धरा पर जीवन संघर्ष के लिए है आराम यहाँ से विदा होने के बाद न चाहते हुए भी करना पड़ेगा इसलिए सोचो मत लगे रहो, जितनी देह घिसेगी उतनी चमक आएगी, संचय होगा, और यही निधि होगी जिसे हम छोडके जायेंगे।
सोमवार, 15 सितंबर 2014
शनिवार, 13 सितंबर 2014
मैं हिन्दी हूँ
अतुल्य स्वर व्यजनो की तान रही हूँ
एक सभ्य समाज की पहचान रही हूँ
ठुकरायी जा रही हूँ अब अपने ही घर से
अपने नहीं अपनों के लिए परेशान रही हूँ।
अडिग हिमालय की शान रही हूँ
विश्व बन्धुत्व की मिशाल रही हूँ
शुद्ध अक्षतों में मिलावट से
पहचान अपनी नित्य खो रही हूँ।
दुत्कार की पीड़ा हर पल दुखाती
मात्र मुँहछुवाई अब नहीं सुहाती
घर की जोगणी बाहर की सिद्धेश्वरी
सौतन की डाह अब सह नहीं जाती।
राष्ट्र भाषा हिन्दी हूँ आपकी गैर नहीं
सीखो जग की भाषा उनसे मेरा बैर नहीं
मेरे देश में मेरा पूर्ण अधिकार दे दो
अस्तित्व संसार में तुम्हारा मेरे बगैर नहीं।
वर्ष में एक दिन मेरे नाम का मनाकर
कर्तव्यों की इति श्री आखरी कब तक
फिरंगी अंग्रेजी को सर्वमान्य मान कर
मेरी बेरोजगाऱी आखरी कब तक
मेरे साथ मेरी बहनों को मान देना होगा
मेरे देश में मेरी शिक्षा को सम्मान देना होगा।
रस, छंद, अलंकार की अलौकिकता मत भूलो
सूर कबीर की अमृत वाणी मत भूलो
कितने जतन से संवारा महादेवी ने
भारुतेंदु, मुंशी प्रेमचन्द का सृजन मत भूलो।
सुन लो भारत वासी मेरी पुकार
मैं हिन्दी हूँ भारत की बिन्दी हूँ
सजता है भाल भारत माँ का मुझसे
अडिग कलमकार की जिन्दगी हूँ।
रचना:- बलबीर राणा "अडिग"
©सर्वाधिकार सुरक्षित
बुधवार, 10 सितंबर 2014
कश्मीर में सैनिक की पुकार
नहीं डरे हम पत्थर और गोलियों से
नहीं खपा तुम्हारी नफ़रत की जुबानी
तुन्हें बचाना मज़बूरी नहीं फर्ज है
चाहे दहसतगर्दी हो या पानी।
#दहसतगर्दी #पानी
@बलबीर राणा
पहली जिज्ञांसा
पहली जिज्ञासा
आज भी पहली
कुछ बदला नहीं
अहसास ऊँचे उठे
मन का रंग गहरा
मंत्रणा गंभीर
चित चंचलता दीर्घ
चपलता वही
बदला तो केवल
बंधन....
जिसके कदम रस्म से चल कर
आज
अटूट कर्म यज्ञ तक पहुंचे।
@ बलबीर राणा अडिग
शनिवार, 6 सितंबर 2014
क्यों मेरा बचपन मार दिया
माँ कहती थी
अले मेरे लाल
ज्यदा उथल पुथल न कल
बहार आने के बाद
खूब नाचना
सलालत करना
हुदंगल मचाना
किलकारियां मारना
लेकिन!!!
अब आई बारी किल्कीलाने की
तो... तो !
मेरा बचपन छीन लिया
किताबों का बोझ
कंप्यूटर इंटरनेट
दुनियां का इन्साइक्लोपिडिया थोप दिया
डाक्टर, इंजिनियर
और ना जाने कितने प्रकार की
पैंसों की मशीन बनाने की जुगत
वाह रे दुनियां
दुनियां वालो
तुम्हारा लालच ने
क्यों मेरा बचपन मार दिया।
:- बलबीर राणा "अडिग"
© सर्वाधिकार सुरक्षित
गुरुवार, 4 सितंबर 2014
जीवन रेत ही तो है
जीवन रेत ही तो है.....
रेत का भरोसा नहीं
फिसलने का चलन
क्षणिक पद चिह्न
अभी !
अटल अमर पहाड़ दिखता
कल !
और कहीं होता
क्योंकि हवा संग
स्वरुप बदलने की प्रवृति है
बडना बिगड़ना
नित नयीं
मृग तृष्णा
कभी तपिस
कभी ठिठुरन
और मन तू
महल बनाने चला
लेकिन ! जीवन यही है
अडिग यही सच्चाई है।
---: बलबीर राणा "अडिग"
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