मनुष्य का फर्स से अर्स पर पहुंचना
अचानक नहीं बल्कि इसके पीछे कर्मो की एक लम्बी पृष्ठभूमि होती है। अचानक तो केवल घटना
घटती है कार्य का सिद्धी पर पहुंचने के लिए उसे संघर्षों के विकट पथों को पाटना ही
होता है। इसीलिए धरती पर कर्म को प्रधान विषय कहा गया है, कर्म ही हमारा भाग्य होता
है अब भाग्य भला हो या बुरा यह कर्मों के स्तर पर निर्भर है। हाथ मन और दिल के गहरे
समन्वय से सम्पन होने वाला कर्म कलाकार वाला सुन्दर कर्म बन जाता है और वह कर्म अनुगामी
होता है पुज्यनीय बन जाता है। कहना अतिसयोक्ति नहीं होगा कि मनुष्य की सुन्दरता शाररिक
बनावट से नही बल्कि सत कर्मों पर निहीत है। सुना है विश्व के महान दार्शनिक सुकरात
का चेहरा बहुत कुरुप था लेकिन दुनियां ने उन्हें कभी कुरुप नहीं देखा, अपने एपीजे अब्बुल
कलाम भी ऐसे ही सुन्दर कर्म प्रधान व्यक्तियों में पुज्य हैं जबकि उनकी कद काठी सामान्य
भी नहीं थी।
हमारी उत्तराखंड की धरती भी न जाने
ऐसे कितने सुन्दर कर्म प्रधान पुरुषों की जन्म और कर्म भूमि रही है जिनके कर्मों ने
विश्व विरादरी का नेतृत्व किया है विशेषकर पर्यावरण के क्षेत्र में। जहाँ हमारी इस
थाती को प्रकृति ने करीने से सजाया है वहीं इसको संवारने वाले सिद्धहस्त माली भी दिये
है। प्रकृति के इन्हीं सिद्धहस्त मलियों के तरिको ने संसार को नयीं चेतना और नयीं दृश्टि
दी है, चिपको और मैती मुहिम इन्हीं में से एक है। गौरा देवी, सुन्दरलाल बहुगुणा, चन्डी
प्रसाद भट्ट, अनिल जोशी, कल्याण सिंह रावत मैती जैसे श्रेष्ठ पर्यावरण मनिषीयों से
कोई अनविज्ञ नहीं है। चिपको आनदोलन की नीव की ईंट गौरा दीदी और मैती आनदोलन के प्रेणता
कल्याण सिंह रावत जी दोनो की थाती चमोली गढ़वाल हैं। इन्हीं पुरुषों के कर्मयोग पृष्ठ
भूमि में बात करेंगे पर्यावरण संरक्षण में संजीवनी बनी ‘मैती‘ आन्दोलन के प्रेणता पदमश्री
कल्याण सिंह रावत ‘मैती‘ जी की।
वैसे तो कल्याण सिंह रावत ‘मैती‘ जी किसी नाम के मोहताज नहीं है क्योंकि
पर्यावरण संरक्षण में मैती मुहिम अब केवल उत्तराखंउ में ही नहीं अपितु देश विदेश में
अपनाया जा रहा है। ‘प्रत्क्षम् किम प्रमाणम्‘ प्रत्यक्ष के लिए किसी प्रमाण की जरुरत
नहीं होती है फिर भी विशिष्ठ व्यक्तित्व का सम्पूर्ण कृतत्वि समाज के हर नागरिक तक
पहुँचना इस लिए भी जरुरी हो जाता है कि समाज का हर व्यक्ति इन कृतत्विों से प्रेरणा
ले सके। इसी नैतिक कर्तव्यबोध से श्री कल्याण सिंह रावत जी के कृतत्विों को इस लेख
के माध्यम से सभी तक पंहुचाने का प्रयास किया जा रहा है।
श्री कल्याण सिंह रावत जी का जन्म
चमोली जिला विकासखण्ड कर्णप्रयाग, चाँदपुर पट्टी के बेनोली गांव में श्रीमती विमला
देवी रावत और श्री त्रिलोक सिंह रावत जी के घर में 19 अक्टूवर 1953 में हुआ। रावत जी
की प्राथमिक शिक्षा अपने गांवं बेनोली मे हुई, जूनियर तक की पढ़ाई उन्होने चैरासेंण
कर्णप्रयाग और कल्जीखाल पौड़ी से की व हाईस्कूल इन्टर गर्वमेन्ट इन्टर काॅलेज कर्णप्रयाग
से। रावत जी के पिताजी श्री त्रिलोक सिंह रावत जी जंगलात विभाग में फाॅरेस्टर थे और
रेंजर पद से सेवामुक्त हुए। पिताजी के चमोली सेवाकाल में उन्होने गोपेश्वर डिग्री काॅलेज
में उच्च शिक्षा के लिए एडमिशन लिया और यहीं से रावत जी ने सन् 1977 में वनस्पति विज्ञान
से पोस्ट ग्रेजुएट किया तदोपरान्त सन् 1978 मे बी एड करने के बाद शिक्षा विभाग में
वतौर विज्ञान सह अध्यापक पद से अपनी व्यवसायिक यात्रा शुरु की व वनस्पति विज्ञान लेक्चरर
पद तक सेवा दी। सेवाकाल में रावत जी ने जिला शिक्षा एवमं प्रशिक्षण संस्थान गौचर चमोली,
जिला सर्वशिक्षा समन्वयक देहरादून में भी सेवा दी साथ ही वे पहले शिकक्षक हैं जिन्हें उत्तराखण्ड अंतरिक्ष उपयोग केन्द्र देहरादून में
वतौर वैज्ञानिक डेपुटेशन पर सेवा के लिए चुना गया और इस पद पर रहते हुए उन्होने बहुत
अहम भूमिका निभायी जिसका विरिण आगे दिया गया है। इस तरह साठ साल तक सरस्वती माँ कि
सेवा करने के बाद रावत जी सन् 2014 मे सरकारी सेवा से सेवामुक्त हुए।
आम तौर पर आध्यात्म जगत में कहा
जाता है कि सन्तोषम् परम् सुखम् लेकिन जीवन में रचनात्मकता के लिए संतोष नहीं बना है
इसे अति लोलप वृति पर विराम लगाने मात्र को प्रसांगिक समझा जाना चाहिए। आदमी का सार्वभौमिक
समाजिक और व्यक्तित्व विकास सन्तोष के चलते सम्भव नहीं। भले ही रावत जी ने सरकारी नौकरी
को संतोष के रुप में अंगीकार किया हो लेकिन कर्मों को समाज के उच्च पायदान पर ले जाने
के लिए हमेसा असन्तोषी रहे और आज भी हैं असन्तोष हो भी क्यों नहीं जब उन्होने मनसा
वाचा कर्मणा से जीवन दायनी प्रकृति वर्चसव हेतु अपाना जीवन जो सर्मपित कर है। वैसे
जीवन में कुछ अलग करने का करार बचपन से नहीं था लेकिन जीवन की राहों पर चलते चलते कब
पर्यावरण के पर्याय बन गये पता नहीं चला। पेड़ पौधें से अनन्य प्रेम होने का श्रेय वे
अपने पिताजी को देते हैं क्योकि पिताजी की कर्मस्थली पर्यावरण की जड़ वन विभाग था। उनके
साथ रहते प्रकृति को नजदीक से देखने सीखने को मिला और धरती पर जीवन के लिए प्रकृति
का महातम्य समझने की चैतना जगी। रावत जी कहते हैं पिताजी से पर्यावरण और माँ से संस्कार
मिले। समाज सेवा का गुण कुछ विरासतीय तो था ही क्योंकि उनके पिताजी भी सदैव समाज के
लिए सर्मपित रहे, इमानदार छवि और समाजिकता के चलते रिटायरमेन्ट के बाद उन्हें निर्विरोध
विकास खण्ड कर्णप्रयाग ब्लोक प्रमुख चुना जाना उदाहरण के रुप में था।
मनुष्य का सामाजिक नागरिक होने के
नाते उसकी समाज में कुछ न कुछ नैतिक जबाबदेही
और जिम्मेवारियां होती हैं परन्तु आमतौर पर देखने मंे आता है कि हम अपने स्वहित
हेतु खूब जानकार और जागरुक रहते हैं लेकिन समाज के लिए ऐसा कम ही देखने को मिलता है।
संसार में आम से खास वही लोग बने जो परहित के लिए जबाबदेह हुए अर उन्होने अपने से उपर
रहते हुए पृथवी पर सुगम जीवन के लिए काम किया। श्री कल्याण सिंह रावत मैती जी भी ऐसे
ही सख्सियत हैं जिन्होने धरा पर जीवन की संजीवनी पेड़ पौधे और पर्यावरण के लिए जीवन
पर्यन्त लीग से हठ कर काम किया इसकी शुरुवात काॅलेज समय से ही हो गयी थी। रावत जी की
पर्यावरण और अन्य समाजिक कार्यों का क्रमवार विवरण निम्नवत है।
हिमालय वन्य जीव संस्थान की स्थापना और जीवों व मनुष्यों
के बीच समन्वय कार्य
सत्तर के दशक में रावत जी जब गोपेश्वर
में पोस्ट ग्रेजुएट कर रहे थे तो उस समय आस्ट्रेलिया
से वैज्ञानिकों का एक दल हिमालय जीव जन्तुओं पर रिसर्च करने आया था उनका मुख्य विषय
तुंगनाथ में मिलने वाले कस्तुरी मृग और हिम तेन्दुआ था। तब पूरा प्रसाशन और वन विभाग
उनके पीछे आवाभगत मे लगा था, रावत जी और उनके जागरुक विद्यार्थी साथियों ने कहा कि
जब बाहर के लोग यहाँ आकर रिसर्च कर सकते है तो हम क्यांे नहीं ? और इन जागरुक विद्यार्थीयों
ने वन्य जीव संरक्षण पर रिसर्च करने का प्लान बनाया। इसके लिए उन्होने एक संस्था का
गठन किया जिसका नाम “हिमालय वन्य जीव संस्थान“ रखा गया। इस संस्था के रावत जी पहले
अध्यक्ष बने और जगदीश तिवाड़ी जी सचीव। इस काम में उनके साथ पर्यावरणविद पदमश्री श्री
चन्डी प्रसाद भटट जी का भी अहम योगदान रहा। श्री चन्डी प्रसाद भटट जी संस्था के संरक्षक
थे। हिमालय वन्य जीव संस्थान बैनर के नीचे इस टीम ने सबसे पहले रुद्रनाथ बुग्याल को
गुजरों से बचाने हेतु रुद्रनाथ में धरना दिया, क्योकि उस समय गुजर लोग बहुत संख्यां
में बुग्याल आते थे और उनके भैंस बकरे बुग्यालों को तहस नहस कर देते थे। फिर इस टीम ने हर साल वन्य जीवों को बचाने के लिए गढ़वाल
के अनेक जगहों पर कैम्प लगाकर लोगो को जागरुक किया।
उस समय स्थानीय क्या बाहर के लोग
भी गढ़वाल के जंगलों और बुग्यालों में बड़ी संख्या में जंगली जानवरों का शिकार करते थे।
हिमालय वन्य जीव संस्था का यह विद्यार्थी समूह कैम्प के दौरान लोगों को जैव विवधता
के बारे में समझाते थे कि अगर आप हिरण, काखड, घ्वेडों जैसे शाकाहारी जीवों को मारेंगे
तो मांसाहारी जीवों का भोजन समाप्त हो जायेगा उनको जब जंगल में खाने को नहीं मिलेगा
तो वे घर गांव में आकर मनुष्यों का शिकार करेंगे। अगर मांसाहारी को मारेंगे तो शाकाहारी
जीवों की संख्या बहुत बड़ जायेगी और वे जंगलों से गांव में आकर हमारी फसल नष्ट कर देंगे।
इस प्रकार से उनहोने वन्य जीवांे और मनुष्यों के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयास
किया। इस जागरण प्रभाव से वन विभाग की नींद खुली, तब जाकर मध्य हिमालय के वनों से निरंकुश
जीव हत्या पर कानूनन रोक लग पाई।
चिपको आन्दोलन में भूमिका
रावत जी चिपको आन्दोलन के शुरुवाती
दौर से आन्दोलन से जुडे थे। आन्दोलन के समय पर
उनकी हिमालय वन्य जीव संस्थान टीम बड़ चड़ कर चिपको आन्दोलन के अयोजनों में भाग
लेती थी। जब चिपको आन्दोलन का स्रोत रैणी गांव वन कटान वालों से आर-पार की लड़ाई लड़
रहा था ये टीम किसी भी प्रकार की मदद हेतु
जोशीमठ में डटी हुई थी। हाँ उनकी मदद से पहले चिपको नेत्री गौरा दीदी के साथ रैणी गांव
की वीर मातृ शक्ति ने पेड़ों पर चिपक कर जंगल कटान वाले मजदूरों और उनके आंकाओं को मैदान
छौड़ने पर मजबूर कर दिया था। उस दौर में रावत जी गोपेश्वर में सामाजिक सरोकारों वाले
संगठन दशोली स्वराज्य मंडल और सर्वोदय के सक्रीय सदस्य भी रहे।
सैटर डे क्लब की स्थापना और बुंखाल कालिंका में बहुसंख्यक
बलि प्रथा पर जन जगरुकता अभियान
रावत जी जब शिक्षक के रुप में पहली
पोस्टिंग सन् 1979 में पौड़ी गढ़वाल, चैरींखाल (बुंखाल) हाईस्कूल गये तो उन्होने देखा अन्य जगहों की तरह यहाँ भी जनता
अनायास पेड़ों को काटती है लेकिन पेड़ों को लगाने का उपकर्म शून्य था। पहले कार्यकाल
से ही उन्होने इलाके के लोगों को पानी और जंगल बचाने हेतु जागरुक किया। उन्होने बच्चों
का एक सैटर डे क्लब बनाया जिसके तहत बच्चे हर शनिवार इतवार के दिन अपने आस पास के इलाके
में सफाई करना और पेड़ पौधों की सुरक्षा हेतु जागृत करने का काम करते थे। लोग अपने छोटे
निजी काम जैसे छानी छप्पर बनाना, घास के खुम्मे लगाने आदि के लिए जंगल से अच्छे पेड़ों
को कटाते थे इसे रोकने के लिए उन्होने सड़क किनारे व खाली जगहों पर सफेदा के पेड़ लगवाये
क्योंकि सफेदा कम समय में बड़ा होने वाला पेड़ था जो आमजन की पूर्ति के लिए उपयुक्त था।
जिससे मूल जंगल के दोहन का प्रयास हुआ। वहीं उन्होने स्व योगदान से स्कूल के नजदीक
गोदा गांव वालों से जमीन लेकर झुरमुट नामक जगह पर बच्चों के लिए झुरमुट नाम से खैल
का मैदान बनवाया जो आज भी स्थ्ति है।
इस कार्यकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि
बुँखाल कालिंका माता मेले में होने वाली सैकड़ों भैंसों और बकरों की बलि रोकने के रुप
में जनजागृति रही। रावत जी कहते हैं कि उस समय गढ़वाल में सामाजिक और व्यक्तित्व विकास हेतु लोगों की ज्यादा
रुचि नहीं थी लोगों पर अन्ध विस्वास रुड़ीवादिता ज्यादा हावी थी लोग अपने छोटी मोटी
आकांक्षा और अहम की पूर्ति के लिए देवताआंे का आहवान करते थे पुकारते थे, और चड़ावे
में निर्दोश जानवरों की बलि दते थे। उन्होने गांव-गांव जाकर लोगों को जीव संरक्षण का
महत्व, बलि प्रथा के दुसप्रभाव और बच्चों की शिक्षा के बारे में जागरुक किया। तब वे
समय समय पर पौड़ी से चलचित्र लाकर लोगों को ज्ञानवर्धक फिल्म दिखाते थे ताकि लोग अन्धविश्वास
और रुड़ीवाद से बाहर आ सके। ऐसे जन जागृति अभियानो का प्रभाव ये हुआ कि सन् 1883-84
तक बँुखाल में 240 के आस पास होने वाली जानवरों की बलि 40 से 50 तक आ गई थी। खैर वर्तमान
में यह बलि प्रथा पूर्ण रूप से बन्द हो गयी है।
रंवाई घाटी राजगढ़ी समाजिक जीवन का अहम पड़ाव
सन् 1984 में रावत जी की दुसरी पोस्टिंग
उत्तरकाशी रंवाई घाटी राजगढ़ी स्कूल में हुई वहाँ भी उन्होने देखा कि लोगों का जंगल
पेड़ पौधों के साथ अचरण अन्य जगह की तरह है। रावत जी ने वहाँ भी पेड़ पोधों और पर्यावरण
संरक्षण जागृति मुहिम जारी रखी। राजगढ़ी स्कूल
में उन्होने बच्चों के साथ मिलकर स्कूल की जमीन पर 45000 पोधों की एक नर्सरी
तैयार की जो उस समय शिक्षा विभाग की तरफ से सबसे बड़ी नर्सरी थी। रंवायी घाटी में रावत
जी ने एक और पवित्र वृक्ष अभिषेको कार्यक्रम की शुरुवात की जिसमें 30 मई तिलाड़ी शहीद
दिवस को आम जनमानस तक पहुंचाने और शहीदों को सच्ची श्रृद्धांजली हेतु केन्द्र में रखा
गया।
तिलाड़ी शहीद दिवस पर वृक्ष अभिषेक कार्यक्रम (सात
कन्यां, सात फेरे और सात दिन तक बारिस)
इस कार्यक्रम
की शुरुवात पर एक रोचक किस्सा है। उस वर्ष उस इलाके में भयंकर सूखा पड़ा बहुत दिनों
से वर्षा न होने से स्थानीय जनता हतोत्साहित थी, जिसके चलते तमाम गांव वालों ने वर्षा
हेतु अपने ग्राम देवताओं की डोली का चार धाम की यात्रा करायी परन्तु वर्षा नहीं हुई।
रावत जी ने इस मुहिम को एक भावनात्मक लगाव
देने की सोची। उन्होने 40 गांव के प्रधानों के साथ बैठक कर 30 मई को हर गांव को अपने
ग्राम ईष्ट देवता की डोली के साथ एक ग्राम वृक्ष लाकर राजगढ़ी बुलाया। गांव वालों को
पेड़ पहले से स्कूल की नर्सरी से दिया गया था। पेड़ के लिए पहले से हर गांव के नाम से
गड्डा बनाया गया था। 30 मई को 40 गांव के लोग बाजे गाजों के साथ राजगढ़ी आये, उस दिन
उत्तरकाशी के डी एम, डी एफ ओ और प्रसाशन के अन्य उच्चपदस्त लोग भी मैजूद थे। हर प्रधान
ने अपने गांव के नाम का ग्राम वृक्ष रोपा, गांव की सात कन्याओं द्वारा पानी के कलश
के साथ पेड़ की सात परिक्रमा करके पानी डाला। फिर तिलाड़ी शहीदों की याद में भव्य कार्यक्रम
हुआ जिसमें पूरे इलाके के 40 हजार लोग शामिल हुए थे। उस रात जब कुछ दूर दराजा के लोग
अपने घर नहीं जा पाये तो उनके रहने ठहरने की व्यवस्था स्कूल की बिल्डिंग मंे की गयी
थी और उनको राति में चलचित्र दिखाने की भी व्यवस्था की गयी। उस दिन, दिन भर आकाश में
एक भी बादल का टुकड़ा नहीं था, पर आधी रात को अचानक बून्दा बान्दी शुरु हुई और तत्पश्चात
झामाझम बारिस, जो एक दो नहीं पूरे सात दिन तक रही। अब इसे संयोग कहें या कोई चमत्कार
लेकिन सात कन्यां, पेड़ों की सात परिक्रमा और सात दिन बारिस अजब गजब सयोंग हुआ। डी एफ
ओ साहब ने भी इस चमत्कार पर आश्चर्य व्यक्त किया था।
रावत जी का मानना है कि नेक नियति
और इमानदारी से काम किया जाय तो भगवान किसी भी रुप में भी प्रकट हो जाता है। इस वृक्ष
अभिषेक कार्यक्रम का असर ऐसा हुआ कि कुछ दिन बाद रंवाई घाटि के मर्द जनानियां रावत
जी के पास पेड़ मांगने आने लग गये, रावत जी ने डी एफ ओ के माध्यम से उन्हें पेड़ भी दिलावाये
और पेड़ो को लगाने व बचाने के लिए पैंसा भी दिलवाया। पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में
अपनी भूमिका और काम की प्रेरणा श्री रावत जी राजगढ़ी को ही मानते हैं।
सच्चे सेवक के लिए सेवा सर्वोपरि
जब अंतस में सेवाभाव रच-बस जाता है तो व्यक्ति हर सम्भव सेवा के लिए
लालायित रहता है और सेवा के मौके खोजता है। रावत जी जहाँ जहाँ रहे उन्होने सेवा के
मौके खोजे और तदन्तर सामाजिक विसंगतियों के प्रभाव से आमजन को निकालने का भरसक प्रयास
किया। उस जमाने में उत्तरप्रदेश का यह पर्वतीय खण्ड शिक्षा और विकास से कोशों दूर था,
जिस कारण अन्धविश्वास रुड़ीवादिता जनमानस पर हावी था, और इस प्रभाव से रंवांई घाटी अछूती
नहीं थी लोग दुःख बिमारी का ईलाज दवायी दारु से नहीं देबता और जादू टोना से करते थे।
वैसे भी रंवाई घाटि जादू टोना और बोक्साड़ी
विद्या के लिए मानी जाती है। रावत जी बताते है कि रंवाई घाटि के लोग बच्चों पर टीका
लगाना भी बूरा मानते थे। बिमार आदमी या बच्चा झाड़ै ताडै या पूजा पाठ से ठीक हो गया
तो भगवान की कृपा, नही तो नियति मान लोग छाती पर पत्थर सह लेते थे। उन्होने लोगों को
इस कुप्रथा से बाहर निकालने की ठानी और गांव गांव मिटिंग कराकर लोगों को टिकाकरण का
महत्व व स्वास्थ्य संबन्धी बातों से जागरुक किया। इस मुहिम का ऐसा प्रभाव पड़ा कि दो
महिने बाद गांव के गांव की लाईन बच्चों के टीकरकरण के लिए स्वास्थ्य केन्द्रों और स्कुलों
में लगी। रावत जी ने उत्तरकाशी सी एम ओ से और टिकों की मांग की व पूरे इलाके में सभी
बच्चों का सफल टीकाकरण कराया। सी एम ओ साहब भी इस चमत्कार को देखकर आश्चर्यचकित हुए
नहीं रहे और उन्होने कहा कि जो काम स्वास्थ्य विभाग की टीम इतने वर्षों से नहीं कर
सकी वह एक जागरण कार्यक्रम ने कुछ महिनो में ही कर दिखाया।
पर्यावरण संजीवनी मैती आन्दोलन
अब बात करते है मैती आन्दोलन की
जिस मुहिम से कल्याण सिंह रावत जी सबके मैती बने, सन् 1988 में रावत जी की तीसरी पोस्टिंग
ग्वालदम चमोली में हुई। वहाँ भी उन्होने जीव, जड- जंगल बचाने की मुहिम जारी रखी। वन
दोहन के मामले में ग्वालदम के हाल भी अन्य पहाड़ी जगहों से अछूते नहीं थे। सरकार और
एन जी ओ वाले हर वर्ष पेड़ तो लगवाते थे पर संरक्षण के नाम पर सिफर। पेड़ सरकारी फाइलें
में हरे भरे और जमीन में सूखे तृण, बजट बटोरने और खपाने तक ही वन घनघोर दिखते हैं।
जिस जगह इस वर्ष बृक्षारोपण होता अगले वर्ष फिर उसी जहग पर पुण्य कमाया जाता। रावत
जी ने सोचा अगर ऐसे ही काम होता रहा तो हिमालय नहीं बचेगा । उन्होने सरकारी उपक्रम के इतर बृक्षारोपण को एक भावनात्मक
रुप देने की ठानी। पहाड़ क्या किसी भी समाजिक परिवेश में बेटी और माँ का रिश्ता अत्यन्त
भावनात्मक होता है विशेषकर पहाड़ी जीवन में बेटी माँ का वांया हाथ होती है, और वह जन्मान्तर
तक माँ के साथ खड़ी दिखती है। बेटी घर-जंगल, खेती-पाती सभी जगहों में माँ का मेरुदंड
बनी रहती है। बेटी की शादी के बाद सबसे ज्यादा दुःख किसी को होता तो वह माँ है। उत्तराखंड की शादियों में जिसने बेटी की डोली विदाई
का करुण दृश्य देखा हो तो वह समझ सकता है कि माँ के लिए बेटी कितनी महत्वपूर्ण होती
है। माँ बेटी की विरह वेदना को हमारे पहाड़ी खुदेड़ गीत काष्ठ हृदय को भी पसीजने में
मजबूर कर देते हैं। रावत जी ने इन्हीं भावनाओं को पेड़ बचाने की औषधि के रुप में प्रयोग
किया, जिसके तहत शादी के दिन बेटी दामाद मिलकर मैत मे एक पौधा रोपते हंै और मायके वाले
अपनी बेटी का पेड़ समझते हुए बेटी की तरह इसका संरक्षण भी करेंगे विशेषकर माँ तो उस
पौधे को मरने नहीं देगी। अगर फलदार पेड़ हो तो चार पाँच साल में फल लगने शुरु हो जायेंगे,
जब कभी भी मामाकोट में बेटी के बच्चे आयेंगे तो पेड़ के फलों का स्वाद उतना सुन्दर नहीं
होगा जितना उनका उत्साह और लगाव। और बाल मन भी भविष्य में इसी तरह अपनी शादी पर पेड़
लगाने का संकल्प लेंगे। ऐसे ही परिणय की स्मरणियता
हेतु धरती माँ के अभिषेक मैती मुहीम की अलौकि पहल से शुरु हुई। रावत जी ने महसूस किया
कि बेटी के लिए सबसे प्यारा उसका मैत यानि मायका होता है इस लिए इस मुहिम को मैती आन्दोलन
नाम दिया। यह काम उन्होने अपनी एक प्रीय छात्रा की शादी के शुभअवसर पर ग्वालदम में
शुरु किया। रावत जी का कहना है कि अगर एक गांव में एक साल में दस शादियां भी होती हैं
तो दस साल में सौ पेड़ो से सारा गांव आछादित हो जायेगा जिसके फलस्वरुप गांव में पानी
के स्रोत बचेंगेे, मवेसियों को चारा पत्ती मिलेंगी और शुद्ध हवा तो है ही, कहना उचित
होगा कि शादी के दिन लगाया गया पेड़ बच्चों के भविष्य हेतु हवा पानी का भरोसेमन्द इन्तजाम
है।
पार्वती
मंगल ग्रन्थ और मैती आन्दोलन
:-
रावत जी का कहना है कि लोग कहते हैं मैती आन्दोलन कल्याण सिंह का है
लेकिन मैं कहता हूँ कि हमारी पुण्य भारत धरती पर ऐसे काम युगों से होते आये हैं। शिव-पार्वती,
राम-सीता ने भी अपनी शादी पर पेड़ लगाये थे इसका वर्णन पार्वती मंगल ग्रन्थ में मिलता
है। मैति आन्दोलन की प्रेरणा से आज उत्तराखंड के गांव गांव क्या कस्बों शहरो में मैती
संस्थाये बन गयी हैं। इस पुण्य मुहिम ने उत्तराखण्ड में कितनी रिवाजों को बदल दिया
है जैसे शादी में जूता चुराने के एवज में दुल्हन की सहेलियां दुल्हा दुल्हन को पेड़
लगाने को देती हैं और दुल्हा पेड़ संरक्षण के लिए पैंसा दता है। आज पहाड़ क्या शहरों
में भी नव दम्पती अपने शादी में बृक्षारोपण करना स्टेटस सिम्बल मानने लगा हैं। अब तो
कतिपय जगह लोग परिवार के किसी आदमी के गुजरने पर उनकी याद में पेड़ लगा रहे हैं इससे
बड़कर आत्मीय सम्बन्ध और श्राद्धान्जली क्या हो सकती है।
सन् 1995 से शुरु हुआ धरती अभिषेक
आन्दोलन मैती, देखते देखते उत्तराखण्ड से देश, और देश से विदेश में पहुंच कर पर्यावरण
संरक्षण में पूरे विश्व का नेतृत्व कर रहा हैं। इनडोनेशिया ने तो वतौर इसे अपने कानून
में भी शामिल कर लिया है। धरती बचाने की मुहिमों के चलते श्री कल्याण सिंह रावत जी
को अभी तक अनेक सम्मानों से नवाजा जा चुका हैं इसी कड़ी में भारत सरकार ने अपने इस बृक्ष
पुत्र को सन् 2019 का सर्वश्रेष्ठ नागरिकता सम्मान पदमश्री से नवाजा।
लोक
माटी वृक्ष अभिषेक:-
पर्यावरण संरक्षण को भावनाओं से
जोड़ना कोई रावत जी से सीखे, रावत जी ऐसा ही एक किस्सा बताते हैं कि बात सन् 2003 की
है जब टिहरी डाम का काम पूरा हो चुका था और पुरानी टिहरी जल समाधी लेने की तैयारी पर
थी, पुरानी टिहरी की जगह नयीं टिहरी बस गयी थी इलाके के सभी लोग अपनी थाती के जल समाधि
होने पर दुःखी थे। इसमें जमीन के एक टुकड़े के साथ जल समाधी ले रहा था एक ऐतिहासिक नगर,
एक समृद्ध सांस्कृति विरासत व लोकभावना के साथ युगों का जीवंत इतिहास। खैर प्रभावित
लोगों को घर जमीन जैजाद एवज में मिली हो लेकिन भावनाओं की कीमत पूर्ति सायद कभी हो,
विशेषकर उस पीड़ी के लिए जिनके बचपन ने उस मिटटी में ग्वाया लगाया हो।
रावत जी
ने उस विरासत को सम्भालने के लिए एक और भावनात्मक पहल की, जिसमें पुरानी टिहरी के मुख्य ऐतिहासिक जगहों की मिटटी को थैलों
में भरकर नयीं टिहरी लाया गया और उसमें पेड़ लगाये गये। रावत जी तब डायट गौचर में कार्यरत
थे। डायट के साथी, एन एस एस छात्र संघटन और टेहरी के माटी पे्रमियां ने रावत जी की
इस पहल का साथ दिया। 20 दिसम्बर 2003 को लोक माटी वृक्ष अभिषेक कार्यक्रम किया गया
जिसमें एक विशाल जुलूस के साथ पुरानी टिहरी के पैंतीस ऐतिहासिक जगहों की मिटटी में
नयीं टिहरी भागिरथपुरम में बृक्ष लगाये गये। आज वे सब ऐतिहासिक स्थळ पेड़ों के रुप में
अमर है, विरासत को इस रुप में सम्भालने का अनोखा तरिका माटी प्रेमी ही कर सकता है।
आने वाली पीड़ी जब भी इन पेड़ों के पास जायेगी उनमें जरुर अपनी विरासत को जानने की जिज्ञाया
जगेगी।
पर्यावरण
संरक्षण संकल्प हस्ताक्षर गिनीज रिकार्ड
रावत जी ऐसे पर्यावरण प्रेमी हैं
जिन्होने सदैव पर्यावरण संरक्षण हेतु लीग से हटकर अलग काम किया। इसी कड़ी में सन्
2006 में एफ आर आई देहरादून शताब्दी वर्ष समारोह कार्यक्रम था। रावत जी ने उत्तराखण्ड
शिक्षा विभाग के माध्यम से सभी स्कूलों को चिठठी लिखी कि हर स्कूल एक मीटर हरे कपड़े
पर बच्चों के पर्यावरण संरक्षण संकल्प हस्ताक्षर कर एफ आर आई भेजें। सभी स्कूलो ने
इस पर दिलचस्पी दिखायी और आदेशानुसार कपड़ा देहरादून भेजा। शताब्दी दिवस के दिन रावत
जी ने देहरादून के विद्यार्थीयों से सभी कपडों को सिलवाया कर एक करवाया जो 2 किलोमीटर
लम्बा बना और इस पर 12 लाख बच्चों के पर्यावरण संरक्षण संकल्प हस्ताक्षर थे। पर्यावरण
संरक्षण संकल्प हस्ताक्षर के इस कपड़े से उस दिन एफ आर आई की पूरी ऐतिहासिक बिल्डिंग
लपेटी गयी। उत्तराखण्ड के तत्कालीन राज्यपाल महोदय और एफ आर आई डारेक्टर ने इस अद्धभुत
काम की भूरी भूरी प्रसंशा की। पर्यावरण सदभाव में यह काम पूरे विश्व का इकलौता काम
हुआ जिसे गीनीज बुक के लिए प्रस्तावित किया गया। लेकिन प्रशासन की उदासीनता के चलते
यह काम गीनीज बुक में रिकोर्ड नहीं हो सका। यह दो किलोमीटर कपड़ा आज भी एफ आर आई के
म्यूजियम मे संरक्षित है।
वृक्ष
भक्त मैती जी
उत्तराखंड की जिस देव भूमि में कल्याण
सिंह रावत और उनके जैसे और कितने और अनन्य प्रकृति पे्रमी हों वहाँ प्रकृति क्यों ना
उपहार के रुप में कुछ अद्धभुत दे। इसका उदाहरण था उत्तरकाशी मोरी ब्लाॅक टोस नदी के
किनारे त्योंणी किरोळी तपड़ में एशिया का सबसे बड़ा चीड़ का वृक्ष़। उस बृक्ष की लम्बाई
85 मीटर थी इस बृक्ष को तीन बार महावृक्ष की उपाधी भी मिली। यह सर्व विदित है कि जहाँ
मनुष्य धरती पर जीवन संरक्षण केन्द्र में है वहीं मनुष्य की दुर्भिक्षता जीवन नष्ट
करने के धुरी भी रही, उदाहरण यह महावृक्ष भी मानव हस्तक्षेप का श्किार हुआ। 2007 से
पहले यह महावृक्ष अपने जीवन उत्तरार्ध से न जाने कितने वर्षों से दुनियां के लोगों
का आकर्षण का केन्द्र रहा, पर्यटक हर साल काफी संख्या में इसका दिदार करने आते थे।
आदमी की लालसा कहो या कुकृत्य या
शरारत, पर्यटको में से कुछ लोग पेड़ के तने को खुरच कर उस पर अपना नाम या दिल का निशान
खोद देते थे जिसके बुरे असर से इस पेड़ पर इन्फेक्शन हो गया और वह अन्दर ही अन्दर खोखला
हो गया। रावत जी ने इसकी सूचना एफ आर आई को दी उन्होने कुछ उपचार तो किया लेकिन वह
ज्यादा कारगर नहीं हो सका। वन विभाग और पर्यटक विभाग को पता होने के बाद भी उन्होने
लोगों की इस करामात को रोकने की कोई कोशिश नहीं की। मानव हस्तक्षेप के कारण सन्
2007 में एशिया का यह महावृक्ष टूट गया। उसके बाद रावत जी और एफ आर आई के वैज्ञानिकां
ने दुबारा इसी प्रजाति के बृक्ष को इसी जगह लगाने का प्लान किया और इसके लिए इस महावृक्ष
की याद में एक जल कलश यात्रा का आयोजन किया गया जिसमें त्योंणी के आस पास के 12 गांव
के लोग बाजे गाजों के साथ शामिल थे। ऐसे काम के लिए सच्ची पीडा़ का होना अति आवश्यक
होता है जो किसी सरकारी डिर्पाटमेन्ट मे नहीं बल्कि अनन्य पे्रमी पर ही देखी जा सकती
है। आशा है कि रावत जी के रहते यह पेड़ भी विश्व महाबृक्ष की उपाधि पाऐ एक प्रकृति प्रेमी
के लिए इससे बड़ा और पारितोषिक क्या हो सकता है।
उत्तराखण्ड अंतरिक्ष उपयोग केन्द्र का सेवाकाल:-
श्री कल्याण सिंह रावत जी ने शिक्षा
विभाग में अपनी सेवा सह अध्यापक, प्रवक्ता, जिला शिक्षा एंव प्रशिक्षण संस्थान, सर्व
शिक्षा अभियान जिला काॅर्डीनेटर आदि महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। इसके अलावा रावत
जी सन् 2009 से 12 तक उत्तराखण्ड अन्तरिक्ष उपयोग केन्द्र देहरादून में वतौर वैज्ञानिक
डेपुटेशन पर सेवारत रहे। यहाँ भी उनकी उपलभ्धि अनुकरणीय रही। उत्तराखण्ड अंतरिक्ष उपयोग
केन्द्र में उपलब्धि के रुप में नन्दादेवी राज जात मार्ग का जी पी एस रुट मैप बनाना,
उत्तराखण्ड के सभी स्कूलों आंगनबाड़ी से लेकर इन्टर काॅलेजों का पहली बार जी पी एस मैपिंग,
हरिद्वार महाकुम्भ मेले में इसरो के वैज्ञानिकों के साथ सैटेलाईट सर्वीलांस जैसे ऐतिहासिक
काम रहे। इस कार्यकाल की उत्कृष्ट सेवाओं के लिए उन्हें भारत सरकार द्वारा बेस्ट साइंस
अचीवमैन्ट अवार्ड से नवाजा गया।
पर्यावरण
संरक्षण और त्रिपल एफ :-
पर्यावरण संरक्षण की पीड़ा रावत जी
मे जीवन पर्यन्त रही और अभी भी है इस पीड़ा को दूर करने के लिए वे निरन्तर आज भी देश
प्रदेश के विभिन्न जगहों का भ्रमण करते हैं और पर्यावरण संरक्षण हेतु अभिनव प्रयोग
करते रहते हैं। सर्व शिक्षा अभियान जिला काॅर्डीनेटर देहरादून के कार्यकाल में रावत
जी ने त्रिपल एफ] (FFF) Fruit For Further यानि भविष्य
हेतु फल मुहिम शुरु की इसके तहत हर टीचर को साल में एक फलदार पेड़ लगाने का था और मास्टर
जी द्वारा अपने पाँच प्रियतम विद्यार्थीयों से उस पेड़ के संभाल करने का काम। इस मुहिम
का लक्ष्य 40 हजार फलों के पेड़ और चार लाख टन फल उत्पादन का रखा गया। यह भविष्य मे
खाद्यय संकट को दूर करने का दूरगामी प्रयास था, लेकिन उनके रिटायरमेन्ट आने के बाद
यह मुहिम अन्य सरकारी मुहिमो की तरह हलन्त में चली गयी लेकिन वे कहते है अभी भी मैं
सरकार के माध्यम से प्रयासरत हूँ।
ग्राम
गंगा अभियान :-
सन्
2014 में रिटायरमेन्ट के बाद रावत जी ने प्रवासी उत्तराखण्डीयों को अपने गाँव माटी
से भावनात्मक रुप से जोड़ने के लिए ग्राम गंगा अभियान शुरु किया। इसके तहत प्रवासी भाई
बन्धू अपने पुजाघर में एक गुलक में हर दिन एक रुपया अपने गांव के नाम डालते हैं। 5
जून विश्व पर्यावरण दिवस के दिन इस गुलक के पैंसों को अपने गांव भेज देते है। इन पैंसों
के क्रियान्वयन और गाँव के बच्चों को पर्यावरण से जोड़ने़ हेतु उन्होने USERC (उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं
अनुसंधान केंद्रद्ध देहरादून के माध्यम से
गांव गांव में बच्चों का एक स्मार्ट ईको क्लब बना रखा है। यह क्लब गांव की महिला मैती
संस्था के साथ मिलकर उन पैंसों से संबन्धित प्रवासी बन्धु के नाम का पेड़ खरीदकर रोपेते
हैं, 100 रुपये बच्चे को पेड़ का संरक्षण हेतु दिया जाता और बाकी बचा हुआ पैंसा गाँव
के शिक्षा स्वास्थ्य पर लगाया जाता है। यह
मुहिम प्रवासी बन्धुओं को अपनी माटी से जोड़ने का अभिनव प्रयोग है। जगारुक पर्यावरण
प्रेमी प्रवासी बान्धव इसमें बड़ चड़ कर दिलचस्पी ले रहे हैं। इस अप्रीतम काम का सारे
राज्य में और प्रचार प्रसार की जरुरत है ताकि और भी प्रवासी भाई लोग अपनी गांव माटी
से गहराई से जुड सकें।
आगामी
त्रीपल पी (P) पाँच पेड़ पीपल योजना
सभी जानते है वर्तमान में कोरोना महामारी के चलते पूरा देश लाॅकडाउन
हो रखा है जिसके असर से प्रकृति को भी सांस लेने का मौका मिला। पर्यावरण शुद्ध हवा
पानी देने लग गयी है। भविष्य में ऐसे ही पर्यावरण के लिए रावत जी की योजना उत्तराखंड
के हर गांव में पाँच पीपल के पेड़ लगाने का है। क्योंकि पीपल आॅक्सीजन का सबसे प्रमुख
स्रोत होता है यह वृक्ष रात को भी आॅक्सीजन उत्र्सजन करता है। इस मुहिम का लक्ष्य उत्तराखण्ड
को भविष्य में स्वच्छ आॅक्सीजन हब और पर्यावरण मोडल बनाना है। इससे राज्य में देश विदेश
के पर्यटक आध्यात्म यात्रा के साथ शुद्ध हवा के लिए भी साल में एक बार यात्रा करंगे।
अगर यह कार्य सफल होता है तो राज्य पर्यटन में और वृद्धी होगी। कार्य को अमलीजामा पहनाने
के लिए रावत जी ने पीपल के पेड़ उगाने का काम एफ आर आई देहरादून में शुरु भी कर दिया
है। दूर दृष्टि का इससे सुन्दर उदाहरण और क्या हो सकता है।
अवार्ड व पुरुष्कार
पुरुष्कारों की बात की जाय तो जनवरी
2020 तक रावत जी को सरकारी व गैर सरकारी संस्थाओं से लगभग तीन दर्जन से ज्यादा पुरुष्कारों
से सम्मानित किया जा चुका है। इसमें मुख्य रुप से पदम श्री, बेस्ट साइंस अचीवमैन्ट
अवार्ड भारत सरकार, गढ़ गौरव, गढ़ विभूति, दून श्री, उत्तराखण्ड रत्न, शिवानन्द फाॅन्डेशन
अवार्ड, दधीची अवार्ड आदि लम्बी लिस्ट है। हाँ एक बात मैं जरुर कहना चाहूँगा कि उत्तराखण्ड
सरकार ने अभी तक राज्यीय पुरुष्कार हेतु रावत जी की अनदेखी की है, सरकार इस बात का
सज्ञान लेगी विश्वाष है।
जीवन में अवार्ड रिवार्ड, मान सम्मान,
पूजा प्रतिष्ठा या दंड तिरिस्कार सब कर्मो की देन है, बल, जैसे बोयेंगे वैसे काटेंगे,
जीवन आउट पुट इनपुट के सिद्धान्त पर काम करता है साहब। व्यवहार और कर्म में लठ्ठ के
बदले लठठ और प्रेम के बदले प्रेम ही मिलता है। गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते
हैं -ः
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कमर्यं पुरुषौऽश्नुते ।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ।।
हे अर्जुन खाली कर्म शुरु करने से सिद्धी प्राप्त नहीं हो सकती ना ही
कर्मों का त्याग करने से भाग्यवान बन सकते हैं। नैष्कर्म सिद्धी कर्म के साथ निरन्तर
उसके अभ्यास व अनुसरण पर ही निहीत है। “योगः कर्मसु कौशलम्“ अर्थात कर्मों में कुशलता
ही योग है और कुशलता के लिए मन कर्म वचन से कर्में में घिसना व तपना होता है तब जाकर कहीं कुछ कुशल बन सकते हैं। कुशल आदमी एकदम सफल
हो इसकी भी कोई गारन्टी नहीं, थाॅमस एल्वा एडिसन एक हजार प्रयोग के बाद ही इलेक्ट्रिक
बल्ब पर पहुंचा था। जैसे उपरोक्त उधृत है सफलता के पीछे लम्बी समयवद्धता, संयम और कर्मों
की पृष्ठभूमि होती है। ऐसे ही निष्काम कर्मों की पृष्ठभूमि से आज हमारे ‘मैती‘ जी प्रकृति,
पर्यावरण अर समाज सेवा में दुन्यां के आईकॅन हैं। रावत जी के कर्मयोग से नयीं पीढ़ी
प्रेणा लेगी ऐसा मेरा परम विश्वाष है और लम्बे आलेख का आसय भी। हम सब का कर्तव्य है
कि ऐसे पुरुषों की प्रेणा का लाभ सबको मिले ताकि और पर्यावरणविद पैदा हो सकें नही तो
ब्रह्माण्ड के अन्य ग्रहों की तरह इस धरती को भी उसर ग्रह खण्ड बनने में देरी नहीं
लगेगी।
आलेख - बलबीर सिंह राणा ‘अडिग‘
मटई चमोली
नोट : पूरा लेख श्री रावत जी के
विस्तृत साक्षात पर आधारित है।