्ति जो केवल चुनाव के वक्त पोस्टर बॉय बनकर किसी अन्य व्यक्ति के फायदे हेतु वोट काटने आता है ?

2.    वह व्यक्ति जो पिछले पाँच साल तक जनमुद्दों व समाजहित कार्यों में नदारद रहता है, उसे ग्राम व क्षेत्र का विकास केवल चुनाव के वक्त नजर आता है एवं उसकी कर्मठता, ईमानदारी जुझारूपन और सुयोग्यता ऐन चुनाव वक्त ही गनडयालै के जैसे सींग बाहर निकल आते हैं।

3.    वह व्यक्ति जो बड़े नेताओं के आगे पीछे घूमता है, झंडाबरदार रहता है, जिसके ऊपर राजनीती वरदहस्त होता  उसके पास पैंसा होता है, कभी कभार विशिष्ट अथिति बनने हेतु ही गाँव व क्षेत्र में दिखाई देता है ।

4.    वह व्यक्ति जिसके पास पैंसा होता है और समाज सेवा का जज्बा भी रखता है एवं समाजहित यदा-कदा खपता और खर्च भी होता रहता है।

5.    वह व्यक्ति जो जमीन में नहीं लेकिन सोशियल मिडिया का विकासवीर होता है, और हर छोटे-बड़े राजनैतिक कार्यक्रमों में सहभागिता करना खुद का सौभाग्य बताता है। माला मंच प्रेमी।

6.    वह व्यक्ति जो दिन रात ग्राम व क्षेत्रीय मुद्दों को उठाता है और उन्हें यथासंभव शासन प्रशासन से नियोजन की कोशिश करता रहता है।

7.    वह व्यक्ति जो केवल अपने रसूख एवं धनबल पर वोट खरीदना चाहता है।

8.    वह व्यक्ति जिसके चुनावी पोस्टरों में नाम के आगे या पीछे पूर्व फलाने का फलाना लिखा होता है साथ में नेता होने के साधारण गुण व प्रेरक स्लोगन भरे पड़े होते हैं, यानि पूर्वजों के कंधों से फायर करने वाला।

9.    वह व्यक्ति जो केवल मुद्दे उठाता इम्प्लीमेन्टेशन उसकी डिक्सनरी से गायब रहता है। यानि बसग्याळी मेंढक। एक टटर्राट।

10.   वह व्यक्ति जो अपने पिछले कार्यों के बल पर मैदान में उतरता है।

11.   वह व्यक्ति जो शालिनता, संजीदगी एवं लगन से केवल और केवल समाजहित पर लगा रहता है, अपने काम का बखान नहीं करता ना ही कहीं आगे पीछे घूमता, छपास और दिखास दे दूर वह केवल समर्पण जानता है।

उपरोक्त तमाम गुणीजन चुनाव के वक्त हमें दिख जाते हैं इसमें से कुछ प्रबल दावेदारी में होते हैं और कुछ दुविधा कि पैलि त पदानचारी निथर घपरौळ ही सही। हमें किसे चुनना है यह हमारी परख व परिपक्वता व निर्भर करेगा। वैसे वर्तमान राजनैतिक चरित्र बहुत विद्रुप व दूषित हो गया है जिसमें धनबल ज्यादा प्रभावी हो रहा है।

वर्तमान वोटरों को तीन वर्गों में बांटा जा सकता है पहला तथाकथित बुद्धीजीवी वर्ग जो खुद को चुनावों से दूर रखता है कि नहीं जी मुझे चुनावों से कोई लेना देना नहीं। दूसरा आम मध्यम वर्ग जो कुछ कुछ सही निर्णय लेता है और तीसरा वर्ग वह है जो चंद पैंसों व शराब के लिए अपना वोट गिरवी रख देता है और यही लोग निर्णायक वोटर होते हैं, राजनेताओं को फोकस इन्हीं पर रहता है, लेकिन ग्रामणि परिदृश्य में देखा जाय तो यहाँ लगभग समान वर्ग होते हैं वे सही भी समझते हैं और उपर से पैंसों पर तीते दांत गाड़ भी देतें हैं, बस इन्हीं सब स्थितियों व हालातों से जगरूक होना और कराना अति आवश्यक है। जिस दिन ग्रामिण वोटर पूर्ण जागरूक होकर निर्णय लेता है तो ग्रामिण क्षेत्रों का समुचित विकास होने से कोई नहीं रोक सकता।

 

@ बलबीर राणा ‘अडिग’

 


शुक्रवार, 13 जून 2025

सब कुछ ठीक था तो कैसे कुछ भी ठीक नहीं हुआ?



जाते समय तिलक करते हुए पिताजी कहता है ठीक से जाना बेटा पहुँचते ही फोन कर देना, वहीं विदा लेते समय बीबी कहती ठीक से जाना, और हाथ हिलाते हुए बच्चे भी कहते पापा ठीक से जाना, हैप्पी जर्नी। विदा देने वाले ठीक से जाना कहते तो स्वागत करने वाले भी ठीक से आना कहते हैं। शुभयात्रा दोनों तरफ का कॉमन विसिंग शब्द होता है। यात्रा करने वाले यात्री इन सब ठीकों को ठीक से समझते हैं और ठीक से अनुपालन भी करते हैं जो ठीक हमारे काबू में होता है। लेकिन परबस, परकाबू की ठीक को कैसे ठीक किया जाय यह सदैव का यक्ष प्रश्न बना होता है, और हमारे पास विश्वास करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। पता चला कि गाड़ी के ड्राइवर ने शराब पी रखी है तो उस गाड़ी को छोड़ देंगे लेकिन ड्राइवर को झपकी आ गई या गाड़ी में तकनिकी खराबी हो गई इसकी जिम्मेवार किसकी? 

    रेलवे या विमानन कर्मचारियों की गल्ती का कौन जिम्मेवार? विमान सब तरह से ठीक होने के वाबजूद भी चंद मिनट में कैसे चकानाचूर हो जाता है, और कई जिंदगियां आकरण कालकवलित हो जाती हैं, इसे ठीक करने की ठीक जिम्मेवारी किसकी है ? इस अठीक को कौन ठीक करेगा?  जांच पड़ताल होती है कारण पता चलता है, एक्शन प्लान बनता है, पहले पहले-पहल खूब एक्शन होता है, फिर धीरे धीरे तरंग का बल धीमा हो जाता है और लापरवाही से हादसा ही नहीं आपदा आन पड़ती है, आम आदमी प्रभु इच्छा, होनी होगी मान दिल को तसल्ली देता है, तसल्ली करने के अलावा कुछ चारा भी तो नहीं बचता! सरकार मुवाबजे से पीड़ितों का मुँह बंद कर देती है, कभी कभी गुनहगार बच निकलता है, और यह चलन तब तक चलता रहता है जब तक अगली घटना नहीं होती। घटना के बाद जागना, जागकर सोना और फिर घटना पर जागना, यही तो चलता है! 

ऐसा नहीं कि जो जिम्मेवार लोग हैं वे हादसों के भुक्त भोगी नहीं होते, होते सब हैं लेकिन बिडंबना ये है कि चेतता कोई नहीं। फिर हादसों का शिकार हुए बेखबर लोग खबरों के बन जाते हैं, दुःख, श्रद्धांजलि व संवेदनाओं के मलहम से घावों को भरने का उपक्रम चलता है। सब कुछ ठीक होने पर भी कैसे  कुछ भी ठीक नहीं हुआ? इस तरह की अकाल मृत्यु का हरण हो सकता है बसरते ठीक के लिए जिम्मेवार लोग ठीक को ठीक से समझ जाएँ और ठीक को ठीक से अमल में लाऐं। नहीं तो इसी तरह सपनों के टूटने के साथ टूटते शब्दों की चित्तकार राष्ट्र को त्रासद करती रहेगी।


12 जून 25 अहमदाबाद विमान हादसे में कालकवलित आत्माओं को विनम्र श्रद्धांजलि 🙏🙏🙏


@ बलबीर राणा अडिग

गुरुवार, 5 जून 2025

छद्दमता

शूरत्व नहीं आहत है

ना शौर्य अशक्त हुआ
ना भुजबल क्षीण हुआ
ना पराक्रम निहत हुआ

हम आर्यावर्त भरत वंशी
जबड़ा फाड़के देखते हैं
छुपा हो कहीं भी अहि
बिल में घुसके भेदते हैं

केशर की पीत क्यारी
लाल जो तुमने बनायी 
शर्मिंदा है कश्यप धरा
जन्नत आंशू बहा रही

धर्म पूछ निहत्थों पर
बर्बरता मचाने वालो
सुहास सुहागिनों का
सर, सिंदूर मिटाने वालो

समसाबाड़ी पीर पंजाल
अब तुम्हें नहीं छुपाने वाला
दिया जिसने राशन रसद
वो अब नहीं बचाने वाला

माँ भारती के वीर सिपाही
क़ब्र तुम्हारी खोद रहे
देव चिनार धरती को
छद्दम विहीन कर रहे।

@ बलबीर राणा 'अडिग'

बुधवार, 7 मई 2025

ऑपरेशन सिंदूर



मिटाया था तूने सुखी-चैनों का सिंदूर,

अब तू भी मिट यही नीति यही दस्तूर,

ज़ो हमें छेड़ता है उसे छोड़ते नहीं मगरूर, 

बिखरेगा तू, होगा खंड-खंड, चूर-चूर।


बेकसूरों पर उठाया था तूने फन,

चैन से रहना ना भाया तुझसे बन,

धुनने लगा तू, बजने लगा ढम ढम,

अब ना छुप,  ना बच पायेगा  सुन,


उठा सर, कटेगा धड़, धड़-धड़,

वक्त गया, ज़ो सकता था तू पकड़,

उठा है तो गिरेगा, ही धड़ाम-धड़ाम,

गिरेगा तो चीरेगा ही चड़ाम-चड़ाम।


अभी भी हो सके तो जाग, जाग,

है सक्या सामर्थ्य तो भाग, भाग,

चल बच सकता तो बच ले आज

हम वसूलते हैं, मूल, सूद-ब्याज।


और आंधी चलेगी जलजला उठेगा,

ओर भी चहुँ ओर कोलाहल मचेगा,

काल कवलित होंगे लोग निर्दोष भी,

जिसका दंश  तू कालों तक भोगेगा।


मुँह की खाना नहीं छोड़ता तू आदत,

हरबार, करता है खुद की फ़जीहत,

हम शास्त्र के साथ शस्त्रवेता हैं जान,

रक्त का जबाब रक्त जानते हैं मान।


©® स्वराचित मौलिक 

@ बलबीर राणा 'अडिग'

बुधवार, 30 अप्रैल 2025

कहानी : दरवान दादा

 


धरम सिंह के कमरे में पहुँचते ही पिताजी हो जाते थे शुरु । 

अरे धर्मू आ गया तू, ज्यादा लेट नै कर दी रे तूने आज ? 

हाँ बाबा आज घंटा भर ज्यादा हो गया, ड्यूटी के बाद आफिस में बुलाया था साब ने, कल से एक ट्रेनिंग करानी है बल।

अरे यार अपने साब को नै समझाता है कि खाने का टेम बि होता है कुछ, बोलना पड़ता है बेटा अपने लिए, नै तो ये देसी साब लोग ऐसे ही परेशान करते रेंगे। 

धर्मू - ना पिताजी, ना। परेशानी वाली कोई बात नहीं है, फौज में ऐसा ही चलता रैता, चैबीस घंटे के नौकर जो ठैरे।

अच्छा एक बात बता कि तू पिन्सन कब ले रा है रे ? पन्द्रा साल हो तो गयी तेरी नौकरी ?

धर्मू - पिताजी कहाँ की पिन्सन अभी से ? अभी तो पन्द्रा पूरा ही हो रा है, अभी तो नायक ही बना हूँ आगे परमोशन भी लेना है और असली नौकरी की जरूरत तो अब है, ये देखो बच्चे अब पढ़ने वाले हो रहे हैं, उनकी अच्छी पढ़ाई लिखाई करानी है तभी तो ये कुछ बड़ा कर पायेंगे, नै तो मेरे जैसे सिपाई बनेंगे, अर क्या पता इनके जमाने में मेरे जैसे दस पास को फौज में नौकरी मिलती भी या नहीं। और आगे कहीं बाहर जमीन……. हल्की आवाज में बोलता और खरीदना बोलता ही नही था, एकाएक चुप हो जाता, क्योंकि इस बात पर पिताजी बहुत चिड़ जाते ठैरे, और ‘थाती हरण पूत मरण’ पर व्याख्यान सुनाने लगते। धरम चुपचाप परेड वाली ड्रेस बदलने लगता, लेकिन पिताजी अपने धुन में लगे रहते। 

अरे बाबा सब हो जाएगा। उपर वाला जिसको सर देता है उसे सेर भी देता है। देखा नै तूने कि तेरा काका और पल्ले ख्वाळा का मदनी हौलदार टेम पर आ गए थे अपने घर सकुशल। और वो पदान का लड़का लख्खू तो पन्द्रा में ही आ गया था बल, अर बोल रा था कि बोड़ा मैं नै पड़ा आगे परमोशन के चक्कर में। अब वे सभी अपनी माटी अपनी गृहस्थी में खेती पुंगड़ी को खैनी कर रहे हैं। उस मदन सिंह ने तो पचास बकरियां भी रखी हैं। अब तू ही देख पाँच साल हो गए हमको अपनी घर-कूड़ी छोड़े जब से तू हमें साथ में लाया।

खेतों के भीड़े पगार टूट गए होंगे, लोग कूणे किनारे ढंग से खोदते भी होंगे कि नै ? पता नि किस-किस को तूने खेत कमाने को पकड़ाये हैं ? तेरे पिन्सन जाने तक सब बंजर हो़ जाऐगा बाबा। वो सुगै गांव की गोशाला टूट जाएगी तब तक, मकान के अन्दर मूसौं ने कर दी होगी रैं-दैं। अरे बाबा सब बरबादी हो गई होगी। छत की पठाल सरक गई होगी, चू रा होगा जगह-जगह से, तेरा काका निकाल रा होगा या नै उन चूनों को। दार-बांसे (छत की बल्लियां) सड़ने बैठ गये होंगे, इस परमोशन के चक्कर में तेरी सारी घर-कूड़ी ने बांझ (बंजर) पड़ जानी है रे बांझ ! मेरी सुन और अकल से काम ले, तेरी पिन्सन पक गई है चल निकल, ले चल मुझे अपनी थाती में। किसने समालनी है सजवाण मवासी की उतनी बड़ी चल अचल संपति जमीन जैजाद को, तीस नाली नेट जोत है मेरे नाम, उपर से वो छानी मरुड़ों वाली जमीन अलग। उतने घास के पेड़ लगाये हैं मैने। भीमल, खड़ीक, तिमला। और देखा नै तूने हमारे तिमला के पेड़ों पर जाड़ों के बखत गांव वाले कैसे आते हैं हरे पत्ते मांगने दूध वाली गाय भैंसो के लिए। सारे सगोड़ों में फल फरूट के पेड़ अलग लगाए हैं तेरे दादा और मैने। पूरा बागवान है। आड़ू, पुलम, संतरा, नांरगी, और वो खुबांनी व अंखरोट तो तेरा दादा लाया था बल कश्मीर से। ऐरां ! आजकल पता नै कौन खा रा होगा उनको, तेरी दीदियां भी दूर हैं। लोगों के छौरे (बच्चे) उच्छयाद (हानि) कर रै होंगे। तेरा काका कितना अपीड़ हो गया रे जो एक दाणी भी नै भेजता इन नातियों के लिए, ये यां दवाई से पकाये देसी फरूट खा रहे हैं। 

बस ! तोते जैसी रटायी हुई यही एक कहानी हर दिन लगती थी दरवान दादा की, जब भी बेटा धरम ड्यूटी से क्वाटर पर पहुँचता था। एक लड़का था बुढ़ापे का, बारह पास करके फौज में भर्ती हो गया था। समय पर शादी कर दी थी, दो पोते हुए, जैसे ही बच्चे स्कूल लायक हुए धरम सिंह उन्हें गांव से बाहर शहर में ले आया था पढ़ाने के लिए।

अस्सी साल के बूढ़े पिताजी को कहाँ छोड़ता गांव में अकेला, इस लिए पोतों का वास्ता दे साथ ले आया था। कहते हैं जैसे-जैसे इन्सान की उमर बढ़ती है वैसे-वैसे लोभ ज्यादा बढ़ने लगता है। दरवान दादा उमर के इस पड़ाव में भी गांव में खेती, गाय, गोशाला बाहर भीतर रमक-धमक रहा था। बहू को गृहस्थी की हर छोटी बड़ी बातें समझाता। नाक रखकर खाना और कमर कसके कमाना सिखाता था। बेटे को साथ में चलने के लिए हरेहद मना कर रहा था कि मैंने अपना घर मुलुक छौड़ और कहीं नहीं जाना है। हमने पसीने से सींचा है इस गृहस्थी को, दिन-रात एक करके तेरी माँ और मैंने इतनी बड़ी सम्पत्ति जुटाई है। 

जमीन जायदाद पशुधन पर दिन-रात खटकने से पत्नी पैंसठ में ही गोलोक वासी हो गई थी। बहू का डोला भी नहीं देख पाई थी बेचारी। दरवान दादा की किस्मत में था संतति का सुख इसलिए अच्छे होश हवास में भोग रहा था। दो नाती गोद में खेल रहे थे। जोड़ा टूटने के बाद एक बार तो दादा टूट सा गया था लेकिन बहू के आने व नातियों की किलकारियों से फिर बृद्ध अवस्था में भी उमंग व हिम्मत छलांग लगाने लगी थी ।   

बल, बुढ़ापे का प्रेम नाती पोते, इन्हीं पोतों के प्रेम में बुढ़ापा कट रहा था इसलिए इनके बिना गांव में अकेला रहना मुश्किल क्या नामुमकिन लगा और समय के साथ समझौता करके घर की सारी माया छोड़ चल पड़ा था पोतों के पीछे। आने के दिन पोते हाथ पकड़कर आगे खींच रहे थे और दादा रुआंसा पीछे मुड़-मुड़ कर अपने गांव घर को निहार रहा था कि क्या पता दुबारा देख सकूं या नहीं इस मातृभूमि को। 

आगे दो-ढाई साल अपने ही नजदीक शहर में रहे थे वहाँ अपने ही गढ़वाली लोग थे, साथ में अक्सर गांव घर से आए लोगों से मुलाकात हो जाती थी, उठना बैठना हो जाता था। बार त्यौहार या किसी के शादी ब्याह में आना-जाना लगा रहता था। इसी बहाने घर मकान की भी देखभाल हो जाती थी। तब घर से बाहर आना इतना नहीं अखरता था। लेकिन पिछले साल जब धरम अपने साथ दूर परदेश में ले आया तो दरवान दादा को यहाँ जेल सी हो गई थी। 

बाहर घूमने जाना तो आदमियों की भीड़ में भी अकेला, निरा अकेला। किसी से बातचीत करने को नहीं बनता, पूछें तो क्या पूछें । देश परदेश के लोग, अलग बोली-भाषा, अलग खान-पान वाले, जीवन में हरिद्वार ऋषीकेश में जितनी समतल भूमि देखी थी वही मानस पटल पर अंकित था कि शहर ऐसे होते हैं, जानता था कि दुनियां बहुत बड़ी होती है, उस पहाड़ के बाद पहाड़ उसके बाद एक और पहाड़, दूर हिमशिखर, ह्यूँ चूळी कांठियां और उसके आगे नजर के उस पार भी होगा कोई अन्य पहाड़ियों का सिलसिला, खेत-खलिहान, गांव, गदेरे-नदियों का संगम। बाकी धरती का सबसे बड़ा भू-भाग समतल होता है नहीं जानता था। बस जहाँ तक नजर पहुँचती वहीं तक मानता था समतल सैंणें शहर को।   

ना ही इतनी अच्छी हिन्दी बोलने आती थी कि किसी से सुगम संवाद स्थापित कर पाता। शहर का रंग ढंग। क्वाटर पर बहू भी कितना बतियाती, वह भी अपना डीसीप्लेन, साफ-सफाई व कीचन के काम-धंधों में लगी रहती। पोते स्कूल, ट्यूशन फिर अपना खेलना-कूदना और पढ़ाई। अब वे भी पहले के जैसे कंधे में नहीं झूलते, टीबी कमप्यूटर गेम आदी आधुनिक शहरी आवो हवा में घुलने लगे थे। दादा की बात का जबाब अब गढ़वाली मे नहीं हिन्दी मिक्स अग्रेजी में देते। अब उनकी बातें भी कम समझ में आती। 

बात करने का एक मात्र साधन था तो धरम सिंह। अपने घर गांव की बात करने व दिल का गुबार निकालने का जरिया। वही हुंगरा दे हाँ में हाँ मिलाता, कुछ प्रश्नों का जबाब देता और कुछ को समझाने बुझाने की कोसिस करता कि आपके लिए कोई कमी पेशी नहीं है, आराम से खावो पीओ, अपने बुढ़ापे के दिन आराम से काटो। पर जिसकी कटनी थी उसकी कट नहीं बीथ रही थी। दिन रात एक ही मन भ्रम, घर की चिंता, अपने पहाड़ देहात की यादें। सुरम्य धरती, सदाबहार हरियाली अपनी आवो हवा का सुमिरन, स्मरण।  

यहाँ न घुघती की घुर्र-घुर्र सुनाई देती ना न्योळी हिलांस की भौंण, ना पाखों में बासते काखड़़ र्मिगों की अवाजें थी ना ही दूर जगंल में डुकरते बाग की गूँजती गर्जना डुकरताळ। यहाँ था तो लिंडेर कुतों का वक्त वे-वक्त भौं-भौं, कैं-कैं। चारों तरफ मकानों का जंगल, ऊँचे पाँच-सात मंजिला बिल्डिंगें। एक दूसरे से चिपके। भीड़ भरि गलियां सड़क। मोटर गाड़ी रिक्शा टेम्पो का शोर। दिन-रात चैं-चैं, पैं-पैं। यहाँ अपनी रौंत्याळी धार-गाड़ों की सुरसुर्या ठंडी बथौं की बयार नहीं बल्कि घ्यैं-घ्यैं घूमते पंखे से निकली वाली गर्म लू थी। धारा-मंगरो व छौयूं का ठंडा पानी नहीं, दातों को चुभता फ्रीज का वाटर था। बाँज बुराँस की घनी छाया ना बल्कि अल सुबह ही मिनट में सर तपाती धूप थी। 

बुराँस फ्योंळी के फूल देखने की खुद (याद) में दिल अक्सर अधीर व्याकुल रहता और मन हवा में उड़ता कि अभी जाऊँ और गले लगाऊँ, साँखी भिटोळी करूँ अपने उन देव फूलों की जिन्होने जीवन में लावण्य और लालित्य की परिभाषा सिखायी। इस उत्कंठा में आशा हिलोरें मारती कि कल तो चला ही जाऊँगा, मना लूंगा धरमू को। खुद में आज-आज, कल-कल करती आशाऐं सुबह सूर्योदय में ओश की बूंद जैसे चमकती और धूप के बड़ने पर समाप्त हो जाती। मधुमास बंसत की एक-आध झलक दिखती थी वो भी गमले में खिले गेंदे के फूल में। 

रोज की जीवन चर्या बारह मासी एक जैसा ऋतु चक्र हो गया था। बंद दरवाजे के पीछे अपना कमरा, बाहर जीना, सीड़ियां, छत और एक लाईन पंक्ति में बने फौजी आवसीय कालोनियों की गलियां। कुछ समय घूम-घाम कर वापस अपनी चारपाई में पीठ के बल लेटे रहना और छत पर घूमते पंखे की पुंखुड़ियों के साथ घूमना। टीवी पर चलते चलचित्र के सीन समझ में नहीं आते, किसी समय समाचार सुनना होता, या कभी कोई धार्मिक सीरियल देखता कि पोते रिमोट को कहीं और घुमाकर टोम-जैरी, डोरेमोन पर ले जाते अर दादा कहता इन भ्यास मसाणों को मत देखो बाबा, छळ लग जाएगा।  

हाँ… बस, मन लगता तो एक समय, वह समय होता पोतों का पढ़ायी करने वाला, जमीन पर बैठे दोनो हाथों को घूटनो के बाहर बांधे व हिलते हुए उनको एकटक देखना, तब वह वृद्ध आमात्य मन क्या सोच रहा होता किसी को नहीं पता होता, बस बेटे बहू व पोतों को सकून होता कि अभी चुप है। पढ़ाई करते पोतों को एकटक देखना या तो उनके अच्छे सुनहरे भविष्य के सुमिरन में खो जाना होता हो या इस बात का सकून था कि मेरे पोते मेरे सामने हैं। दोनो बातें बाराबर हो सकती। यूं ही दो साल गुजर गए शहर के उस उजले अंधियारे में। हाँ आज पिच्चासी साल के दरवान दादा के लिए अंधियारा ही था वह शहर। बसरते बेटे पोतों के लिए यह उजियारा अब एक नयें उज्जवल भविष्य की राह क्यों ना थी। 

अब धीरे-धीरे घर की चिंता व इस कैदखाने से मनोविकारों ने घेर लिया, विस्मृति मनोभ्रंश, अल्जाईमर का सिकार हो गया। एक ही बात की रटंत, बार-बार एक ही सवाल, जबाब देने पर भी वही सवाल, कभी-कभी बेटे और पोतों को ही पूछ बैठना कि आप कौन हो, कहाँ से हो ? गांव में फलाने खेत में गेंहूं कटे या नहीं, फलाने खेत में लोगों के पशुओं ने उज्याड़ खा दिया होगा। फलाने तोक में आजकल अच्छी घास हो रखी होगी। फलाने के बैल बूढ़े हो गए थे लाया या नहीं। घर कब चलेंगे ? पेन्सन ले ले। मुझे अपनी पितृभूमि में ही मरना है, पितृ शमशान में ही मेरा अंतिम संस्कार करना। तेरे साथ दूसरा कौन कंधा देगा मुझे यहां परायी भूमि में, इस परायी भूमि में नही मरना मुझे, हर दिन अपने मरने का दिन बताता। अस्पष्ट आवाज और लड़खड़ाते कदमों के साथ ऐसे ही अपनी धुन में फौज के उस पन्द्रहा बारह के कमरे में रात-दिन दादा का अपना ही लोक संसार बिचरण करता। 

आखिर एक दिन मस्तिष्क के कोष्ठकों एवं दिल के स्पंदनों में बसे अपने लोक दुनियां का सुमिरन इतना भारी पड़ा या हल्का हुआ, कि अचानक ब्रेन स्ट्रोक पड़ा। कुछ दिन अस्पताल और कुछ दिन घर पर अर्धचेतना में रहते पन्द्रहा दिन बाद प्राण वायु उसी लोक के लिए उड़कर चली गई जहाँ की रट इन पाँच सालों से लगाया हुआ था। बस छूट गई थी उस अंजान भूमि में उस काया की मिट्टी जिसका सम्बन्ध उस मिटटी से कभी रहा ही नहीं था। जीवन के आठ दशक तक जिस माटी में पैदा होने से आँख की भौंहों की सफेदी तक खपा उस माटी में उसकी मिट्टी का ना मिलना जन मानस के लिए जरूर चर्चा का विषय रहा था, लेकिन उस मातृभूमि प्रेमी चित के लिए नहीं, क्योंकि वह चिताळा (जगारूक) चित चेतना तक उस मातृ माटी के साथ ही विचरण कर रहा था। 

 

कहानी - बलबीर राणा ‘अडिग’

30 Apr 2025

शुक्रवार, 21 मार्च 2025

अडिग दोहावली : मातृभूमि वैरासकुण्ड भूमि



पंचजूनी पर्वत तले, बसा रमणीय गांव।।
मटई ग्वाड़ छाती है, मोलागाड़ा पाँव।।1।। 

दोणा भुम्याळ रक्षक है, माँ भगवती कृपाण।। 
हितमोली हीत देवा, सैणि सार है प्राण ।।2।।

दायीं भुजा महादेव, शिव शंकर भगवान
दिव्या धाम वैरासकुण्ड, जगत विख्यात नाम ।।3।।

तपोस्थली है दशानन, ऋषि वशिष्ठेस्वर नाम।।
जगत का सबसे वृहद, हवन कुण्ड विद्यमान।।4।।

इस देवांगन आंगन में, सुन्दर शोभित ग्राम।।
खलतरा मोठा चाका, वैरूं सेमा आम ।।5।। 

जन्में इस दिव्य भूमि ने, पूत सपूत तमाम ।।
तेरे लिए नहीं अडिग, कहीं पवित्र जग जान ।।6।।

जन्म थाती त्वै सत-सत प्रणाम

@ बलबीर राणा 'अडिग'

सुनो नेताजी

नेता जी गर प्रेम बरसाए हो तो, 

फिर काहे को गरबगलाए हो ।
जिन पहाड़ियों ने ताज़ पहनाया,
उन्हीं को क्यों गरियाए हो !

क्या बोले थे ये धरती किसकी ?
तुम साले पहाड़ियों की बिसात है?
तो सुनो नेता जी कान खोलकर!
ये हमारी बबोती, नहीं तुम्हें सौगात है।

सेवक हूँ हाथ जोड़ चुनाव लड़े हो, 
पहाड़ की मिट्टी पर करोड़ों में खड़े हो।
पहाड़ी की बिल्ली पहाड़ को ही म्याऊँ, 
सत्ता के नशे में जो तुम इतना तड़े हो?
सच्ची के पहाड़ी हो तो सुनो दगड़यौ,
गंगा यमुना के हो तो बिंगों दगड़यौ।

इन गालीबाजों को अब सबक सिखाना है,
बणियां-सणियों को अब नहीं बसाना है। 

भूमी हमारी भुमियाळ हमारा,
फिर क्यों नहीं भू क़ानून हमारा?
मूल निवासी हो जाएंगे प्रवासी,
गैर क्यों बनेगा मालिक हमारा?


@ बलबीर राणा 'अडिग'

5 मार्च 25

प्रेमचंद्र अग्रवाल मंत्री उत्तराखंड के पहाड़ियों को गाली देने पर