सोमवार, 30 जुलाई 2018

आशाओं की उमंग



कब उजलेगी दिशाएं कब छंटेगा कुहासा
कुचली हुई शिखाओं की कब जगेगी आशा
कोई जरा बता दे ये कैसे हो रहा
धुंधली तिमिर का तम क्यों बढ़ रहा
अपसय की झालर गहरी हो रही
आकंठ झोपडियों टिमटिमाती लो बुझ रही
कौन दाता इस संदीप्ति को सुला रहा
उगते हुए की जड़ जहर सींच रहा।

इस वतन के हित का अंगार मांगता हूँ
सो रही जवानियों में एक ज्वार मांगता हूँ।

बैचैन हैं हवाएं, चहुँ और हुदंगड़ है
सालीन किश्ती को बबंडर का डर है
मँझदार में है केवट ओझल है किनारा
उछलती लहरों के कुहासे में डूबा एक सितारा
नभ अनल ताप भी रह गया अब बेचारा
किस सुत ज्योति पुंज से दूर होगा अँधेरा।

इस दुर्भिक्षण के लिए एक संग्राम मांगता हूँ
धारा पर भारत की फिर वही पहचान चाहता हूँ।

कुचक्र के पहाड़ से अवरुद्ध है गंग धारा
शिथिल है बलपुंज केसरी का वेग सारा
अग्निस्फुलिंग रज  ढेर होने के कगार है
स्वर्ण धरा का यौवन अँधेरे में भटक रहा है
निर्वाक है हिमालय यमुना सहमी हुई है
निस्तब्धता थी निशा, दुपहरी डरी है।

फिर एक विकराल भीमसेन का माँगता हूँ
भ्रष्टाचारियों के जिगर भूचाल माँगता हूँ।

मन की बंधी उमंगें कब पुलकित होगी
अरमान आरजू की बरात कब सजित होगी
दुःखीया रातें आशा की किरण खोज रही
विक्रमादित्य की वसुन्धरा कराहने लगी
क्या ब्राह्मण क्या ठाकुर क्या कहार कुर्मी
लक्ष्मी कीचड़ में लिपटी बिलख रही।

गर्त में पड़ी मानवता का उत्थान माँगता हूँ
शासक अभिमन्यु, शिव जैसा तूफान माँगता हूँ।

भर गया है भयंकर भ्रष्ट टॉक्सिन हर रग में
बेचैन है  जिन्दगी  घर घर में
ठहरी हुई साँस को कौन राह दिखायेगा
गरीब घर का दीप कैसे टिमटिमायेगा
लेकिन राजनीति के इन शकुनी पांसों से
निजात मिलना आसान नहीं लगता
असंख्य दुर्योधनों के संग कुरुक्षेत्र में
कटने का संशय कम नहीं लगता।

जन्म वसुधा हित तुझसे वरदान माँगता हूँ
वासुदेव कृष्ण का फिर अंशदान माँगता हूँ।

रचना: बलबीर राणा "अडिग"
माँ वसुंधरा