कुण्डलिया
किरीट उतुंग हिमालय, उदर महा मैदान।
सप्त सिंधु बंग थाती, भुजाएँ शक्तिमान।।
भुजाएँ शक्तिमान, हैं तट प्राची प्रतीची,
विशाल हिन्द सागर, चरण है पावन काँची।।
जागृत राष्ट्रपुरुष, भारतविशाला एलीट,
युगों से अडिग अमर, है माँ भारती किरीट।।
@ बलबीर सिंह राणा 'अडिग'
ग्वाड़ मटई बैरासाकुण्ड
लोग वे जाने पहचाने होंगे
लेकिन लगते बेगाने होंगे
खुद की अकड़ में अकड़े
खुद में ही सयाने होंगे।
बहुमेल उन्हें मेल नहीं ख़ाता
एकला अकेले रहना भाता
जब भी करेंगे बातें कुछ तो
मैं मैं उनका नजर आता
महफ़िल होगी चारों तरफ
महफिल बीच वीराने होंगे
लोग वे जाने.....
सब कुछ जानने का भ्रम होगा
नहीं कुछ अलग सा श्रम होगा
करेंगे वही जो सब करते हैं
पर, किन्तु परन्तु का धर्म होगा
मौके मतलब के महाज्ञानी
बाकी के अनजाने होंगे
लोग वे जाने.......
मानुसौं में ये अति मानुष
होते नहीं कभी संतुष्ट
अपनी ही जुगत के जागरुक
बाकी सब तरफ से अपुष्ट
मौके पर छक्के जड़ेंगे
बाकी के अंदरखाने होंगे
लोग वे जाने........
@ बलबीर सिंह राणा 'अडिग'
बिना प्रेम श्रृंगार के, नीरस जीवन धाम।
जहाँ प्रेम श्रृंगार हो, वहीं श्री कृष्ण राम।
कर्ता गुमान आए जब, कर्म कांति मलिन होय।
कर्ता में राम भाव हो, कर्म दिव्य जोत होय।।
जिंदगी कट जाएगी, कर्म करो चै विराम।
जग से जाने के बाद, स्वत: पूर्ण आराम।।
योग जतन से जग जुते, फले संजोग फूल।
शोणित चढ़े स्वेद बहे, विपत्ती शूल निर्मूल।
नीरस श्रृंगार विहीन, बिना प्रियसी प्रवास।
अधूरा है गृहस्थ यज्ञ, छवि बिना कैनवास।।
हराम राह अर्जित धन, बन जाता है भाप।
जिस वेग से आता है, उसी वेग से साफ।।
धरती माँ की गोद में, जी नमान के नीड़।
अपने अपने नीड़ को, अडिग हर इक अधीर।।
@ बलबीर सिंह राणा 'अडिग'