बुधवार, 29 जनवरी 2020

पाँच मुक्तक : हालाते हाल


1.
अंदर से
इतना पका था कि !
बिना कुछ चुभाए
फोड़ा फूट गया।

2.
चलो ठीक हुआ
फूट गया
अब नासूर होने से
बचाया जा सकता है।

3.
जरूर बासी होगी
दही एक दिन में
इतनी खट्टी नहीं होती।

4.
पूर्वजों के कर्मो में
आने की छटपटाहट
वंशावली में दिख जाती
अकसर।

5.
अंधानुकरण से
दूषित उस शोणित का
शुद्धिकरण
विज्ञान और उच्च शिक्षा के
फिल्टर से भी
नहीं हो पाया।

@ बलबीर सिंह राणा 'अड़िग'

शनिवार, 25 जनवरी 2020

करुणा व कर्म का संवाद



बॉर्डर पर खड़े बाप से मासूम बेटे का संवाद  हुआ
प्रेम करुणा और कर्म मीमांशा पर वार्तालाप  हुआ  
मासूम बेटा   फोन पर कहता पापा आप कैसे हो
पापा बोला   मस्त  हूँ बेटा  आप  जैसे  हैं वैसे  हूँ 

एक ओर मासूम चित  कोमल करुणा  में  दग्ध था 
दूसरी ओर फौजी  जिगर  अपने आप में  मग्न  था 
बेटे ने संसारिक व्यवहार पर खूब क्षोब व्यक्त किया
वहीं बाप ने क्षोबों को निष्काम भावों में जब्त किया 

पापा ठंड नहीं लगती कैसे उन हिमघरों में रहते हो
सुना  है  हवा  पानी  नहीं  वहाँ  कैसे आप जीते हो
उन ऊतुंग शिखरों पर बोझ लिए कैसे चढ़ जाते हो 
तेज धार बर्फीले तूफानों की टीस कैसे सह जाते हो  

क्यों सह रहे हो घनघोर कष्ट वहाँ आखिर किसके लिए 
क्यों खपा रहे हो जीवन  अपना आखिर  किसके लिए
अरे   नहीं  चाहिए पापा  मुझे  महंगे गुड्डे और  खिलौने 
मम्मा को बोलूंगा नहीं मांगेगी  महंगी  साड़ी और गहने

सभी कमा रहे दो जून की रोटी अपने खेत खलियानों में 
सुख नहीं देखा अपनों का  क्यों  पड़े  उन  बिरानो में 
पापा, भारत टुकड़े के नारे यहाँ अब रोज लग जाते हैं  
सब अपनी ही रोटी के लिए एक दुसरे से भिड़ जाते हैं 

फिर क्यों किसके पहरेदार बने हो उन कांटों की राहों पर
फिर क्यों चढ़े हुए हो किसी खूनी जेहादी की निगाहों पर 
आओ पापा घर आ जाओ मुझे शहीद का बेटा नहीं होना
नहीं रहना मुझे विधवा का बेटा,  मुझे  यतीम  नहीं  होना 

मासूम बेटे की बातों को सिपाही गौर से सुनता रहा 
ममतामयी  पैगाम  मासूम  का  मन  में  गुणता  रहा
कुछ  क्षण  दिल द्रवित हो उठा मोह में  अविचल सा
प्रेम की उस  नादान  पुकार से मन  कुछ  व्यथित सा 

कुछ ठहर कर उस शूर ने फोन पर बेटे को पुचकारा
एक एक कर मासूम बेटे को फर्ज का मर्ज समझाया
यह रोटी की लड़ाई नहीं है बेटा, फर्ज है माटी का
भारत माता के पुत्र हैं हम, यह  कर्ज है थाती का 

वो बेटा, बेटा नहीं होता जो माँ के दामन को बचा न सके
वो पुत्र क्या पुत्र है, जो बाप का भुज बल  दिखा न सके 
इस  मिट्टी  में  जन्में हर  पुरुष  का ऐसा भाग्य नहीं होता 
देश पर न्यौछावर होने का सौभाग्य सबको नहीं  मिलता

बात नहीं कष्ट सहने की ये तो कुछ भी नहीं है बेटा
विटप प्रकृति की विद्रुपता झेलना कुछ नहीं   बेटा
काष्ठ बन गयी यह काया बर्फीले आग से तप कर 
अटल बन गयी देह, भारत की जय माला जप कर 

हर पल तिरंगा उठाना   लहराना सबको नहीं  मिलता 
आखरी सांस का तिरंगे में समाना हर को नहीं मिलता 
हाँ आम इन्शान की तरह जिगर हमारा भी धड़कता है
अपनो के  साथ बिताने को मन हमारा भी चहकता  है

अन्दर कुछ न कुछ चलता रहता इससे कोई नाता नहीं 
घर के अंदर की बातों से हमारा कभी कोई वास्ता नहीं 
बाहर से कोई आँख न उठे उस आँख को हमें देखना है 
ज्यों ही आँख कोई  उठे राष्ट्र पर, उसे तत्क्षण भेदना है

चन्द खरपतवारों से धान की खेती छोड़ी नहीं जाती
वर्णसंकर के डर से भाईचारे की डोर तोड़ी नहीं जाती 
गात्र  वस्त्र  पर  उगे जुओं से यूँ ही  डरा  नहीं जाता 
जुओं को फेंका जाता है वस्त्र को त्यागा नहीं जाता 

मेरी चिन्ता मत करो बेटा अपनी पढ़ाई ध्यान से करो
अभी से अपने विवेक को  सच्चे भारत ज्ञान से गढ़ो
कल तुम्हीं को अर्जुन बनना है यहाँ गांडीव उठाना है 
तुम्हीं को कृष्ण बन किसी द्रोपदी की लाज बचाना है 

मैंने तो जीवन समर्पित किया भारत माता के चरणों में 
सजा रहे भारत माँ  आँचल सुखी पुष्पों की तोरणों में 
जीवन पुरुषार्थ खोज रहा हूँ राष्ट्र क्षितिज की रेखा पर
इस लिए गर्व है मुझे अपनी  इस कर्मपथ की मेधा पर 

सैनिक जीवन दर्शन सुनकर मासूम मन विह्वलित था
कर्मयोग की परिभाषा पढ़कर अंदर से आह्लादित था 
वचन दिया पापा को, करुणा की बातें अब नहीं करुंगा
अपने जीवन की लड़ाई भी अब इसी पथ जाकर लड़ूंगा। 

@, बलबीर राणा 'अड़िग' 

सोमवार, 13 जनवरी 2020

कहानी : रामसैंणी की तेरहवीं



    

         रामस्वैंणी की तेरहवीं 
    चार प्रकार का सलाद तीन प्रकार की चरचरी बरबरी भुजी पियर अरहर की दाल, खट्टे आम का अचार, घर्रा भंग्जीर और पुदिने की चटणी, पैल्वाण भैंस की छाँस में तुमड़े का रायता, पापड, पूड़ी, सूजी, हलवा, और मीठा भात उसमें केशर भी डाल रखा था बल। खूब चखळ पखळ। सारा गाँव सपोड़ी-सपोड़ चटकारें ले रहा था छोटे बच्चे तो होंठों को भुक्की देने की मुद्रा में सी सी करते हुए पंगत से उठते उठते पतल चाट रहे थे। आहा कैसी रस्यांण आई ठैरी आज। तेरहवीं खाई तो गमुली दादी की खाई। स्वोरे भारे हो तो ऐसे हों, रामसैंणी का ऐसा प्रीतभोज पहली बार देखा। वो विचारी जीवन भर अधीती रही लेकिन उसके पुण्य ने आज पूरे गाँव को छक के धीता दिया। बल! आज तो वो लोग भी चटकारे मारते गमुली दादी की प्रशंसा और गुणगान करते नहीं थक रहे थे जिन्होने कभी उस विचारी पर गाँव के दर कर में एक ढेले की माफी नहीं दी और न उस दिन उनके पास बेचारी को एक लकड़ी देने का समय निकला। वाह रे जमाना मनखियत का आखरी सत भी हैसियत देख निभाया जाता है। पस्तो तो दूर की बात थी।
उस जमाने में व्यक्ति विेशेष की जीजीविषा जैसी भी हो लेकिन गात्र में मानव क्षति होने पर स्वोरे भारे के मर्द नमान दशगात्र में जैसे तैसे मुंड मूंडने और सुल्टे होने पहुँच जाते थे चाहे दिल्ली बम्बे देहरादून कहीं भी हो। तेरहवीं के पित्र प्रशाद के बाद ही सहज जीवन चलता था। रौत मौ ने  विधी विधान से क्रिर्याक्रम निभाया नाक का सवाल जो ठैरा। काटे में महंगा सामान दिया। बल सब समान स्टैंडर्ड,  भानी, बक्सा, छाता, रजाई-गद्दा, चादर, अंगवस्त्र । फौजी जैसे बिस्तर बन्ध पर पैक करके दिया था। भले रौत मौ ने यह कारिज नाक के लिए किया हो लेकिन उस बेचारी प्रेत का मिलन पित्रकुड़ी में पितरों के साथ तो करा दिया था। खैर गमुली के जीते जी रौत मौ ने कभी नहीं समझा कि यह हमारे कुल की विधावा दुख्यारी है। चलो स्वार्थ का भला हो कभी कभी इन्सान को पुण्य काम करने के लिए प्रेरित कर देता है। अस्सी नाली जमीन का सवाल भी इस भव्य शोक रश्म का कारण था गमुली के वारिस के तौर पर अब  मौ ही थी।
       इस तेरहवीं की धकाधूम देख बामण ज्यू भी मन ही मन बोल रहा होगा कि साल में दो चार ऐसे जजमान झटक जाये तो सुदामागिरी से मुक्ती मिल जाय। पित्रदान में एकदम जवान कलौड़ी मिली, एक साल बाद ही ब्या जायेगी। अगले महिने बामणी बौ बोल रही थी कि एरां द्यूरा सुदी लाल पाणी छाँ पीणा गोरु  बुडया ह्वेगी अजक्याल जमानु हाथ ध्वोंण पर ऐग्यों लो, क्या कन, काटा मा त खाली मरण्यां बछुरा छिन देणा, अरे़ जौं पितरों परताप तुम राजन बाजन हुँयां वूंन मथि स्या मरण्यां ग्वैरूं ढांगा चबाण क्या। पर आज गमुली दादी के काटे में तो जवान गाय मिल गयी थी, बहुत दिनों बाद आज बामणी बौजी शय्या दान सामान देख खुस नजर आ रही थी।
     हप्ते भर तक गमुली दादी के तेरहवीं के चटकारे गांव भर चले। ऐरां उस बिचारी को ‘जिन्दे में नहीं मिला मांड मरने के बाद मिला खांड’। कभी एक सुकिली रोटी नहीं चखी,  देह ने कभी दोहरा कपड़ा नहीं देखा, औंस सग्रान्द को खौंजळे से धुले बालों को कभी एक पौळी तेल नसीब नहीं हुआ रामसैंणी को कहाँ तेल कहाँ बाती। कुम्यांणी के जाने के बाद कंघी भूल गयी, एक बची पापड़ी के कंगुले के चार दांत उन उलझे बालों को संवारने मे असक्षम थे।
     गमुली दादी बचपन से स्वभाव से सीधी थी लोग गमुली लाटी से पुकारते थे, जैसे लगुली ठंगरे पें चड़ी वैसे बाप बादर सिहं गंगा नहा गया। बगल के गांव में पच्चास पार के अधेड़ सौंणु को बिवा दी, टके की शादी की उस वेचरी की डोली में बैठने की तम्मना बज्रपात हो गया था। बादर सिंह ने ठया में पैंसों के साथ जेवर ऐंठे। गमुली देह और रंग रूप में भले पदानी घर के लायक थी लेकिन बाप के लालच ने कंडाळी के झखल्यांण फेंक दी गयी। जमाना बाप भग्यान वाला था जिसकी ज्यादा बेटियां वो उतना सेठ।  सौणु की पहली पत्नी कुम्यांण से बच्चे नहीं हुए। सौणु बचपन से उटंगरी रहा जवानी में कुछ दिन कुमाँऊ में जंगलात में चपरासी रहा वहीं कुम्यांण से माया मुस्क हो गया और उठा लाया था। सूत बैंत की जैसी रही हो लेकिन बेटा इतनी दूर से ले आया तो बाप ने दुनियां का मुँह बन्द करने के लिए चार फेरे अपने ही घर में लगवाये मौ ख़्वाले को दाल भात खिलाया। कुम्यांण के घर वालों ने उसकी कोई खोज खबर नहीं की, आजकल के जैसे संचार व्यवस्था थी नहीं और आम आदमी का इतने दूर कुमाऊँ  की तल्लीरौ पट्टी से गढ़वाल के दशोली पट्टी सहज आना जाना सम्भव नहीं था। कुम्यांण का असली नाम पार्वती था कुम्यांण नाम कुमाँऊ की होने से हो गया। तब अकसर गांव में लोग ऐसे ही स्थान विषेश पर बहुओं के नाम रख देते थे आजीवन वही निक नेम उनकी पहचना बन जाती।  जैसे नागपुर की नागपुर्या, सलाण की सलाण्यां, रामणी की रम्वाळी, सेमा की स्यम्वाळी, फरखेत की फर्खत्या इत्यादी।
        कई उच्यांणा परखणा पूजा पाठ नीम हकीम के बाद भी कुम्यांण की गोद हरी नही हुयी, कुन्डली मे पुत्र योग लिख था दोनों ने कुन्डली के चक्कर में मुंडली नहीं देखी पच्चास पहुंचने के बाद होश आया की दुसरी शादी का भी विकल्प है। दोनो की राजामन्दी से सौंणु ने पल्ली गांव के बादर सिंह को लालच दे कर जवान गमुली को आस औलाद के लिए ब्या लाया। दो एक साल तो सौतन कुम्यांण का ब्यवहार नयीं गाय के नौ पुळै घास जैसा रहा, लाटी ब्यंगणी जैसे भी है काई बात नहीं जवान है आस औलाद हो जाये तो जशीली रहेगी, पर सौंणु की कमी के कारण इस पुंगड़े में भी बीज नहीं जमा। गुस्से और निराश होकर सौणु कुंडली को कानधार रखके आया था। बेचारी गमुली भी औती की जमात में खड़ी कर दी गयी। पुरुष प्रधान समाज में औरत ही दोषी होती है मर्द का घुटने तक जल जाने पर भी किराण नहीं आती है । 
      जब पुरानी को लगा कि अब कोई आशा नहीं बुड्ढा थोबड़ा रखने लायक ही रह गया तो वह सौतन वाली चाल में आ गयी, आजकल का कहें तो लव मैरिज थी मालिक पर पूरा कंट्रोल था, गमुली ठैरी सीधी लाटी एकदम खस्यांण मोहनी कला का जैसे उससे जनमो का बैर हो। गाँव किसी जवान लड़कों ने गमुली बांद क्या बोल दिया कि उसके तीन पीढ़ी के पितरों की पूजा करती थी। शादी के बाद सौणु मात्र रात्रि एक पहर का साथी रहा बाकी दाम्पत्य लावण्य में जिठाणा ही समझो। सौणु भी क्या प्रेम करता उसने तो बच्चे पैदा करने की मशीन खरीदी थी। अब गमुली कुम्यांण की अंगुलियों नचाती रहती अंदर बाहर, घर बण सब जगह जा लाटी फलाणा काम कर। बेचारी गमुली नियति मान सब सहती रही करती रही कभी किसी के मुँह नहीं लगी किसी को आँख उठाकर नहीं देखा। माँ बाप ने विदा करते समय समझा बुझा के कहा था भगवान ने तुझे खूब खस्यांण जैसा बनाया है खूब काम करना ससुराल में हमारी नाक मत काटना स्त्री सत पर रहना। सौणु और कुम्यांण दोनों झण औलाद के दंश में कुछ साल बाद एक एक कर अन जल तौड़ गये।  जैसा भी हो ”सूनी गुठ्यार से मर्खू बल्द भला” गमुली जवानी में ही रामस्वैंणी (विधवा) हो गयी। उस जमाने में रामस्वैंणी का जीवन घींघारू के कांटों की राह थी। आज की तरह कहाँ राम राज्य? विधवा पेंशन  सस्ता गल्ला पल्ला अलग। 
      जवान विधवा पर कई इक्वांणों (विधुरों) के रिश्ते आये कि दोनो का जीवन संवर जायेगा लेकिन गमुली माँ बाप को दिये बचन से टस से मस नहीं हुई। अनुसुया, रामी बौराणी की धरती की नारी जो ठैरी। पहाड़ की पहाड़ जैसी नारी ने अडिग रहते हुए जीवन की गाड़ी अकेली खींची और जीवन के आखरी संध्या तक उस घर को धुवाँ लगाती रही। सौणु के हिस्से में जमीन तो बहुत थी लेकिन ज्यादातर ढौ ढंगार वाली थी जहाँ मेहनत ज्यादा अनाज कम उपर से खौ-बाग, गुणी बन्दरों का राज था। सायद इसी जमीन बदले आज स्वोरे भारों ने क्रियाकर्म में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी या लोक लज्जा भारी रही हो। जो भी हो मुंडीत होने का फर्ज अच्छी तरह निभाया था साब रौत मौ ने।
     भगवान ने गमुली को जैसा ढिलढौल काया दी वैसी हिम्मत और सहन शक्ति भी, पत्थर की छाती ने लोगों का जमकर बोल किया और नाक के साथ अपने हीस्सै की जमीन खैनी (आवाद) रखी। बोले ने गमुली को समय से पहले ही गमुली दादी बना दिया था। पूरे गाँव में गमुली दादी काम और माजक मसखरी दोनो का पर्याय बनी रहती, हर कोई छोटा बड़ा दादी के साथ मसखरी कर था। सत इतना कि  दरवाजे पर आये को खाली हाथ नहीं जाने दिया चाहे रात को तवा रीता क्यों न रहे। डो डड्वार लेन देन जोगी जगम दुनियां की देखा-देखी खींचमखींच निभाती रही। गाँव मे लोगों के हर सुख दुःख को अपना समझ निभाती थी किसी की शादी ब्याह में तो दादी स्याह पटटा के दिन से द्वार बाटे तक मदद करती थी। लेकिन समाज की हमेसा से बिडम्बना रही कि सीधे लोगों को समाज ज्यादा उलाहवना देता है और उन्हें बिना बात के तिरिस्कृत होना पड़ता है। क्योंकी सीधे लोग हाजिर जबाबी नहीं होते किसी के मुँह नहीं लगते। कहा भी जाता कि सीधा व्यक्ति और सीधा पेड़ पहले काटा जाता है। औंछे लोगों के तीखे वाण भी खुब सहे। ‘ये रांडो मुख कख बटिन दिखिन सुबेर सुबेर’, ‘चल जा अभी कल आना कहाँ से आ जाती शुभ कार्यों में सबसे पहले’ आदि। दुनियां की सीरत सुरत उपर वाला नहीं बदल सकता वो बेचारी क्या बदलती अपने बैल की मार खाये जैसे चुप सहती रहती थी।
विधवा जीवन के विकट शूलों में सतित्व की परिक्षा में आजीवन प्रथम रही। उजड़े गृहस्थ में विधवा विलाप को अनहद बना मग्न मौन रही। अरे मायाबी उपर वाले किसी की किसमत पार्कर पैन से किसी की कच्ची पेंसिल से? तेरा भी अजीब कृत्य है, कुछ तो “अदळा बुस्यैला” कर देता उसके जीवन में। इन्शान को किये का सिला ना मिले तो इन्शान टूटने के साथ बिखर जाता है लेकिन वो क्या बिखरती एक जान एक शरीर दिनभर थकी मारी रात कम्बल के अन्दर कठ्ठे घुटने सुबह दिवाकर की पहली किरण के साथ सीधे होते। उसके कर्मो का परारभ्द्ध जीवनभर जेठ दुपहरी सूखता रहा पूस की रात ककडा़ता रहा। आठ बच्चों की गोठ के बीच जन्म, बाप के लालच का बुढे बैल के साथ बाँधना उपर से बिना दोष के बाँझपन की पैनी छुरी मिलना। किश्मत ने भरे स्तनों से दूध रिसाने का मौका ही नहीं दिया, छाती के उभार जितनी तेजी से किशोरवय में उभरे उतनी तेजी से जवानी के मध्य में सिकुड़ने पर मजबूर हो गए। और वह क्षत्रांणी जीवन की लड़ायी नूरा नांग के जसवंत के तरह पिचहत्तर पूस की रात अकेली लड़ती रही। आखरी दिन जुखाम की शिकायत हुई दिनभर घर गुठयार का काम निबटाया शाम को रोटी बनाने की हिम्मत नहीं आयी भूखे पेट घुटने फोल्ड कर लेट गयी, दूसरे सुबह घाम खूब आने पर जब सरुली गाय खूब रंभाने बैठ गई तब कहीं पड़ोसीयों ने सज्ञान लिया। अंदर देखा बुढली उस अनन्त लोक में चली गई जहाँ अब उसे कोई दुत्कारने वाला नहीं होगा सायद वहाँ उसके किये का सिला मिल जाय। भगवान को सत्यनिष्ठ आदमियों के साथ इतना न्याय करते तो देखा कि बुढ़ापे में जीर्ण बीमारी से कुकर्म नहीं होने देता, इसलिए गमुली को भी चलते चलते उठा ले गया था नहीं तो गमुली जैसी निराश्रय का जीर्ण बीमारी भोगने पर क्या हाल होता।  सब अपना अपना भाग्य है साब,  किसी का जीवन 'तैला तपड़ किसी का शीला छप्पर'। वैसे आम इन्शानी नियती रास्ता बदली करना या रास्ता छोड़ने का ज्यादा दिखता है पर उस मूर्ति ने न रास्ता छोड़ा न बदला था "एक राह एक डगर, अड़िग रहेंगे जब तक है जिगर" को चरिथार्त करती रही । खैर उसकी तेरहवीं ने आज सबके कंठ और दिल के स्पन्दन खोल तो दिए थे लेकिन तेरहवीं हजम होने के बाद लोगों के कंठ फिर और कभी कहीं  खुलते रहेंगे लेकिन उस रामस्वैंणी हेतु संवेदना रुपी खुले स्पंदन अब हमेशा के लिए बंन्द हो जाएंगे ऐसा नियति कहती है। 

@ बलबीर राणा 'अडिग'

गढ़वाली शब्दों का अर्थ
रामसैंणी-पति मरने के बाद जिसका मालिक राम हो (विधवा)। सैंणी-पत्नी। चरचरी बरबरी भुजी-चटबटी सब्जी। घर्रा-घर का। पैल्वाण-पहली बार ब्यायी। तुमडे-कद्दू का। चखळ पखळ-रेलम पेल।  रस्यांण-खाने का आन्नद। भुक्की - चुम्मा। ठैरा और बल - पहाड़ी तुकांत शब्द। स्वोरे भारे-गोत्र के भाई बन्ध। पस्तो-शोक मद।  मौ-परिवार वाले। पित्रकुड़ी-पूर्वजों के नाम का पत्थ्र रखने वाला छोटा हट। कलौड़ी-जवान गाय। बामण ज्यू- पंडित जी।  सूट बैंत -कुल गौत्र। बामणी बौ-ब्राहमिण भाभी।  काटे-शîया दान।  सुकिलीरोटी-गेंहूँ की राटी। खौंजळे-भीमल के पेड की टहनियों से निकलने वाला साबुन। पौळी-पाव। कंगुले-कंघी। लगुली-बेल। ठंगरे-बेल के सहारे को लगाई बड़ी टहनी।  टके की शादी-बिना दहेज की शादी जिसमें लड़के वालों को लड़की के एवज में पैंसे देने होते थे। ठया-लड़की के बदले का पैंसा। झखल्यांण-झाड़ी। कंडाळी-बिच्छु घास। भग्यान-भाग्यवान। उच्यांणा परखणा-देवता के निमित वचन रखना। पुळै-घास के गठ्ठे। लाटी ब्यंगणी-सीधी साधी। घुण्ड घुण्ड फुक्येण - घुटने तक जलना। किराण-जलने की बू। बांद-खूबसूरत। जिठाणा-जेठ। पुंगड़े-खेत। खस्यांण-मोटी तगड़ी। झण-दम्पति। गुठ्यार-गोशाला। मर्खू बल्द-मारने वाला बैल। घींघारू-एक जंगली पहाड़ी फल जिसके कांटे तेज नुकीले होते हैं। बोल-दुसरों का काम या मजदूरी। खौ-बाग-जंगली जानवर। गुणी-लंगूर। रौत मौ-रावतों का परिवार। डो डड्वार-हर फसली पर ब्राहमणों को दिये जाने वाला अनाज। स्याह पटटा-हल्दी हाथ का दिन। द्वार बाटे-दुबारा वापसी का दिन। “अदळा बुस्यैला”- कुछ न कुछ, गोठ-गोशाला।   

शनिवार, 11 जनवरी 2020

ढपली वाले कौन हैं तुम


बोलो ढपली वाले कौन हैं तुम
आजाद देश में आजादी
मांगने वाले कौन हो तुम

किसकी तुम ढाल बने हो
किसकी तुम पाल बने हो
हो किसके कवच प्यारो
कौन है अन्दर बतावो यारो
किसके लिए हथियार बने हो
अरे किसके लिए बन रहे हो बम
बोलो ढपली वाले कौन हो तुम

ढूंढो पहचानो उस मदारी को
देश युवावों के जुवारी को
समझो समझाओ उस विचार को
कु बुद्धि विवेक विकार को
फिर टुकडे भारत का करने का
कौन भरा रहा कुकृत्य धम्भ
बोलो ढपली वाले कौन हो तुम

कुतर्क भवनाओं से लूट रहे हैं
किसी बाप के सपने टूट रहे हैं
कैसे जिम्मेवार बनेगा वो भारत का
जिस पर राष्ट्रद्रोही फफोले फूट रहे हैं
कैसी आजादी किसकी आजादी
किसका जाल किसका है भ्रम
बोलो ढपली वाले कौन हो तुम

सिपाही सीमा पर खप रहा है
किसान खेतों में तप रहा है
उद्यमी कर्मों में मगन मूल हैं
व्यापारी व्यापार में मगसूल है
मनुज मनुज धर्म निभा रहा हैं
हर जन कमा के खा रहा है
फ्री खाके उल्टी करने वाले कौन हो तुम
बोलो ढपली वाले कौन हो तुम

नहीं चलेगी तुम्हारी तान
नहीं बजेगा तुम्हारा गान
अखंड भारत है अखंड ही रहेगा
भारत माँ मुकुट यूँ ही सजेगा
नक्शल रहेगा जेहादी
गाते है जो भारत बर्बादी
मुठ्ठीभर कुचले जायेंगे नहीं है गम
बोलो ढपली वाले कौन हो तुम।

@ बलबीर सिंह राणा 'अडिग'


सोमवार, 6 जनवरी 2020

बणाग का खलनायक : चीड़




“नि होन्दू  पिरुळै डांग, नि लगदी यू निर्भागी बणाग”
चीड़ पर नीड़ नहीं  हुआ करते हैं क्योंकि प्रकृति ने अपने आचरण को समझने के लिए इंशानो से ज्यादा समझ  विहगों को दी है उन्हें पता होता है कि चीड के बृक्ष पर हमारे नीड़ों को  संभालने का न सऊर हैं न सामर्थ्य  ना ही समझ, बसंत के बाद इसकी छिछेली पत्तियां भी इसे छोड़कर कुछ दिनों के लिए इसको ठंगरा (ठूंठ) बना देता है इसलिए कोई भी नभचर चीड पर  अपना घौंसला नहीं बनता, क्योंकि उन जातकों को भी पता है एक दिन यह नग्न हो जायेगा और मेरे घर को भी  नग्न कर देगा, और पता नहीं  किस दिशा और देश से क्रूर बाज के पंजे मेरे पौथुलों (चूजों) को दबोच लेगा। अगर बाज की निगाह से बच भी गए तो कुछ दिन बाद इसकी झड़ी हुई पत्तियां क्रुद्ध होकर दवानल के रूप में मेरी संतति को भष्म कर देगा।
  यह दंश केवल पक्षियों का ही नहीं उन तमाम  पशुओं का भी है जिनका अपना भव्य संसार जंगलों में बसता है। मध्य हिमालय के उत्तराखंड में करीब 16 फीसदी भूमि पर अकेले चीड़ के जंगल हैं बन वैज्ञानिकों के अनुसार उत्तराखंड में चीड़ का आविर्भाव अनादि काल से रहा है लेकिन पर्यावरणविदों का एक मत है कि हिमालय के इस भू भाग पर शंकुकार बन तो थे  लेकिन आधुनिक चीड नहीं, उत्तराखंड के स्थानीय लोगों का भी एक मत है कि आधुनिक चीड़ की उत्पत्ति काल औपनिवेश काल है अर्थात इसे १६वीं शताब्दी में अंग्रेजों द्वारा लाया गया मानते हैं । अंग्रेजों  द्वारा उत्तराखंड अधिपत्य के उतरार्ध में उत्तराखंड की इन सुंदर वादियों  को अपने एशो आराम की गाह बनाने के साथ यहाँ की भौगोलिक संरचना का भी गहरा अध्यन किया और अपने आमोद प्रमोद और विलासिता के साथ  इस  क्षेत्र  को आय के उत्तम साधन के रूप में देखा। यहाँ की जैवविविधता को देखते हुए अंग्रेज यूरोप और अफ्रीका से उन्नत किश्म के चीड़ (पाईन लॉंजिफोलिया, पाईन एक्सेल्सा, तथा पाईन खास्या) को यहां लाये और कम अवधि में मध्य हिमालय के आठ सौ मीटर से 1800 मीटर की ऊंचाई वाले भू भागों में इसे पनपा कर काफी लाभ कमाया। इन चीड़ों के बीज खाने में स्वदिष्ट होते हैं और यह बृक्ष यूकेलिप्टिस की तरह कम समय में फलने फूलने वाला और फायदे वाला होता हैं। औपनिवेशिक काल में पहाड़ की आर्थिकी को मजबूत करने के नाम पर तुरन्त लाभ कमाने के उद्देश्य से लाया गया चीड़ आज पहाड़ की आर्थिकी ही नहीं वरन पूरे मानव जीवन के लिये संकट का कारण बन खड़ा हुआ है। चीड़ के जंगलों में लगने वाली आग प्रतिवर्ष जहाँ करोड़ों रुपए मूल्य की वन सम्पदा नष्ट कर रही है, वहीं इससे पहाड़ के पर्यावरण में भी आमूलचूल परिवर्तन हो रहे हैं जिसमें प्राकृतिक जलस्रोतों का सूखना, आग से तापमान के बड़ने से कई हद तक ग्लेसियरों का पिघलना माना जा रहा है।
उत्तराखंड के जानेमाने पर्यावरणविद मैती आंदोलन प्रेणता श्री कल्याण सिंह रावत जी का कहना है कि अंग्रेज इतने शातिर और चालाक थे कि जब वे चीड़ की इस प्रजाति के बीज यहां लाये तो उनको ये शक था कि ये अनपढ़ गरीब इनके बीज खा देंगे इस लिए उन्होंने चीड़ के बीज के पैकेटों के बाहर से लिख दिया कि इसमें मानव मूत्र मिला है, जिससे ये लोग इन बीजों को नहीं खायेंगे । अंग्रेजों ने युद्ध स्तर पर नर्सरियां बनाकर बन पंचायतों के अधीन चीड़ के जंगलों को फैलाया। कहते हैं चीज एक हो और लाभ अनेक हो तो कौन व्यक्ति उससे लाभ नहीं लेना चाहेगा इसी तरह चीड भी अनेकों आर्थिक लाभ वाला पेड़ है। चीड़ तीखी ढलानों,चट्टानी इलाके,कम मिटटी की परत वाले जगहों, आम तौर पर रुखी जगहों जहाँ तेज़ और सीधी धूप आती हो ऐसी जगहों  पर खूब फलता फूलता है। आर्थिक लिहाज से चीड की लकड़ी मकान, फर्नीचर आदि घरेलु कामों और बड़े उद्योगों के लिए इनके सिल्फर बहुत उपयोगी होते हैं, ब्रिटिश काल में भारत में रेल का पदार्पण हुआ और रेल की पटरियों के लिए चीड़ का बहुत योगदान रहा। चीड़ की कुछ प्रजातियों की लकड़ी काग़ज़ बनाने के काम भी आती है, साथ ही चीड के लीसे से तारपीन का तेल, पेन्ट, वार्निश आदि आर्थिक लाभ की वस्तुओं का निर्माण किया जाता है ।
अब सवाल ये है कि इतने काम का पेड़ क्यों आज पहाड़ों में बनाग्नि के लिए खलनायक के रूप में खड़ा किया जा रहा है, जैसे कि मैं ऊपर उधृत कर चूका हूँ कि अंग्रेजी हुकूमत क्र दौर में व्यावसायिक रूप से चीड़ का बड़े पैमाने पर प्लांटेशन हुआ और देश आजादी के बाद काफी समय तक यह वदस्तूर चलता रहा । पहले प्लांटेशन के साथ-साथ चीड़ को टिंबर के लिए काटा भी जाता था, लेकिन 1981 के बाद एक हजार मीटर ऊँचाई के बाद हर तरह के पेड़ों के काटने पर रोक लगाई गई और आचरण के अनुसार चीड़ ने इसका फायदा उठाया। आज स्थिति ये हो गयी कि यह कुंलैं (चीड़) बांज, बुरांस और देवदार जैसे मिश्रित वनस्पति जंगलों में अपनी पेठ बना चुका है। मेरे देखा देखि पिछले तीस पैंतीस सालों में मेरे अपने गाँव मटई बैरासकुण्ड चमोली में जिस ऊँचाई पर कभी केवल बांज बुरांस हुआ करता था आज वहां कम्प्लीट चीड़ उग गया है, धीरे-धीरे चीड़ ने बाकी प्रजातियों के पेड़ों की जगह लेना शुरू कर दिया है। दुसरा चीड़ का एक अवगुण यह है कि यह अपने आसपास किसी दूसरी प्रजाति के पेड़ को पनपने नहीं देता है। चीड़ को न काटने की वजह इसने चौड़ी पत्ती के जंगलों की जगह छीननी शुरू कर दी, नतीजन आने वाले भविष्य में यह पहाड़ का सोना कहे जाने वाले बांज के अस्तित्व को मिटा देगा इसमें कोई दो राय नहीं है।
अब बात करते हैं कि चीड़ को ही क्यों उत्तराखंड में बंणाग के लिए खलनायक माना जा रहा है जबकि ईमानदारी से देखा जाय तो आग मैन मेड ही होती है तो फिर चीड क्यों दोषी? लेकिन मेरा मानना है चीड इस लिए दोषी है, क्योकि यह आग में घी का काम करता है जिससे एक छोटी चिंगारी भयानक दावानल बन जाती है, अब बौद्धिक वर्ग कहेगा यार वह तो पेड़ है वह कैसे जिम्मेवार है, लेकिन असली झगड़े की जड़ यही कुंलैं है। “नि होन्दू  पिरुळै डांग, नि लगदी यू निर्भागी बणाग ” (नहीं इतनी ज्यादा मात्र में चीड की पत्तियां का ढेर होता ना ही इतनी भंयकर बनाग्नि लगती)। भारतीय वन संस्थान के एक अध्ययन के अनुसार एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैले चीड़ के जंगल से साल भर में छह टन तक पिरुल गिरता है। आग लगने की असलियत यह है कि बहुत कम कारण होते हैं  आदमियों के इन्वोल्ब बिनाआग लगे, अपवाद एक आद कुदरती घटनाओं को छोड़कर आग मनुष्यों द्वारा ही लगाई जाती है चाहे वह जंगल में गुजरते चरवाहों की लापरवाही हो, सड़क चलते आदमी की हो, बच्चों की शरारत हो या ग्रामिणो द्वारा अच्छी घास उगने की एवज में लगाई गई आग, या बन विभाग, आग अनजाने में लगी हो या जानबूझकर इसके लिए मनुष्य ही माध्यम होता है जानवरों के खुरों से आग लगने से रही। फिर सवाल घूमफिर के आता है कि फिर चीड़ कैसे गुनाहगार हुआ तो इस सवाल के जबाब में कुछ जमीनी तथ्य इस प्रकार हैं:-
पहला चीड़ अपने नीचे अन्य किसी वनस्पति को नहीं पनपने देता है चीड़ के जंगल लगभग अकेला चीड़ का  होता है अगर इसके नीचे अन्य वनस्पतियां उगती तो छोटी चिंगारी दावानल नहीं बन सकती।
दूसरा चीड़ की पत्तियां (पिरुल) अन्य पतझड़ वाले पेड़ों की पत्तियों की तरह जल्दी सड़ती नहीं है और इतनी अधिक मात्रा में जमा होती हैं जिससे जमीन के ऊपर एक गहरा आवरण बन जाता है जिससे घास या दूसरी बनस्पति नहीं उगती हरियाली बिना आग फैलना आसान होता है।
तीसरा सड़कों पर गिरे पिरुल पर गाड़ियों के चलने से सड़क के किनारे पिरुल का बुरादा जमा हो जाता है जिसमें मौजूद तेल की मात्रा इसे किसी बारूद सरीखा बना देती है, किसी भी कारण एक बुझी तीली से भी यह भड़क जाता है।
चौथा इससे निकलने वाला लीसा ज्वलनशील होता है जो छोटी आग के लिए बूस्टर का काम करता है और अधिकतर चीड के पेड़ तेलयुक्त होते हैं जिसे स्थानीय भाषा में छिला या छिल्कू कहा जाता है ऐसे पेड़ अगर आग पकड़ते हैं तो लम्बे समय तक जलते रहते हैं और हवा के कारण इसके फिलिंग दूर के जंगल में भी आग लगने का कारण बन जाता है ।
पांचवाँ चीड के जंगल बहुत घने होते हैं ज्यादा घने जंगलों के बीच इनकी मोटाई कम और लम्बाई पूरी होती है फिर लिसा निकालने के लिए पेड़ के निचे तने पर गहरी छिलाई की होती है जिससे पेड़ कमजोर पड़ जता है तेज हवा और तूफ़ान में ऐसे पतले और कमजोर पेड़ बहुत संख्या में टूट जाते हैं आग लगने के बाद ये टूटे हुए पेड़ भयानक दनावल के कारण बनता है ।
अब तथ्य और कारण जितने भी हों लेकिन गुनाहगार के साथ समाधान केवल और केवल मनुष्य है जंगल के वे निरीह प्राणी केवल भाग सकता है या अपनी जान गंवा सकता है। समाधान के लिए मेरा मनना है लाख कठोर नियम और जतन के बाद भी इन्शानो की मिस्टेक को नाकारा नहीं जा सकता इस लिए उत्तम यही है की पहाड़ों के असली स्वरूप को बचाना है तो चीड़ उन्मूलन ही लॉन्ग टर्म विकल्प है, इसके असर के रूप में अभी नहीं लेकिन आने वाले सौ दो सौ साल बाद कोई पीड़ी साधुवाद देगी । पर्यावरणविद कल्याण सिंह रावत “मैती” जी का कहना है अब वे चीड़  मुक्त उत्तराखण्ड के लिए बड़ा जन आन्दोलन और आमरण अनशन करने वाले हैं । प्रसिद्ध पर्यावरणविद अनुपम मिश्र ने कभी कहा था,जब तक आप उत्तराखंड के लोगों को उनका वही जंगल वापस नहीं लौटाएंगे तब तक आग को भी नहीं रोक पाएंगे। आज भी उत्तराखंड में जहां मिश्रित वन (बांज, बुरांस और काफल जैसी प्रजातियों वाले जंगल) हैं उनमें आग की घटनाएं ना के बराबर होती हैं जमीन में छोटी बनस्पतियों के होते आग फैलती नहीं है । बाकी सरकार बनाग्नि मर्दन हेतु जो भी नीतियाँ बनाए आधुनिकरण सयंत्रों और तकनिकी का इस्तेमाल करे लेकिन तत्कालिक  आर्थिक लाभ दूरगामी विनाशक परिणामों पर अब कार्यान्वयन जरुरी है। मेरा तो स्पष्ट मत है कि अब चीड़ उन्मूलन के लिये किसी सरकार के फरमान या नीति का इन्तजार किये बिना उत्तराखण्ड  के जन समुदाय को श्री कल्याण सिंह रावत “मैती” जी के साथ  जन आन्दोलन में शामिल होकर औपनिवेशिक प्रतीक वृक्ष, चीड की समाप्ति और हिमालयी मूल के वनों के हक-हकूक के लिये लड़ना पड़ेगा।

@ बलबीर राणा ‘अडिग’