रविवार, 18 फ़रवरी 2018

कुर्सी पर चूं नहीं हुई



रहा जीवन सदियों से कुर्सी की दासी
महल अजीर्ण, बाहर भूखी उबासी
जन घिसता रहा पिसता रहा
पर कुर्सी तुझ पर चूं नहीं हुई।

बुद्धि लिखती रही, बेबसी बकती रही
लाचार मरता रहा ईमानदार खपता रहा
बाहर नगाड़े फूट गए बज-बज कर
लेकिन कुर्सी तुझ पर चूं नहीं हुई।

साल बदलते रहे सार बदलता रहा
कुर्सी पर आदम से, आदमी बदलते रहे
तख्त बदलता रहा ताज बदलता रहा
लेकिन तुझ कुर्सी पर चूं नहीं हुई।

वादे होते रहे करार होती रही
कुर्सी के लिए ललकार होती रही
लपका ली गयी कुर्सी उम्मीदें देकर
लपकाते समय कसमकसाई जरूर
लेकिन चूं फिर भी नहीं हुई।

@ बलबीर राणा 'अडिग'

बुधवार, 14 फ़रवरी 2018

सावन का अंधा


   शिव रात्रि के लिए हर परिवार तन मन धन से महीने दो महीने से तैयारी करते थे। मकान की साज सज्जा हो या घर में लूण तेल की व्यवस्था, परिवार के गार्जिन की प्रतिष्ठा मानो शिवरात्रि के त्योहार में सफल मेहमानबाजी पर निर्भर होती थी, क्योंकि शिव रात्रि पर्व पर पूरे बैरासकुण्ड क्षेत्र के हर परिवार में रिस्तेदारों के साथ उनके भी सगे संबधियों का जमवाड़ा होता है। नयें रिश्ते जोड़ना या यूं कहें कि इलाके में नयीं ब्वारी की खोज का पर्व ही शिवरात्रि का मेला था। लड़की या घर परिवार देखना इत्यादि सामाजिक परिवेश पर नयें रिश्तों की  को-करार होती थी। तब हम बच्चों का उल्लास सायद आज की पीढ़ी को मयस्सर नहीं हो पायेगा, गारंटी से कहता हूं। छः महीने से गुच्छी और अंटी (कंची) से पैसे जमा करना, मकान पर पुताई के लिए कमेड़ा (सफेद मिट्टी) और  लाल मिट्टी दूर के गांव से लाना, दरवाजों के लिए गोन्त (गोमूत्र) और चूल्हे की कीर से काला पेंट बनाना, घर आंगन की सफाई, राई पालक की क्यारी को पानी दे झक झक बनाना और मैले में क्या खरीदना और कौन रिश्तेदार आ रहा है और कितने रुपये देगा इस खुशी की संसद ख़्वाले ख़्वाले और स्कूल में चलती थी। शिवरात्रि की अगली रात को  घर में सबसे बड़ा त्योहार होता अर्थात अच्छा खाना हलवा खीर इत्यादि खाने को मिलता था क्योंकि अगले दिन सभी का ब्रत होता था। शिव को फलाहार चढ़ाने तक तो हम बच्चे भी ब्रत रखते थे दाने सयाने शाम को भगवान शिव की डोली मठ से मंदिर आने के बाद ही अन्न जल ग्रहण करते थे। सुबह घर में फलाहार बनता था जिसमें तेडू स्पेशल बेराईटी के साथ पिंडालू (अर्बी), राजमा, मुंगरी और चुवे (मरसों) का बनता था। भगवान शिव को यह फलआहार बिना नमक मशाले के चढ़ता है, शिव को चढ़ने के बाद नमक मशाले से उसे लजीज बनाया जाता हैं जिसके चटकारे लोग कई दिनों तक लेते थे। शिव रात्रि के दिन सुबह से मंदिर में जलाभिषेक के लिए तांता लग जाता है मंदिर के चारों तरफ पंचदेव परिसरों में स्थानीय पंडितों की पीली धोती और लंबे टिका देखते ही बनता था, ऊपर मठ (मुख्य पुजारी निवास)  से मंदिर में बिराजमान सभी देव थानों में पुजारी की आठों पहर पूजा का अपना ही महत्व होता है। परिसर में एक तरफ कीर्तन मंडली जम जाती अगले 24 घंटे के लिए। सिद्ध पीठ बैरासकुण्ड महादेव में शिवरात्रि महातम की सबसे खास बात है अंखड दिपक रखना, अखण्ड दिया निसंतान दम्पत्ति रखते हैं और लोगों का परम विश्वास आज भी है कि अखंड दिया रखने के बाद कोई भी दम्पत्ति आज तक निरास नहीं हुआ। इस प्रक्रिया में स्त्री 24 घंटे तक हाथ में जलता दिया रख तपस्या करती है बिना अन्न जल लिए यहां तक की 24 घंटे तक शरीर की जरूरी प्रक्रिया लघु या दीर्घ संका भी नहीं जाना होता है, मर्द जनानी की कुछ जरूरी मदद करता है जैसे मख्खी हटाना या नाक साफ करना कहीं पर खुजली करना इत्यादि, इस कठिन तपस्या का साहस अपने आप में दृढ़ मातृ शक्ति का द्योतक है। पट्टी मल्ला दशोली अब विकास खंड घाट में स्थित यह शिव स्थली नंदप्रयाग से 17 मील उत्तर में पंचजूनि पर्वत के तल पर लगभग 3 एकड़ समतल मैदान के बीच बना है। स्थान का भौगोलिक और मंदिर के ऐतिहासिक व पौराणिक पहलू को इस संस्मरण में उधृत नहीं कर पा रहा हूँ इस पर पूर्ण साक्ष्य के साथ बैरासकुण्ड महातम नाम से मेरी आने वाली किताब अभी अपूर्ण है शिव कृपा होगी तो एक आध साल में इसे में पाठको तक पहुंचा सकूंगा। हाँ तो मंदिर के विशाल मैदान में दो दिन तक  मंदिर समिति के तत्वाधान में मैला चलता था जो आज भी सतत चलता है मेले में स्थानीय लोगों द्वारा विभिन्न प्रकार की दुकाने लगाई जाती है, जिनमें बच्चों के खिलौने, महिलाओं के शृंगार के सामान और मिठाइयां प्रमुख होती थी। रात को धर्मशालाओं में बुजुर्ग महिलाओं द्वारा जागर बाहर मैदान में युवाओं द्वारा झुमैला चांचडी का अपना ही आनंद होता था, दिन भर मैले में बच्चों का कोतुहल बना रहता था। तब के दौर में हमारे क्षेत्र के लोगों के लिए इस मेले का महत्व वार्षिक उल्लास का था जो वर्तमान में औपचारिक सा प्रतीत होता है । संचार क्रांति के चलते अब मंदिर तक पक्की सड़क हो गयी आधुनिक भौतिक सुख सुविधायें पूर्ण उपलभद्द है अब मेले का स्वरूप भव्य और आधुनिक हो गया है हर वर्ष राज्य की कोई बड़ी हस्ती मेले का उदघाटन करने पहुंच जाते हैं अब मेला तीन दिन तक चलता है रात्रि में राज्य के बड़े कलककरों का द्वारा सांस्कृतिक प्रोग्राम होता है और दिन में जिला स्तरीय खेलों का आयोजन होता है जो कि क्षेत्र की तरक्की और युवाओं के शाररिक और बौद्धिक विकास के लिए शुभ संकेत है। उम्र के 18वें हेमंत में सेना में आने के बाद आज 24 वर्ष तक मेले में न जा पाना अखरता है इए लिये मेरी स्मृति में 80 और 90 के दौर का बैरासकुण्ड मेले का उल्लास आज भी वैसा का वैसा है, कहते हैं सावन के अंधे को हमेशा हरा भरा दिखता है।
@ बलबीर राणा "अडिग"

शनिवार, 3 फ़रवरी 2018

बीस हजार की सिगरेट


 हठो हठो बामण जी आ गए उन्हें काम करने दो, बेहोस पान सिंह की माँ चैता रोती हुए बोली पंण्ज्यू कल देवी का डोला रखने गया था मेरा लड़का शाम को कडकडू (बेहोश) हो गया, भद्र डांडे बयाळ (बन देवी की हवा) लग गयी मेरे पानू पर, हे !! भगवान ठीक कर दो मेरे लड़के को जो मांगेगा दे दूंगा। पंडित जी ने गरुड़ पंख, कंडाली के पत्ते में राख और एक लोटे पर पानी मंगाया और अपनी पौथी निकाल झाड़ा (तंत्र कर्मकांड) डालने लग गया, ॐ हर दत्त को आदेश, डाकनी शाकिनी छू मंतर ॐ...होम क्रीं आँचडी-बयाल छू मंतर... बीच-बीच में सौलह वर्षी पान सिंह अचानक हिचक्की लेता और शांत हो जाता सभी लोग मंत्रों के असर का इंतजार कर रहे थे, बामण के मंत्र खत्म हो गए और कहा सब झाड़ दिया है बयाल का असर कुछ देर और रहेगा घबराने की बात नहीं मैं पूछ (देव अवतारी खोज) डालकर बताता हूँ कहाँ की बयाल है। पल डांडा (उधर का पहाड़ की) या वल डांडा (इधर के पहाड़ की)। तभी गांव के मास्टर जी कंपाउंडर को ले आये, उन्होंने नब्ज देखी हाल जाना और बी पी चैक करने के बाद गलूकोज स्लाइन लगा दिया और कहा गर्मी चढ़ी है मस्तिष्क में लगता है कुछ नशा किया इस मास्ता ने,  कौन थे रे साथ? साथ वाले क्या बताते सब ना नुकर कर पीछे छुप गए, मंगतु मन ही मन कह रहा था उस समय तो कमीना सिगरेट छोड़ ही नहीं रहा था, आते वक्त पूरे चार सिगरेट पियर सुल्पा (भांग) पिया अपने हाथ का सिरगाड़ वाला, लेकिन डर के मारे बताये कौन। बक्या ने भी दोखै (ऊन का बिछौना) में आसन लगा दिया, परिवार वाले और गांव के बड़े बूढे बक्या के सामने हाथ जोडे बैठ गए। ॐ थ्रू ॐ हट करते हुए पंडित जी ने गर्दन झटकते हुए चूल (चोटी) खोली और थाली से चांवल उछालते हुए कंपकंपी आवाज में कहा ऐड़ी....आँछड़ी...(बन देवियां) नहीं सिर.. सिर... गाड़ का मशाण (भूत) लगा है, इसका.. पैर...फिसला है...और शरीर... शरीर...में हिर्र...हिर्र हो गयी। तभी पीछे से मंगतु ने हाँ प्रभो सही है में स्वीकृति दे दी, वही पानसिंह के साथ डोली में आगे से लगा था, मना करता तो कंपाउंडर की दुबारा रेड पडती, पल्ला जो छुड़ाना था। शनिवार को दो बकरे के साथ मशाण पूजना तय हुआ, सिर गाड़ का मसाण खरतनाक होता है दो बकरे से कम नहीं मानता। सोबन सिंह ने पांच का सिक्का निकाला और पंडित जी को उच्चयाणा (बचन) करने को कहा। शाम तक पांच बोतल एन एस, डी एन एस दो इंजेक्शन एन्टी ड्रग के साथ चढ़ गए थे और पानसिंह ने आंखे खोल दी थी लोगों की भीड़ को एक टक देख रहा था चरस का नशा जो था। पंडित जी फिर दो बार झाड़ दे गए थे। दूसरे दिन गांव के लगभग सभी मर्द और सयाने बच्चे सिर गाड़ की धार (रिज लाईन) पहुंच गए आठ-आठ हजार के दो मस्त बकरे आ रखे थे, चैता कह गयी थी कमजोर बकरे मत लाना मेरा लड़का ठीक हो जाना चाहिए छक धिताणा (पूरी धीत देना) उस मसाण को। अगले दिन मसाण पूजा हुई सिरी-फट्टी (बकरे का सिर और एक टांग) बामण ले गया ऊपर से पांच सौ दक्षिणा, मैण-मसाले,  हलवा पूरी और पूरी दस लीटर कच्ची !भाई दो बकरे भी तो पचाने हैं, नहीं तो मसाण नहीं तूसेगा मीट घर ले जाना बर्जित है। मंगतू, देबू और करणि ऊंचे ढुंगे (पत्थर) में कचमोली (भुना हुआ कच्चा मीट) चाव से चबाते गप्प मार रहे थे, अरे बेटे पान सिंह की सिगरेट बीस हजार की पड़ गयी यार, अब नहीं करना ऐसा काम।
@ बलबीर राणा 'अडिग'

उठो पापा बक्से में क्यों सोये हो


घर में बहुत भीड़ लगी थी, एक तरफ माँ बिलख रही एक तरफ दादी, दादा एक कमरे में मौन सिर झुकाए बीड़ी पर बीड़ी सुलगाये जा रहा था, बड़ी बहन राजी जो मात्र 12 साल की थी सबक़े दुख की साझीदार हो रही थी सायद उसको कुछ आभास और समझ थी, कभी माँ के गले लग फ़फ़क्ति कभी दादी के आंसू पौंछती और कभी दादा की जलती बीड़ी हाथ से दूर फेंक रही थी। छः साल का वैभव समझ नहीं पा रहा था ये क्या हो रहा है ! सब लोग क्यों रो रहे हैं। उसके दोस्त भी अपनी माँ या दादी साथ आये थे वे भी चुप, जो भी आ रहा सर पर हाथ फिराता और रुआंसा मां दादी और दादा के पास जाते और सांत्वना देते, विधि का विधान है, भगवान अनर्थ हो गया, एरां बीर गति पा गया बीर सिंह, अपने को संभालो। घर के बाहर लोगों की भीड थी जिसमें मीडिया नेता, नजदीकी रिश्तेदार सभी थे। इतने में भारत माता की जय, बीर सिंह अमर रहे, पाकिस्तान मुर्दाबाद, बीर सिंह अमर रहे के नारे लगने लग गए। शहीद बीर सिंह का पार्थिक शरीर तिरंगे ताबूत में पहुंच चुका था, सलामी देने फौज का बैंड और बीस जवान एक जनरल साहब और कुछ ऑफिसर आये थे, किसी रिश्तेदार ने एक कंधे में ताबूत दूसरे कंधे में वैभव को उठा रखा था,  वह अबोध जनता के जोश के साथ हाथ उठा बीर सिंह अमर रहे के नारों को लोगों के साथ दोहरा रहा था। अंतिम दर्शन के लिए ताबूत खुला सबने बेहाली में दर्शन किये कोई वैभव को भी अंतिम दर्शन के लिए ले गए, बक्से में चिर निद्रा में पापा को देख वह मासूमियत से कह रहा था पापा उठो...उठो न !  इस बक्से में क्यों सोये हो? सुनो सब आपको अमर रहे कह रहे हैं, उठो न.... उठो.....रोवो चिल्लाओ मृत देह कहाँ आवाज देती है। उस अबोध को क्या पता था पापा मातृ भूमि के लिए हमेशा को अनंत यात्रा पर चले गए, अब कभी नहीं उठेंगे। इस दृश्य को देख पत्थर भी अपने आंशू नहीं रोक पाया रहा था।

@ बलबीर राणा 'अडिग'