तीक्ष्ण बाज निगाहें गड़ी हैं सीमा के इस पार उस पार
खूनी पंजो के नीचे तड़फ रहा, समदृष्ट जीवन संसार
एक इन्शान ट्रिगर थामे बैठा सीमा रेखा के इस पार
ठीक वैसा इन्शान वहाँ भी बैठा, बॉर्डर के उस पार
प्रकृति रचना पर किसका हक किसका है व्यापार
किसने खींची बर्बर खूनी रेखा, कौन है वो ठेकेदार।
किसान हल चला रहा, बैल जुते हैं इधर भी उधर भी
चहकते चुल-बुल स्कूल दौड़ रहे, इधर भी उधर भी
श्रम में मग्न मजदूर, जीवन दौड़ इधर भी उधर भी
बिलग नहीं हसरतें जीवंतता की इधर भी उधर भी
कोई बताये कौन सी बात, जिससे है यह प्रतिकार
फिर क्यों हर पल मौत का खौप, बॉर्डर के आर-पार।
कर्म साधना में लीन जिजीविषा दोनों और मस्त मौन है
अचानक गोलों के सोले से, घर उजाड़ने वाला वो कौन है
नित बुझ रहा चिराग किसी घर का, चमन सूना हो रहा
एक तरफ के जनाजे पर, ईद दीवाली का जश्न मन रहा
केवट वो पार लगाने वाला, किसी घर का होगा खेवनहार
क्यों खामोश कबीर जायसी के छंद, बॉर्डर के आर-पार
चली आ रही कल्पों से, इंसानी फनो की विभत्स फुंफकार
अपने अहम के लिए लील गयी, मनुज को मनुज की हुंकार
एक विधि से सजायी विधाता ने, गढ़ा धरती का सौम्य सोपान
बस एक कृतिम रेखा से टूटते रहे, ईशु पीर प्रभु के अरमान
तस्वीर सजाएं जग माता की, पुष्पहार चढ़ा के देखें एक बार
फिर न उठेंगी गिद्ध निगाहें "अडिग", बॉर्डर के इस पार उस पार।
रचना: बलबीर राणा "अडिग"