आज नजर पड़ी
बिना पांव के
उन प्रिय जूतों पर
जो पिताजी के प्रिय थे
लोकलाज
शान सम्मान के द्योतक थे,
लेकिन आज
निरा तिरस्कृत
कौने में पड़े
धूल से सने,
तलवे वैसे ही चकत्तेदार चौखट,
जैसे कि आज से
ठीक पच्चपन साल पहले
जब ये फैक्टरी से निकले होंगे,
पिताजी पहनते नहीं थे
ले जाते थे इन्हें
काख में दबाके
रस्ते भर,
ताकि गंतव्य में अगले गांव
आते ही कुछ समय पहनके
दिखा सके जूते पहनने की हैसियत,
और
आजीवन नंगे पांवों में बिवाईयां
गाड़ते रहे पहाड़ की पगडंडियों पर
मेरे लिए ।
@ बलबीर राणा 'अडिग''