बुधवार, 3 सितंबर 2025

भीड़ में कौन अलग नज़र आते हैं ?



भीड़ में कौन अलग नज़र आते हैं ?
जो साधना में खुद को तपाते हैं।

प्रयोजन होते सभी के पृथक, विलग,
पर! पाते वही जो स्वयं को खपाते हैं।

मद, सियासत लोलुपता चीज ही ऐसी,
यहाँ निर्देशक भी राह भटक जाते हैं।

कुठार* भरे पड़े हैं, भ्रष्टाचार से जिनके,
वही भ्रष्टाचार खत्म करेंगे बखाते हैं।

खुद घुटनों तक जल पड़े हैं, भीतर,  
किड़ाण* कहाँ आ रही बाहर चिल्लाते हैं।

लगन की लागत पहचानने वाले 'अडिग'
अगर-मगर वाली डगर नहीं जाते हैं।

*
कुठार - भंडार
किड़ाण - बालों के जलने की गंध

@ बलबीर राणा 'अडिग' 

शुक्रवार, 29 अगस्त 2025

चौमास में



चौमास में निखरता है पहाड़
चौमास में बिखरता है पहाड़
चौमास में ही मनभावन होता
चौमास में ही उजड़ता है पहाड़

सुख-समृद्धि के उत्सव भतेरे हैं
आपदाओं के सघन घनेरे हैं
विकास की जद में आ गया जो
इस लिए कहीं भी दड़कता है पहाड़
चौमास में निखरता है पहाड़.....

बादलों को बिकरालता भा रही
रिमझिम रुनझुनता नहीं सुहा रही
फटाक कहीं भी फट पड़ने से
विनाश-त्रास से तड़फता है पहाड़
चौमास में निखरता है पहाड़.....

दहाड़ मार रोना, सिसकना, सहना
नित बाजीगरों की बाजियों में हारना
छाती बने डामों से डमता जा रहा
दुधारू गाय समझ दुहता है पहाड़
चौमास में निखरता है पहाड़.....

चौमास - वर्षा ऋतु
29 अगस्त 25 
@ बलबीर सिंह राणा 'अडिग' 

बुधवार, 13 अगस्त 2025

पहाड़ गीत

 



नहीं समझते वे पहाड़ को, 

जो दूर से पहाड़ निहारते हैं,

वे नहीं जानते पहाड़ों को,

जो पहाड़ पर्यटन मानते हैं। 

 

पहाड़ को समझना है तो, 

पहाड़ी बनकर रहना होता,

पहाड़ के पहाड़ी जीवन को, 

काष्ठ देह धारण करना होता।

 

जो ये चट्टाने हिमशिखर,

दूर से मन को भा रही, 

ये जंगल झरने और नदियाँ 

तस्वीरों में लुभा रही, 

मिजाज इनके समझने को, 

शीत तुषार को सहना होता।

 

पहाड़ को समझना है तो,

पहाड़ी बनकर रहना होता,

 

वन सघनों की हरियाली 

जितना मन बहलाती है,

गाड़ गदनों की कल-कल छल-छल,

जितना मन को भाती हैं,

मर्म इनके जानने हैं तो 

उकाळ उंदार नापना होता।

 

पहाड़ को समझना है तो, 

पहाड़ी बनकर रहना होता।

 

सुंदर गाँव पहाड़ों के ये, 

जितने मोहक लगते हैं, 

सीढ़ीनुमा डोखरे-पुंगड़े,

जितने मनभावन दिखते हैं, 

इस मन मोहकता को, 

स्वेद सावन सा बरसाना होता।

 

पहाड़ को समझना है तो,

पहाड़ी बनकर रहना होता।

 

नहीं माप पहाड़ियों के श्रम का,

जिससे ये धरती रूपवान बनी,

नहीं मापनी उन काष्ठ कर्मों की,

जिससे ये भूमि जीवोपार्जक बनी,

इस जीवट जिजीविषा के लिए,

जिद्दी जद्दोहद से जुतना होता।

 

पहाड़ को समझना है तो,

पहाड़ी बनकर रहना होता।

 

मात्र विहार, श्रृंगार रचने,

पहाड़ों को ना आओ ज़ी,

केवल फोटो सेल्फी रिलों में,

पहाड़ को ना गावो ज़ी,

इन जंगलों के मंगल गान को,

गौरा देवी बनकर लड़ना होता।

 

पहाड़ को समझना है तो,

पहाड़ी बनकर रहना होता।

 

दूरबीनों से पहाड़ को पढ़ना,

भय्या   इतना आसान नहीं,

इस विटप में जीवन गढ़ना,

सैलानियों का काम नहीं,

चल चरित्रों के अभिनय से इतर,

पंडित नैन सिंह सा नापना होता। 

 

पहाड़ को समझना है तो 

पहाड़ी बनकर रहना होता,

पहाड़ के पहाड़ी जीवन को 

काष्ठ देह धारण करना होता।

 

शब्दार्थ :-

 

गाड़-गदनेनदी- नाले

उकाळ-उंदारचढ़ाई-उतराई

डोखरे-पुंगड़ेखेत-खलिहान