रामस्वैंणी की तेरहवीं
चार प्रकार का सलाद तीन प्रकार की चरचरी बरबरी भुजी पियर अरहर की दाल, खट्टे आम का अचार, घर्रा भंग्जीर और पुदिने की चटणी, पैल्वाण भैंस की छाँस में तुमड़े का रायता, पापड, पूड़ी, सूजी, हलवा, और मीठा भात उसमें केशर भी डाल रखा था बल। खूब चखळ पखळ। सारा गाँव सपोड़ी-सपोड़ चटकारें ले रहा था छोटे बच्चे तो होंठों को भुक्की देने की मुद्रा में सी सी करते हुए पंगत से उठते उठते पतल चाट रहे थे। आहा कैसी रस्यांण आई ठैरी आज। तेरहवीं खाई तो गमुली दादी की खाई। स्वोरे भारे हो तो ऐसे हों, रामसैंणी का ऐसा प्रीतभोज पहली बार देखा। वो विचारी जीवन भर अधीती रही लेकिन उसके पुण्य ने आज पूरे गाँव को छक के धीता दिया। बल! आज तो वो लोग भी चटकारे मारते गमुली दादी की प्रशंसा और गुणगान करते नहीं थक रहे थे जिन्होने कभी उस विचारी पर गाँव के दर कर में एक ढेले की माफी नहीं दी और न उस दिन उनके पास बेचारी को एक लकड़ी देने का समय निकला। वाह रे जमाना मनखियत का आखरी सत भी हैसियत देख निभाया जाता है। पस्तो तो दूर की बात थी।
उस जमाने में व्यक्ति विेशेष की जीजीविषा जैसी भी हो लेकिन गात्र में मानव क्षति होने पर स्वोरे भारे के मर्द नमान दशगात्र में जैसे तैसे मुंड मूंडने और सुल्टे होने पहुँच जाते थे चाहे दिल्ली बम्बे देहरादून कहीं भी हो। तेरहवीं के पित्र प्रशाद के बाद ही सहज जीवन चलता था। रौत मौ ने विधी विधान से क्रिर्याक्रम निभाया नाक का सवाल जो ठैरा। काटे में महंगा सामान दिया। बल सब समान स्टैंडर्ड, भानी, बक्सा, छाता, रजाई-गद्दा, चादर, अंगवस्त्र । फौजी जैसे बिस्तर बन्ध पर पैक करके दिया था। भले रौत मौ ने यह कारिज नाक के लिए किया हो लेकिन उस बेचारी प्रेत का मिलन पित्रकुड़ी में पितरों के साथ तो करा दिया था। खैर गमुली के जीते जी रौत मौ ने कभी नहीं समझा कि यह हमारे कुल की विधावा दुख्यारी है। चलो स्वार्थ का भला हो कभी कभी इन्सान को पुण्य काम करने के लिए प्रेरित कर देता है। अस्सी नाली जमीन का सवाल भी इस भव्य शोक रश्म का कारण था गमुली के वारिस के तौर पर अब मौ ही थी।
इस तेरहवीं की धकाधूम देख बामण ज्यू भी मन ही मन बोल रहा होगा कि साल में दो चार ऐसे जजमान झटक जाये तो सुदामागिरी से मुक्ती मिल जाय। पित्रदान में एकदम जवान कलौड़ी मिली, एक साल बाद ही ब्या जायेगी। अगले महिने बामणी बौ बोल रही थी कि एरां द्यूरा सुदी लाल पाणी छाँ पीणा गोरु बुडया ह्वेगी अजक्याल जमानु हाथ ध्वोंण पर ऐग्यों लो, क्या कन, काटा मा त खाली मरण्यां बछुरा छिन देणा, अरे़ जौं पितरों परताप तुम राजन बाजन हुँयां वूंन मथि स्या मरण्यां ग्वैरूं ढांगा चबाण क्या। पर आज गमुली दादी के काटे में तो जवान गाय मिल गयी थी, बहुत दिनों बाद आज बामणी बौजी शय्या दान सामान देख खुस नजर आ रही थी।
हप्ते भर तक गमुली दादी के तेरहवीं के चटकारे गांव भर चले। ऐरां उस बिचारी को ‘जिन्दे में नहीं मिला मांड मरने के बाद मिला खांड’। कभी एक सुकिली रोटी नहीं चखी, देह ने कभी दोहरा कपड़ा नहीं देखा, औंस सग्रान्द को खौंजळे से धुले बालों को कभी एक पौळी तेल नसीब नहीं हुआ रामसैंणी को कहाँ तेल कहाँ बाती। कुम्यांणी के जाने के बाद कंघी भूल गयी, एक बची पापड़ी के कंगुले के चार दांत उन उलझे बालों को संवारने मे असक्षम थे।
गमुली दादी बचपन से स्वभाव से सीधी थी लोग गमुली लाटी से पुकारते थे, जैसे लगुली ठंगरे पें चड़ी वैसे बाप बादर सिहं गंगा नहा गया। बगल के गांव में पच्चास पार के अधेड़ सौंणु को बिवा दी, टके की शादी की उस वेचरी की डोली में बैठने की तम्मना बज्रपात हो गया था। बादर सिंह ने ठया में पैंसों के साथ जेवर ऐंठे। गमुली देह और रंग रूप में भले पदानी घर के लायक थी लेकिन बाप के लालच ने कंडाळी के झखल्यांण फेंक दी गयी। जमाना बाप भग्यान वाला था जिसकी ज्यादा बेटियां वो उतना सेठ। सौणु की पहली पत्नी कुम्यांण से बच्चे नहीं हुए। सौणु बचपन से उटंगरी रहा जवानी में कुछ दिन कुमाँऊ में जंगलात में चपरासी रहा वहीं कुम्यांण से माया मुस्क हो गया और उठा लाया था। सूत बैंत की जैसी रही हो लेकिन बेटा इतनी दूर से ले आया तो बाप ने दुनियां का मुँह बन्द करने के लिए चार फेरे अपने ही घर में लगवाये मौ ख़्वाले को दाल भात खिलाया। कुम्यांण के घर वालों ने उसकी कोई खोज खबर नहीं की, आजकल के जैसे संचार व्यवस्था थी नहीं और आम आदमी का इतने दूर कुमाऊँ की तल्लीरौ पट्टी से गढ़वाल के दशोली पट्टी सहज आना जाना सम्भव नहीं था। कुम्यांण का असली नाम पार्वती था कुम्यांण नाम कुमाँऊ की होने से हो गया। तब अकसर गांव में लोग ऐसे ही स्थान विषेश पर बहुओं के नाम रख देते थे आजीवन वही निक नेम उनकी पहचना बन जाती। जैसे नागपुर की नागपुर्या, सलाण की सलाण्यां, रामणी की रम्वाळी, सेमा की स्यम्वाळी, फरखेत की फर्खत्या इत्यादी।
कई उच्यांणा परखणा पूजा पाठ नीम हकीम के बाद भी कुम्यांण की गोद हरी नही हुयी, कुन्डली मे पुत्र योग लिख था दोनों ने कुन्डली के चक्कर में मुंडली नहीं देखी पच्चास पहुंचने के बाद होश आया की दुसरी शादी का भी विकल्प है। दोनो की राजामन्दी से सौंणु ने पल्ली गांव के बादर सिंह को लालच दे कर जवान गमुली को आस औलाद के लिए ब्या लाया। दो एक साल तो सौतन कुम्यांण का ब्यवहार नयीं गाय के नौ पुळै घास जैसा रहा, लाटी ब्यंगणी जैसे भी है काई बात नहीं जवान है आस औलाद हो जाये तो जशीली रहेगी, पर सौंणु की कमी के कारण इस पुंगड़े में भी बीज नहीं जमा। गुस्से और निराश होकर सौणु कुंडली को कानधार रखके आया था। बेचारी गमुली भी औती की जमात में खड़ी कर दी गयी। पुरुष प्रधान समाज में औरत ही दोषी होती है मर्द का घुटने तक जल जाने पर भी किराण नहीं आती है ।
जब पुरानी को लगा कि अब कोई आशा नहीं बुड्ढा थोबड़ा रखने लायक ही रह गया तो वह सौतन वाली चाल में आ गयी, आजकल का कहें तो लव मैरिज थी मालिक पर पूरा कंट्रोल था, गमुली ठैरी सीधी लाटी एकदम खस्यांण मोहनी कला का जैसे उससे जनमो का बैर हो। गाँव किसी जवान लड़कों ने गमुली बांद क्या बोल दिया कि उसके तीन पीढ़ी के पितरों की पूजा करती थी। शादी के बाद सौणु मात्र रात्रि एक पहर का साथी रहा बाकी दाम्पत्य लावण्य में जिठाणा ही समझो। सौणु भी क्या प्रेम करता उसने तो बच्चे पैदा करने की मशीन खरीदी थी। अब गमुली कुम्यांण की अंगुलियों नचाती रहती अंदर बाहर, घर बण सब जगह जा लाटी फलाणा काम कर। बेचारी गमुली नियति मान सब सहती रही करती रही कभी किसी के मुँह नहीं लगी किसी को आँख उठाकर नहीं देखा। माँ बाप ने विदा करते समय समझा बुझा के कहा था भगवान ने तुझे खूब खस्यांण जैसा बनाया है खूब काम करना ससुराल में हमारी नाक मत काटना स्त्री सत पर रहना। सौणु और कुम्यांण दोनों झण औलाद के दंश में कुछ साल बाद एक एक कर अन जल तौड़ गये। जैसा भी हो ”सूनी गुठ्यार से मर्खू बल्द भला” गमुली जवानी में ही रामस्वैंणी (विधवा) हो गयी। उस जमाने में रामस्वैंणी का जीवन घींघारू के कांटों की राह थी। आज की तरह कहाँ राम राज्य? विधवा पेंशन सस्ता गल्ला पल्ला अलग।
जवान विधवा पर कई इक्वांणों (विधुरों) के रिश्ते आये कि दोनो का जीवन संवर जायेगा लेकिन गमुली माँ बाप को दिये बचन से टस से मस नहीं हुई। अनुसुया, रामी बौराणी की धरती की नारी जो ठैरी। पहाड़ की पहाड़ जैसी नारी ने अडिग रहते हुए जीवन की गाड़ी अकेली खींची और जीवन के आखरी संध्या तक उस घर को धुवाँ लगाती रही। सौणु के हिस्से में जमीन तो बहुत थी लेकिन ज्यादातर ढौ ढंगार वाली थी जहाँ मेहनत ज्यादा अनाज कम उपर से खौ-बाग, गुणी बन्दरों का राज था। सायद इसी जमीन बदले आज स्वोरे भारों ने क्रियाकर्म में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी या लोक लज्जा भारी रही हो। जो भी हो मुंडीत होने का फर्ज अच्छी तरह निभाया था साब रौत मौ ने।
भगवान ने गमुली को जैसा ढिलढौल काया दी वैसी हिम्मत और सहन शक्ति भी, पत्थर की छाती ने लोगों का जमकर बोल किया और नाक के साथ अपने हीस्सै की जमीन खैनी (आवाद) रखी। बोले ने गमुली को समय से पहले ही गमुली दादी बना दिया था। पूरे गाँव में गमुली दादी काम और माजक मसखरी दोनो का पर्याय बनी रहती, हर कोई छोटा बड़ा दादी के साथ मसखरी कर था। सत इतना कि दरवाजे पर आये को खाली हाथ नहीं जाने दिया चाहे रात को तवा रीता क्यों न रहे। डो डड्वार लेन देन जोगी जगम दुनियां की देखा-देखी खींचमखींच निभाती रही। गाँव मे लोगों के हर सुख दुःख को अपना समझ निभाती थी किसी की शादी ब्याह में तो दादी स्याह पटटा के दिन से द्वार बाटे तक मदद करती थी। लेकिन समाज की हमेसा से बिडम्बना रही कि सीधे लोगों को समाज ज्यादा उलाहवना देता है और उन्हें बिना बात के तिरिस्कृत होना पड़ता है। क्योंकी सीधे लोग हाजिर जबाबी नहीं होते किसी के मुँह नहीं लगते। कहा भी जाता कि सीधा व्यक्ति और सीधा पेड़ पहले काटा जाता है। औंछे लोगों के तीखे वाण भी खुब सहे। ‘ये रांडो मुख कख बटिन दिखिन सुबेर सुबेर’, ‘चल जा अभी कल आना कहाँ से आ जाती शुभ कार्यों में सबसे पहले’ आदि। दुनियां की सीरत सुरत उपर वाला नहीं बदल सकता वो बेचारी क्या बदलती अपने बैल की मार खाये जैसे चुप सहती रहती थी।
विधवा जीवन के विकट शूलों में सतित्व की परिक्षा में आजीवन प्रथम रही। उजड़े गृहस्थ में विधवा विलाप को अनहद बना मग्न मौन रही। अरे मायाबी उपर वाले किसी की किसमत पार्कर पैन से किसी की कच्ची पेंसिल से? तेरा भी अजीब कृत्य है, कुछ तो “अदळा बुस्यैला” कर देता उसके जीवन में। इन्शान को किये का सिला ना मिले तो इन्शान टूटने के साथ बिखर जाता है लेकिन वो क्या बिखरती एक जान एक शरीर दिनभर थकी मारी रात कम्बल के अन्दर कठ्ठे घुटने सुबह दिवाकर की पहली किरण के साथ सीधे होते। उसके कर्मो का परारभ्द्ध जीवनभर जेठ दुपहरी सूखता रहा पूस की रात ककडा़ता रहा। आठ बच्चों की गोठ के बीच जन्म, बाप के लालच का बुढे बैल के साथ बाँधना उपर से बिना दोष के बाँझपन की पैनी छुरी मिलना। किश्मत ने भरे स्तनों से दूध रिसाने का मौका ही नहीं दिया, छाती के उभार जितनी तेजी से किशोरवय में उभरे उतनी तेजी से जवानी के मध्य में सिकुड़ने पर मजबूर हो गए। और वह क्षत्रांणी जीवन की लड़ायी नूरा नांग के जसवंत के तरह पिचहत्तर पूस की रात अकेली लड़ती रही। आखरी दिन जुखाम की शिकायत हुई दिनभर घर गुठयार का काम निबटाया शाम को रोटी बनाने की हिम्मत नहीं आयी भूखे पेट घुटने फोल्ड कर लेट गयी, दूसरे सुबह घाम खूब आने पर जब सरुली गाय खूब रंभाने बैठ गई तब कहीं पड़ोसीयों ने सज्ञान लिया। अंदर देखा बुढली उस अनन्त लोक में चली गई जहाँ अब उसे कोई दुत्कारने वाला नहीं होगा सायद वहाँ उसके किये का सिला मिल जाय। भगवान को सत्यनिष्ठ आदमियों के साथ इतना न्याय करते तो देखा कि बुढ़ापे में जीर्ण बीमारी से कुकर्म नहीं होने देता, इसलिए गमुली को भी चलते चलते उठा ले गया था नहीं तो गमुली जैसी निराश्रय का जीर्ण बीमारी भोगने पर क्या हाल होता। सब अपना अपना भाग्य है साब, किसी का जीवन 'तैला तपड़ किसी का शीला छप्पर'। वैसे आम इन्शानी नियती रास्ता बदली करना या रास्ता छोड़ने का ज्यादा दिखता है पर उस मूर्ति ने न रास्ता छोड़ा न बदला था "एक राह एक डगर, अड़िग रहेंगे जब तक है जिगर" को चरिथार्त करती रही । खैर उसकी तेरहवीं ने आज सबके कंठ और दिल के स्पन्दन खोल तो दिए थे लेकिन तेरहवीं हजम होने के बाद लोगों के कंठ फिर और कभी कहीं खुलते रहेंगे लेकिन उस रामस्वैंणी हेतु संवेदना रुपी खुले स्पंदन अब हमेशा के लिए बंन्द हो जाएंगे ऐसा नियति कहती है।
@ बलबीर राणा 'अडिग'
गढ़वाली शब्दों का अर्थ
रामसैंणी-पति मरने के बाद जिसका मालिक राम हो (विधवा)। सैंणी-पत्नी। चरचरी बरबरी भुजी-चटबटी सब्जी। घर्रा-घर का। पैल्वाण-पहली बार ब्यायी। तुमडे-कद्दू का। चखळ पखळ-रेलम पेल। रस्यांण-खाने का आन्नद। भुक्की - चुम्मा। ठैरा और बल - पहाड़ी तुकांत शब्द। स्वोरे भारे-गोत्र के भाई बन्ध। पस्तो-शोक मद। मौ-परिवार वाले। पित्रकुड़ी-पूर्वजों के नाम का पत्थ्र रखने वाला छोटा हट। कलौड़ी-जवान गाय। बामण ज्यू- पंडित जी। सूट बैंत -कुल गौत्र। बामणी बौ-ब्राहमिण भाभी। काटे-शîया दान। सुकिलीरोटी-गेंहूँ की राटी। खौंजळे-भीमल के पेड की टहनियों से निकलने वाला साबुन। पौळी-पाव। कंगुले-कंघी। लगुली-बेल। ठंगरे-बेल के सहारे को लगाई बड़ी टहनी। टके की शादी-बिना दहेज की शादी जिसमें लड़के वालों को लड़की के एवज में पैंसे देने होते थे। ठया-लड़की के बदले का पैंसा। झखल्यांण-झाड़ी। कंडाळी-बिच्छु घास। भग्यान-भाग्यवान। उच्यांणा परखणा-देवता के निमित वचन रखना। पुळै-घास के गठ्ठे। लाटी ब्यंगणी-सीधी साधी। घुण्ड घुण्ड फुक्येण - घुटने तक जलना। किराण-जलने की बू। बांद-खूबसूरत। जिठाणा-जेठ। पुंगड़े-खेत। खस्यांण-मोटी तगड़ी। झण-दम्पति। गुठ्यार-गोशाला। मर्खू बल्द-मारने वाला बैल। घींघारू-एक जंगली पहाड़ी फल जिसके कांटे तेज नुकीले होते हैं। बोल-दुसरों का काम या मजदूरी। खौ-बाग-जंगली जानवर। गुणी-लंगूर। रौत मौ-रावतों का परिवार। डो डड्वार-हर फसली पर ब्राहमणों को दिये जाने वाला अनाज। स्याह पटटा-हल्दी हाथ का दिन। द्वार बाटे-दुबारा वापसी का दिन। “अदळा बुस्यैला”- कुछ न कुछ, गोठ-गोशाला।
चार प्रकार का सलाद तीन प्रकार की चरचरी बरबरी भुजी पियर अरहर की दाल, खट्टे आम का अचार, घर्रा भंग्जीर और पुदिने की चटणी, पैल्वाण भैंस की छाँस में तुमड़े का रायता, पापड, पूड़ी, सूजी, हलवा, और मीठा भात उसमें केशर भी डाल रखा था बल। खूब चखळ पखळ। सारा गाँव सपोड़ी-सपोड़ चटकारें ले रहा था छोटे बच्चे तो होंठों को भुक्की देने की मुद्रा में सी सी करते हुए पंगत से उठते उठते पतल चाट रहे थे। आहा कैसी रस्यांण आई ठैरी आज। तेरहवीं खाई तो गमुली दादी की खाई। स्वोरे भारे हो तो ऐसे हों, रामसैंणी का ऐसा प्रीतभोज पहली बार देखा। वो विचारी जीवन भर अधीती रही लेकिन उसके पुण्य ने आज पूरे गाँव को छक के धीता दिया। बल! आज तो वो लोग भी चटकारे मारते गमुली दादी की प्रशंसा और गुणगान करते नहीं थक रहे थे जिन्होने कभी उस विचारी पर गाँव के दर कर में एक ढेले की माफी नहीं दी और न उस दिन उनके पास बेचारी को एक लकड़ी देने का समय निकला। वाह रे जमाना मनखियत का आखरी सत भी हैसियत देख निभाया जाता है। पस्तो तो दूर की बात थी।
उस जमाने में व्यक्ति विेशेष की जीजीविषा जैसी भी हो लेकिन गात्र में मानव क्षति होने पर स्वोरे भारे के मर्द नमान दशगात्र में जैसे तैसे मुंड मूंडने और सुल्टे होने पहुँच जाते थे चाहे दिल्ली बम्बे देहरादून कहीं भी हो। तेरहवीं के पित्र प्रशाद के बाद ही सहज जीवन चलता था। रौत मौ ने विधी विधान से क्रिर्याक्रम निभाया नाक का सवाल जो ठैरा। काटे में महंगा सामान दिया। बल सब समान स्टैंडर्ड, भानी, बक्सा, छाता, रजाई-गद्दा, चादर, अंगवस्त्र । फौजी जैसे बिस्तर बन्ध पर पैक करके दिया था। भले रौत मौ ने यह कारिज नाक के लिए किया हो लेकिन उस बेचारी प्रेत का मिलन पित्रकुड़ी में पितरों के साथ तो करा दिया था। खैर गमुली के जीते जी रौत मौ ने कभी नहीं समझा कि यह हमारे कुल की विधावा दुख्यारी है। चलो स्वार्थ का भला हो कभी कभी इन्सान को पुण्य काम करने के लिए प्रेरित कर देता है। अस्सी नाली जमीन का सवाल भी इस भव्य शोक रश्म का कारण था गमुली के वारिस के तौर पर अब मौ ही थी।
इस तेरहवीं की धकाधूम देख बामण ज्यू भी मन ही मन बोल रहा होगा कि साल में दो चार ऐसे जजमान झटक जाये तो सुदामागिरी से मुक्ती मिल जाय। पित्रदान में एकदम जवान कलौड़ी मिली, एक साल बाद ही ब्या जायेगी। अगले महिने बामणी बौ बोल रही थी कि एरां द्यूरा सुदी लाल पाणी छाँ पीणा गोरु बुडया ह्वेगी अजक्याल जमानु हाथ ध्वोंण पर ऐग्यों लो, क्या कन, काटा मा त खाली मरण्यां बछुरा छिन देणा, अरे़ जौं पितरों परताप तुम राजन बाजन हुँयां वूंन मथि स्या मरण्यां ग्वैरूं ढांगा चबाण क्या। पर आज गमुली दादी के काटे में तो जवान गाय मिल गयी थी, बहुत दिनों बाद आज बामणी बौजी शय्या दान सामान देख खुस नजर आ रही थी।
हप्ते भर तक गमुली दादी के तेरहवीं के चटकारे गांव भर चले। ऐरां उस बिचारी को ‘जिन्दे में नहीं मिला मांड मरने के बाद मिला खांड’। कभी एक सुकिली रोटी नहीं चखी, देह ने कभी दोहरा कपड़ा नहीं देखा, औंस सग्रान्द को खौंजळे से धुले बालों को कभी एक पौळी तेल नसीब नहीं हुआ रामसैंणी को कहाँ तेल कहाँ बाती। कुम्यांणी के जाने के बाद कंघी भूल गयी, एक बची पापड़ी के कंगुले के चार दांत उन उलझे बालों को संवारने मे असक्षम थे।
गमुली दादी बचपन से स्वभाव से सीधी थी लोग गमुली लाटी से पुकारते थे, जैसे लगुली ठंगरे पें चड़ी वैसे बाप बादर सिहं गंगा नहा गया। बगल के गांव में पच्चास पार के अधेड़ सौंणु को बिवा दी, टके की शादी की उस वेचरी की डोली में बैठने की तम्मना बज्रपात हो गया था। बादर सिंह ने ठया में पैंसों के साथ जेवर ऐंठे। गमुली देह और रंग रूप में भले पदानी घर के लायक थी लेकिन बाप के लालच ने कंडाळी के झखल्यांण फेंक दी गयी। जमाना बाप भग्यान वाला था जिसकी ज्यादा बेटियां वो उतना सेठ। सौणु की पहली पत्नी कुम्यांण से बच्चे नहीं हुए। सौणु बचपन से उटंगरी रहा जवानी में कुछ दिन कुमाँऊ में जंगलात में चपरासी रहा वहीं कुम्यांण से माया मुस्क हो गया और उठा लाया था। सूत बैंत की जैसी रही हो लेकिन बेटा इतनी दूर से ले आया तो बाप ने दुनियां का मुँह बन्द करने के लिए चार फेरे अपने ही घर में लगवाये मौ ख़्वाले को दाल भात खिलाया। कुम्यांण के घर वालों ने उसकी कोई खोज खबर नहीं की, आजकल के जैसे संचार व्यवस्था थी नहीं और आम आदमी का इतने दूर कुमाऊँ की तल्लीरौ पट्टी से गढ़वाल के दशोली पट्टी सहज आना जाना सम्भव नहीं था। कुम्यांण का असली नाम पार्वती था कुम्यांण नाम कुमाँऊ की होने से हो गया। तब अकसर गांव में लोग ऐसे ही स्थान विषेश पर बहुओं के नाम रख देते थे आजीवन वही निक नेम उनकी पहचना बन जाती। जैसे नागपुर की नागपुर्या, सलाण की सलाण्यां, रामणी की रम्वाळी, सेमा की स्यम्वाळी, फरखेत की फर्खत्या इत्यादी।
कई उच्यांणा परखणा पूजा पाठ नीम हकीम के बाद भी कुम्यांण की गोद हरी नही हुयी, कुन्डली मे पुत्र योग लिख था दोनों ने कुन्डली के चक्कर में मुंडली नहीं देखी पच्चास पहुंचने के बाद होश आया की दुसरी शादी का भी विकल्प है। दोनो की राजामन्दी से सौंणु ने पल्ली गांव के बादर सिंह को लालच दे कर जवान गमुली को आस औलाद के लिए ब्या लाया। दो एक साल तो सौतन कुम्यांण का ब्यवहार नयीं गाय के नौ पुळै घास जैसा रहा, लाटी ब्यंगणी जैसे भी है काई बात नहीं जवान है आस औलाद हो जाये तो जशीली रहेगी, पर सौंणु की कमी के कारण इस पुंगड़े में भी बीज नहीं जमा। गुस्से और निराश होकर सौणु कुंडली को कानधार रखके आया था। बेचारी गमुली भी औती की जमात में खड़ी कर दी गयी। पुरुष प्रधान समाज में औरत ही दोषी होती है मर्द का घुटने तक जल जाने पर भी किराण नहीं आती है ।
जब पुरानी को लगा कि अब कोई आशा नहीं बुड्ढा थोबड़ा रखने लायक ही रह गया तो वह सौतन वाली चाल में आ गयी, आजकल का कहें तो लव मैरिज थी मालिक पर पूरा कंट्रोल था, गमुली ठैरी सीधी लाटी एकदम खस्यांण मोहनी कला का जैसे उससे जनमो का बैर हो। गाँव किसी जवान लड़कों ने गमुली बांद क्या बोल दिया कि उसके तीन पीढ़ी के पितरों की पूजा करती थी। शादी के बाद सौणु मात्र रात्रि एक पहर का साथी रहा बाकी दाम्पत्य लावण्य में जिठाणा ही समझो। सौणु भी क्या प्रेम करता उसने तो बच्चे पैदा करने की मशीन खरीदी थी। अब गमुली कुम्यांण की अंगुलियों नचाती रहती अंदर बाहर, घर बण सब जगह जा लाटी फलाणा काम कर। बेचारी गमुली नियति मान सब सहती रही करती रही कभी किसी के मुँह नहीं लगी किसी को आँख उठाकर नहीं देखा। माँ बाप ने विदा करते समय समझा बुझा के कहा था भगवान ने तुझे खूब खस्यांण जैसा बनाया है खूब काम करना ससुराल में हमारी नाक मत काटना स्त्री सत पर रहना। सौणु और कुम्यांण दोनों झण औलाद के दंश में कुछ साल बाद एक एक कर अन जल तौड़ गये। जैसा भी हो ”सूनी गुठ्यार से मर्खू बल्द भला” गमुली जवानी में ही रामस्वैंणी (विधवा) हो गयी। उस जमाने में रामस्वैंणी का जीवन घींघारू के कांटों की राह थी। आज की तरह कहाँ राम राज्य? विधवा पेंशन सस्ता गल्ला पल्ला अलग।
जवान विधवा पर कई इक्वांणों (विधुरों) के रिश्ते आये कि दोनो का जीवन संवर जायेगा लेकिन गमुली माँ बाप को दिये बचन से टस से मस नहीं हुई। अनुसुया, रामी बौराणी की धरती की नारी जो ठैरी। पहाड़ की पहाड़ जैसी नारी ने अडिग रहते हुए जीवन की गाड़ी अकेली खींची और जीवन के आखरी संध्या तक उस घर को धुवाँ लगाती रही। सौणु के हिस्से में जमीन तो बहुत थी लेकिन ज्यादातर ढौ ढंगार वाली थी जहाँ मेहनत ज्यादा अनाज कम उपर से खौ-बाग, गुणी बन्दरों का राज था। सायद इसी जमीन बदले आज स्वोरे भारों ने क्रियाकर्म में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी या लोक लज्जा भारी रही हो। जो भी हो मुंडीत होने का फर्ज अच्छी तरह निभाया था साब रौत मौ ने।
भगवान ने गमुली को जैसा ढिलढौल काया दी वैसी हिम्मत और सहन शक्ति भी, पत्थर की छाती ने लोगों का जमकर बोल किया और नाक के साथ अपने हीस्सै की जमीन खैनी (आवाद) रखी। बोले ने गमुली को समय से पहले ही गमुली दादी बना दिया था। पूरे गाँव में गमुली दादी काम और माजक मसखरी दोनो का पर्याय बनी रहती, हर कोई छोटा बड़ा दादी के साथ मसखरी कर था। सत इतना कि दरवाजे पर आये को खाली हाथ नहीं जाने दिया चाहे रात को तवा रीता क्यों न रहे। डो डड्वार लेन देन जोगी जगम दुनियां की देखा-देखी खींचमखींच निभाती रही। गाँव मे लोगों के हर सुख दुःख को अपना समझ निभाती थी किसी की शादी ब्याह में तो दादी स्याह पटटा के दिन से द्वार बाटे तक मदद करती थी। लेकिन समाज की हमेसा से बिडम्बना रही कि सीधे लोगों को समाज ज्यादा उलाहवना देता है और उन्हें बिना बात के तिरिस्कृत होना पड़ता है। क्योंकी सीधे लोग हाजिर जबाबी नहीं होते किसी के मुँह नहीं लगते। कहा भी जाता कि सीधा व्यक्ति और सीधा पेड़ पहले काटा जाता है। औंछे लोगों के तीखे वाण भी खुब सहे। ‘ये रांडो मुख कख बटिन दिखिन सुबेर सुबेर’, ‘चल जा अभी कल आना कहाँ से आ जाती शुभ कार्यों में सबसे पहले’ आदि। दुनियां की सीरत सुरत उपर वाला नहीं बदल सकता वो बेचारी क्या बदलती अपने बैल की मार खाये जैसे चुप सहती रहती थी।
विधवा जीवन के विकट शूलों में सतित्व की परिक्षा में आजीवन प्रथम रही। उजड़े गृहस्थ में विधवा विलाप को अनहद बना मग्न मौन रही। अरे मायाबी उपर वाले किसी की किसमत पार्कर पैन से किसी की कच्ची पेंसिल से? तेरा भी अजीब कृत्य है, कुछ तो “अदळा बुस्यैला” कर देता उसके जीवन में। इन्शान को किये का सिला ना मिले तो इन्शान टूटने के साथ बिखर जाता है लेकिन वो क्या बिखरती एक जान एक शरीर दिनभर थकी मारी रात कम्बल के अन्दर कठ्ठे घुटने सुबह दिवाकर की पहली किरण के साथ सीधे होते। उसके कर्मो का परारभ्द्ध जीवनभर जेठ दुपहरी सूखता रहा पूस की रात ककडा़ता रहा। आठ बच्चों की गोठ के बीच जन्म, बाप के लालच का बुढे बैल के साथ बाँधना उपर से बिना दोष के बाँझपन की पैनी छुरी मिलना। किश्मत ने भरे स्तनों से दूध रिसाने का मौका ही नहीं दिया, छाती के उभार जितनी तेजी से किशोरवय में उभरे उतनी तेजी से जवानी के मध्य में सिकुड़ने पर मजबूर हो गए। और वह क्षत्रांणी जीवन की लड़ायी नूरा नांग के जसवंत के तरह पिचहत्तर पूस की रात अकेली लड़ती रही। आखरी दिन जुखाम की शिकायत हुई दिनभर घर गुठयार का काम निबटाया शाम को रोटी बनाने की हिम्मत नहीं आयी भूखे पेट घुटने फोल्ड कर लेट गयी, दूसरे सुबह घाम खूब आने पर जब सरुली गाय खूब रंभाने बैठ गई तब कहीं पड़ोसीयों ने सज्ञान लिया। अंदर देखा बुढली उस अनन्त लोक में चली गई जहाँ अब उसे कोई दुत्कारने वाला नहीं होगा सायद वहाँ उसके किये का सिला मिल जाय। भगवान को सत्यनिष्ठ आदमियों के साथ इतना न्याय करते तो देखा कि बुढ़ापे में जीर्ण बीमारी से कुकर्म नहीं होने देता, इसलिए गमुली को भी चलते चलते उठा ले गया था नहीं तो गमुली जैसी निराश्रय का जीर्ण बीमारी भोगने पर क्या हाल होता। सब अपना अपना भाग्य है साब, किसी का जीवन 'तैला तपड़ किसी का शीला छप्पर'। वैसे आम इन्शानी नियती रास्ता बदली करना या रास्ता छोड़ने का ज्यादा दिखता है पर उस मूर्ति ने न रास्ता छोड़ा न बदला था "एक राह एक डगर, अड़िग रहेंगे जब तक है जिगर" को चरिथार्त करती रही । खैर उसकी तेरहवीं ने आज सबके कंठ और दिल के स्पन्दन खोल तो दिए थे लेकिन तेरहवीं हजम होने के बाद लोगों के कंठ फिर और कभी कहीं खुलते रहेंगे लेकिन उस रामस्वैंणी हेतु संवेदना रुपी खुले स्पंदन अब हमेशा के लिए बंन्द हो जाएंगे ऐसा नियति कहती है।
@ बलबीर राणा 'अडिग'
गढ़वाली शब्दों का अर्थ
रामसैंणी-पति मरने के बाद जिसका मालिक राम हो (विधवा)। सैंणी-पत्नी। चरचरी बरबरी भुजी-चटबटी सब्जी। घर्रा-घर का। पैल्वाण-पहली बार ब्यायी। तुमडे-कद्दू का। चखळ पखळ-रेलम पेल। रस्यांण-खाने का आन्नद। भुक्की - चुम्मा। ठैरा और बल - पहाड़ी तुकांत शब्द। स्वोरे भारे-गोत्र के भाई बन्ध। पस्तो-शोक मद। मौ-परिवार वाले। पित्रकुड़ी-पूर्वजों के नाम का पत्थ्र रखने वाला छोटा हट। कलौड़ी-जवान गाय। बामण ज्यू- पंडित जी। सूट बैंत -कुल गौत्र। बामणी बौ-ब्राहमिण भाभी। काटे-शîया दान। सुकिलीरोटी-गेंहूँ की राटी। खौंजळे-भीमल के पेड की टहनियों से निकलने वाला साबुन। पौळी-पाव। कंगुले-कंघी। लगुली-बेल। ठंगरे-बेल के सहारे को लगाई बड़ी टहनी। टके की शादी-बिना दहेज की शादी जिसमें लड़के वालों को लड़की के एवज में पैंसे देने होते थे। ठया-लड़की के बदले का पैंसा। झखल्यांण-झाड़ी। कंडाळी-बिच्छु घास। भग्यान-भाग्यवान। उच्यांणा परखणा-देवता के निमित वचन रखना। पुळै-घास के गठ्ठे। लाटी ब्यंगणी-सीधी साधी। घुण्ड घुण्ड फुक्येण - घुटने तक जलना। किराण-जलने की बू। बांद-खूबसूरत। जिठाणा-जेठ। पुंगड़े-खेत। खस्यांण-मोटी तगड़ी। झण-दम्पति। गुठ्यार-गोशाला। मर्खू बल्द-मारने वाला बैल। घींघारू-एक जंगली पहाड़ी फल जिसके कांटे तेज नुकीले होते हैं। बोल-दुसरों का काम या मजदूरी। खौ-बाग-जंगली जानवर। गुणी-लंगूर। रौत मौ-रावतों का परिवार। डो डड्वार-हर फसली पर ब्राहमणों को दिये जाने वाला अनाज। स्याह पटटा-हल्दी हाथ का दिन। द्वार बाटे-दुबारा वापसी का दिन। “अदळा बुस्यैला”- कुछ न कुछ, गोठ-गोशाला।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें