गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

शुभम करोति कल्याणम

       


       बाहर पटाके फुट रहे थे

      गानों का शोर सराबा

      चल राहा था,

      देखा, सुना पूछा तो पता चला

      नयां साल आ रहा है।

      हिन्दू ने कहा हमारा नहीं

      इसाईयों का आ रहा है

      मोमिन बौद्ध तठस्त थे,

      सबको देख सुन

      मैं शुभम करोति कल्याणम

      कह अन्दर आ गया

      क्योंकि कर्म पथ पर

      मेरी हर सुबह

      नयें युग, नयें साल, महिने

      और नयें दिन का होता है

      सबको आपकी मान्यता

      मुबारक ।

      मेरा अंक दिवस मुबारक 

     

      @ बलबीर राणा अडिग

नूतन इक्कीस के नाम काका की चिठ्ठी

 

    


    प्रिय नूतन इक्कीस तेरी जग्वाल अब समाप्ती की ओर है और अब पांच घंटे के बाद तेरी नन्हीं किलकारियां इस धरा मंडल पर गुंजनी सुरु हो जायेंगी। तेरे आने की खुशी में पृथवी वासी अति ब्याकुल हैं। कोई केक, कोई दिया बाती, पटाके फुलझड़ीयां लेकर तेरे स्वागत के लिए बेकरार हैं कुछ कुछ ने तो महंगी से महंगी ब्रान्ड ले रखी हैं कि आज तो छक पीना है और कल से लालमणी को बिल्कुल हाथ नहीं लगायेंगे बल, कसम से। कुछ कुछ तो अबेर के जैसे बोल्या सिगरेट बीड़ी के सुटटे पर सुटटे ऐसे मार रहें है जैसे हाफ टाईम में बाथरुम की आड़ में स्कुल्या छोरे मारते हैं। वे भी कल से पीताम्बरी और स्वेताम्बरी को तिलांजली देगें बल। और तो और कुछ कुछ आदर्श खरचिली गृहणियों ने आज खूब सौपिंग कर ली और घर में खूब पार्टी सार्टी का इंतजाम भी किया कि कल से वे अपने फिजूलखर्ची पर लगाम लगायेंगे। ये तो भ्वोळ से ही देखी जायेगी कि कौन कितना वादा निभता है। प्रिय नूतन इसी तरह पिछले अन्य बर्षों के आने के स्वागत में पृथवी लोकवासी आने वाले नूतन वर्ष का स्वागत सत्कार करते आये है और आगे भी करते रहेंगे। यह लोक आशाबाद पर जीता है और आने वाली चुनौतियों का मुकाबला करता है।  

      अब तेरे आने से पहले पत्र लिखने का खास कारण इस प्रकार है कि रिवाज के अनुरुप पिछले साल तेरे बड़े भाई बीस बीस के स्वागत में हमने कोई कोर कसर छोड़ी थी। पर वा र्निभगी ना ना प्रकार के दुख और सबक दे गया। पिछली जनवरी को चीन के बुहान के अलावा पूरा विश्व नव उंमग और नव उर्जा के साथ बीस के साथ आन्दमयी जीवन निभाने के लिए अपने अपने कर्यों में तल्लीन हो गये थे। मार्च आते आते एक अदृश्य वायरस करोना ने सारे संसार को हिलाना सुरु कर दिया और जन मानस अपनी जान की चिन्ता में त्राहीमान करने लगे।

हमारे देश में सफेद दाड़ी बाल वाले राष्ट्र नायक ने बाईस मार्च को जनता र्कफ्यू की अपील कर दी पूरे देश ने राष्ट्र नेता की आज्ञा का पालन किया और जनता र्कफ्यू को सफल बनाया फिर क्या था फिर था सफेद दाड़ी बाल वाले ने पच्चीस मार्च से सम्पूर्ण लॉकडाउन की घोषणा कर दी, और यह सिलसिला आगे बड़ता गया। जीवन पंछी के पर रुक गये जीवन घरों में कैद हो गया। राशन की दुकानों में लाईन लम्बी होती गयी। पेट्रोल पम्प घाम तापने लग गये सड़के सूनी हो गयी, रेल, जहाज, गाड़ी, घोड़े खाली हाथ बैल बेचे जैसे हल्या के खोल्ये रह गये।

प्रिय नूतन इक्कीस बाबू एक हप्ते में सम्पूर्ण धरती ऐसे चकाचक साफ हो गई मानो ऐरियल डिटर्जेन्ट से धुलाई की हो। खग मृग पोन पंछी स्वछन्द विचरण करने लग गये। वाटसैप फेसबुक के भले दिन आ गये लोग विडीयो कॉल और ऑनलाईन में करतब दिखाने लगे। घर में बैठे बच्चे बड़े बूड़ों संग रामायाण देख संस्कार सिखने लगे और दादी नानियों के किस्सों के दिन आने लगे। एक ही घर के अन्दर रहने वाले जो जो भाई भौज नोकरी के चलते हप्तों तक आपस में नहीं मिल पाते थे वे आपस में कैरम बेटमिंटन, सांप सीड़ी, लूडो और तास सीप में जमने लगे। मर्द किचन और फर्स पौंचे में बीबी का हाथ बांटने लगा। सुबह सुबह घर की छतों में सूर्य नमस्कार और योगासन होने लगा। भारतीय आयुर्वेद जुबान से व्यवहार में आने लगा। बिचारे तेज पत्ता काली मिर्च सौंप, गिलोई आदी औषधियों की घर घर कुटाई होने लगी। रामदेव बाबा की दुकान को और चार चांद लगने लगा।    

      नूतन इक्कीस बाबू तीन महीने ऐसे ही किसी की मौज में तो किसी की फौज में कटी विशेषकर  अपने मजदूर भाईयों का सबसे ज्यादा निरोण हुआ विचारे झोला तमला और अपने सेर पाथों को कोळी उठाकर पैदल ही भूखे नंगे अपने पुश्तेनी घर कूड़ी की और लौटने लगे। गांव की बंजर कुड़ियां आवाद होने लगी। विरान उबरों से धुंवा आने लगा तो जाले लगे डंडियाळियां चहकने लगी। बांझ से घीरी चौक की पठाली बांझा मुक्त होकर खुशी के मारे नाचने लगी। चलो यह र्निभगी करोना किसी के मुख पर तो हंसी लाया।

      पर बाबू क्या बोलना इस दुर्बीज ने ऐसा अनर्थ किया कि जो इसका ग्रास बना उसको अपनो के हाथ का आखरी पानी की घूंट तो दूर कंधा तक नसीब नहीं हुआ। लोग अपनों से ही भय खाने लगे। खिलते स्वाणे मुखड़ों पर म्वाले लग गये, लोग हाथ मिलाना तो दूर हर घड़ी सनिटाईजर से हाथ मलने लगे। लुतड़े लग गये बाबा हाथों पर। बाहर से आये आदमी को लोग ऐसे देखने लगे ऐ ब्वोयी जैसे यमराज आया हो। खैर जाने वाले ने जाना ही था क्योंकि उसका दाना पानी इस लोक में समाप्त हो चुका था पर भय नाग बन सबके झिकुडियों को हिर्र हिर्र डराता रहा। सबसे ज्यादा नींद खराब उन ज्वान नोने नोनियों की हुई जिनकी शादी कैन्सल हुई ऐंरा बिचारे तीन तीन, चार चार महिने सुहागरात की जग्वाल में करवट बदलते रहे। 

      चलो जैसे तैसे सरकार और जनता ने हिम्मत बांधी और काल करोना के साथ जीने का तरिका अपनाना सुरु किया नयें अंग्रेजी शब्द आम लोगों की घर्या जुबानी डिक्सनरी और व्यवहार में शामिल हो गये। जैसे सेनिटाईजेशन, सोशियल डिस्टेसिंग, क्वारन्टाईन, होम आईसोलेसन आदी आदी। बाबू जून से लॉककडाडन खुलना सुरु हुआ और आम जिन्दगी पटरी पर आने लगी। अब तेरे बड़े भ्राता बीस के जाते जाते वैज्ञानिकों ने दुनियां की सांस बढ़ा दी है कि ब्वना छाँ कि वेक्सीन तैयार हो गई बल। किसी किसी देश ने तो लगानी भी सुरु कर दी है बल। पर अभी भी वो लम्बा सफेद फ्रेंचकट दाड़ी वाला अमिताभ बच्चन अपनी भारी रौबिली आवाज में मोबाईल पर समझा बुझा रहा है कि जब तक दवाई नही तब कोई ढिलाई नहीं। अफूं त ढीला होकर करोना ग्रसित हो गया था पर भाई आखिर जंग जीत गया तो उसने बोलाना ही जो ठैरा।

      ये है बाबू नूतन इक्कीस तेरे पीठी के बड़े भाई बीस की बिदागत। ये तुझे इस लिए बताना भी जरुरी था कि उसका असर पसर तेरे पर भी पूरा का पूरा रहने वाला जो ठैरा ताकि तू भी अभी से कमर कस ले। पर बाबू और कुछ अचाणचक वाली आफद मत लाना यार जैसे बाड़ साड़, रगड़ बगड़, खंड मंड और चीन पाकिस्तान जैसे दुर्बिज पड़ोसियों की बिना बात की छिंज्याट। तुझे पता नहीं कि इन झगड़े फिरसादों और करोना के चक्कर से हमारे कई फौजी भाई पूरे साल भर छुटटी नहीं काट पाये ऐरां विचारे देश खातिर लदाख, नीती माणा, सिक्किम और अरुणाचल की हिंवाली पहाड़ियों में तड़तड़े अडिग हैं। चल त मैं भी अब तेरे स्वागत की तैयारी करता हूँ मेरे दगड़या ने स्पेशल ब्रांड रखी है बल आज। बाकी भ्वोळ से देखा जायेगा तेरे साथ। जय हिन्द।

                                                                    तेरा शुभचिन्त

                                                                    अडिग काका

 

@ बलबीर सिंह राणा अडिग

बीस सौ बीस

बीस सौ बीस चला गया तू

चित्र विचित्र दिखा गया तू 

एक ही भेषधारी मानवों में 

देव दानवों को बता गया तू।


इतिहास तुझे जब याद करेगा

पुनरावृति न हो फरियाद करेगा 

देह अपनो के हाथ को तरसी थी 

निरीह निरासा के लिए याद करेगा। 


हाँ कुछ अद्भुत तू  दिखा गया

कुछ नव नीत रीत सिखा गया

चंद में भी निभ जाता जीवन 

राह संयम धैर्य की दिखा गया। 


सत रंगों से विलग तेरे रंग देखे 

कुछ पद छंदों में, कुछ भंग देखे 

नकली शोर सराबे से कुछ दिन

प्रकृति और प्रदत संग संग देखे।


साल बुरा नहीं था बनाया गया 

सरारती जाल में फंसाया गया

बुरे मुल्क के किये के सिले से

सबको भंवर में डुबाया गया । 


अब रुके आहिस्ता चलने लगे 

चेहरों के ढक्कन उतरने लगे

संकुचित वैभव की कलियाँ 

कुसुम बन चमन में फूलने लगे। 


चल अलविदा बीस बीस 

नहीं है तुझसे कोई रीस 

उतार चढ़ाव का है जीवन 

बुझती नहीं जिजीविषा तीस। 


31 दिसंबर 2020

@ बलबीर राणा अड़िग








गुरुवार, 12 नवंबर 2020

दिवाली मुक्तक

 


हजारों दिये चाहे जलाओ घर में
झुलाओ झालरों को पूरे शहर में
तम चमक से तिमिर जाने का नहीं
जो राम ना बसा हो अगर उर में।
 
उड़ाओ रॉकेटों को फोड़ों पटाके
चलाओ अनारों को करो धमाके
खुशी नाद बनके गुंजेगी तभी 
जब चले़ कर्म मर्यादा के रास्ते।
 
रहे भान इतना दिवाली अहम ना बने
बारुद और कचरे से माँ धरा ना पटे
जले प्रेम दीप घर और चौक चोबारा
राम लौ से कोई कौना अछूता ना रहे।
 
बटुवे में रोशनी नहीं समाती
बल-दल शक्ति खुशी नहीं लाती 
राम सोच विचार का नाम दिवाली
ये मनुज मन को उज्जास कराती ।
 
जलेगा प्रीत दीप तो अंधिया ढहेगा
निर्मल गंगा के जैसे निर्वाध बहेगा
तन मन पाप मैल से मुक्त होके रहेगा
पर्व पावक था, है, पावक ही रहेगा।
 
दीप छोटा सा है सूर्य अवतार है
धूप ना दे सके फिर भी पहरेदार है
भले एक फूंक का है वो निवाला
लगे देह पर तो फिर वो अंगार है। 
 
भले सुदामा से पिंड छुड़ा लिया हो
दुधिया बल्बों से घर जगमगाया हो 
दुबका तिमिर कौने का भागेगा नहीं  
रामचरित्र दीप जब ना टिमटिमाया हो। 
 
@ बलबीर राणा ‘अडिग’
 
www.adigshabdonkapehara.blogspot.com


 


 

गुरुवार, 29 अक्टूबर 2020

वायरल पहाड़

 


      प्रवासी रीना छुट्टीयों में गांव जा रखी थी उसे बचपन से बहुत जिज्ञासा थी अपनी जन्म थाती पहाड़ी जीवन वैभव देखने और समझने की। गांव की काष्ठ देह ताईयों, चाचियों और हमउम्र सखियों के साथ खूब घूमी। सीढ़ीनुमा खेत, सदाबहार जंगल, रौनकदार बुग्याळ, खाळ, धार, सदानीरा गदेरे, झरने, कोई जगह नहीं छोड़ी साथ में  अपने डी एस एल आर और मोबाईल में कैद करती रही प्रकृति की अनुपमताओं को, सेल्फी हल के पीछे कुड़ते चाचा, चट्टान पर घास काटती भाभी, डालियों पर उछल कूद मचाते लंगूर, गोधुली में घर लौटती बकरियों की तांद, अपनों के वियोग में कराहती बूढ़ी दादी, आदी आदी के साथ ।

      नित्य सोशियल मिडीया पर अपडेट। कुछ फोटो कविता गजल में गढ़ी जा रही थी कुछ स्लोगनों में मढ़ी जा रही थी। विडीयो यू टयूब और टिकटॉक पर धूम मचा रहे थे।  रीना वायरल थी दुनियां में ट्रेंड कर रही थी और अपने काठ के जीवन मे ठाट की बाट जोहता पहाड़ अपनी जगह मूक बदिर रो रहा था, कराह रहा था पलायन के दंश से। संताप में था अपनी जवानी और पानी के लिए जो कभी उसके काम नहीं आई।

@ बलबीर राणा ‘अडिग’

Adigshabdonkapehara 


रविवार, 18 अक्टूबर 2020

प्रकृति निधि

 यही प्रकृति निधि यही बही खाते हैं

मोह, प्रेम राग/अनुराग भरे नाते हैं

चेहरे ये आते जाते राहगीरों के नहीं

ये आनन हर उर में घर कर जाते हैं।


पतंग का दीपक प्रेम, पंछी का कीट

मछली का जल, बृद्ध का अतीत

उषा उमंग का निशा गमन करना

दिवा ज्योति का तिमिर हो जाना।


फेरे हैं ये फिर फिर कर फिर आते हैं

यही प्रकृति निधि ..............


सुकुमार मधुमास का निदाघ तपना

निदाघ का मेघ बन पावस में बहना

तर पावसी धरती शरद में पल्लवित

तरुणाई शीतल हेमंत में प्रफुल्लित।


फिर शिशिर में बुढ़े पत्ते झड़ जाते हैं

यही प्रकृति निधि........


 मेघों का निर्भीक अंबर टहलना

खगों का निर्वाध विहारलीन होना

चलती पुरवाई निर्झक  मदमाती

धरा नन्हे अंकुर को हाथ बढ़ाती।


सृष्टिकर्ता की कृतियाँ जीवन गीत गाते हैं

यही प्रकृति निधि यही बही खाते हैं।


निदाघ - ग्रीष्म,  पावस- वर्षा


@ बलबीर राणा 'अड़िग'

Adigshabdonkapehara 

गुरुवार, 15 अक्टूबर 2020

मिर्गी वाला

 

पहले गिरता

कटे पेड़ की तरह धड़ाम

फिर अंधड, जलजला

भूकंप, सुनामी

एक साथ थामता

पूरी विनाश लीला को

फिर !

उठ बैठता

शांत सील

जैसा कुछ हुआ ना हो

चुपचाप टटोलता है

बबंडर के अवशेष

शरीर पर।

इस सजा की किसी से

ना सिकवा न शिकायत

हाँ ! आतंकित करता

परिजनों को हमेशा के लिए

थमने का। 

 

@ बलबीर राणा अडिग

Adigshbdonkapehara.blogspot.com


 

 

गुरुवार, 8 अक्टूबर 2020

बसंती



      आदर्श पुरुषों और प्रकृति के अनुपन चरित्रों पर बच्चों के नाम रखने की परम्परा आदिकाल से रही है, बशर्ते इस कलिकाल में लक्षमसिंह भ्रातसेवक न होकर भ्रातहंता बन जाता है और राधा रुकमणी नाम अश्लील राधे माँ चरित्र। परम्परा के अनुरूप माँ बाप ने उसका नाम बंसतीं रखा कि उनके आते ही घर में बसंत आ गया और उनकी लाडली भी इसी मधुमास की तरह झकमकार फुल्यार और सुगंध वाली बने। आशावाद जीवन को उर्जित और अर्जित बनाने वाला जो ठहरा, सभी धर्मावलंबी इसी आशावाद से आज भी अपने आदर्श और देव पुरुषों के नाम रिपीट करते हैं। 

     बसन्ती का नाम भले बसंत पर हो लेकिन उसकी जिजीविषा को इस शब्द ने हमेशा ललकारा और जीवन उपहास करता रहा। हाँ उसने नाम को चरिथार्त करने के लिए कर्मो की आहुति देना जीवन पर्यन्त नही छोड़ा। लोग कहते बसंती तेरा भाग्य नहीं दुर्भाग्य है और दुर्भाग्य का जन्मांतर बसंत से बैर रहता है। पर बसंती को अपने पर आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास था कि वह जीवन को दो मासी बसंत नहीं बारामासी बंसत बनाएगी। उसे यकीन था कि सत्यपथ पर कर्मो की यात्रा बसंत रूपी जीवन तीर्थ पर ही विश्राम लेता है और कुपथगामी फलांग तक ही बसंत देख सकता उसकी अग्रिम राह चौमास के कुहासे में विलीन रहती है जहाँ जिजीविषा को कुछ नहीं दिखता और जीवन को उजास मिलने की उम्मीद बेमानी। 

    बसंती का बचपन बासंती बयार के संग चुलबुल गीत में फुदक रहा था कि भाग ने भताक मारी और अचानक इस कोमल लता पर ओला वृष्टि हो गयी, ऊपर उठते बेल के हाथों को वृष्टि ने ठंगरा* कर दिया। आठ वर्ष में तात साया उठ गया। माँ उमा देवी का लावण्य यौवन रामस्वेणी* के लबादे में कच्छ का रेगिस्तान बन गया। चंद्रमुखी लौंग के बिना नाक बेसुणा* और अशोका बृक्ष के जैसे शंकुकार सिंदूर के बिगैर माथा खड़खड़ी* चट्टान जैसे दिखने लगी। बिना माली के बगीचे में अब तीन पत्ते, आठ की बसंती चार साल का दीनू (दिनेश) अर माँ उमा। उस दिन माँ बार बार पछाड़ खा बसंती को गले लगाते कहती हे मेरी बसंती चले गया हमारा बंसत हमेशा के लिए और नन्हीं जान कहती नहीं माँ मैं हूँ। 

   पीताजी चरण सिंह की अपणी निजी गाड़ी थी जिला मुख्यालय से राज्य राजधानी तक रोज आने जाने का गंतव्य, बारह साल की ड्रावरी में न जाने कितने यात्रियों को उनकी सुखद मंजिल तक पहुंचाया था, मिलनसार आधुनिक व्यसन विष से परे ईमानदार आदमी, बड़े बड़े अधिकारियों की पसंद चरणी ड्राइवर। लक्ष्मी खूब मेहरबान हुई। चाक चौबंद घर कूड़ी से लेकर परिवार की आधुनिक साज सज्जा रखी थी। पढ़ी लिखी सुशील सहचरी उमा के साथ दाम्पत्य गमला  बसंती और दिनेश दो फूलों से सुशोभित था। 

     बल जिसका भाग विधाता ने उल्टी कलम से लिखा हो उसके जीवन में खुशी जल्दी रुष्ठ हो जाती है।  चरण सिंह भी इसी उल्टी कलम की लिखाई से था। पीताजी भरी जवानी में देश के लिए बॉर्डर पर चिन गया था उसी गस में माँ पाँच साल तक ही पेंशन खा पायी थी।  पंद्रह की उम्र में बिना मात तात का पात चौराहे पर पड़ गया। पहाड़ी ढलान का गंगलौड़ा* लुढ़कते संभलते जैसे तैसे बारहवीं कर पाया था। आगे माँ सरस्वती की बाट चलना मुनासिब न देख जिजीविषा ने गाड़ी का स्टेरिंग थाम लिया था। लगन ने तीन साल में ही गाड़ी का मालिक बना दिया था, अंदर बाहर चरण की चराचर, गिरस्थी में बसंत। 

     श्री लक्ष्मी का अधिक लगाव इन्शान को लालची बना देता है, भव्यता का लुभावन जैसे पतंग का दीपक। इससे चरण सिंह भी अछूता नहीं रहा था। दिन प्रतिदिन नींद हराम कर रात दिन सवारी ढोने लगा। इसी व्यस्तता में एक दिन, रात को सवारी छोड़कर शहर से अकेला घर आ रहा था कि हिम्मत पर नींद भारी पड़ी और गाड़ी सहित अलकनंदा में समा गया। अपना भाग अपने पीछे घर की डंडयाली* पर बैठा गया।

     आठ की चुलबुल बसन्ती के बासंती जीवन को अकारण जेठ की तपन, सावन के कुहासे और पूस की ठिठुरन ने एक साथ झपाक से दबोच लिया था। माँ उमा ने नारी सतीत्व सर माथे रख जवानी की रुमानियत को ठेंगा दिखाया और काठ के पहाड़ी जीवन में काठ की देह बनाते हुए गिरस्थ की मूठ संभाल ली। खेती बाड़ी, मनरेगा मजदूरी के साथ आंगनबाड़ी मास्टरणी से चरण सिंह की सजायी गिरहस्थी को बाग के जैसे बिल्ली कर रही थी। 

     बसंती बेटी-माटी जो ठैरी, कम उम्र में ही माँ की जांठी* बन गयी चुल्हा चौका से लेकर खेत खलिहान तक सहारा। बेटों के बनस्पत बेटियां को भगवान समय से पहले संवेदनशील और अकलवान बना देता है, यह इसलिए भी कि वह धरती माँ का प्रतिरूप जननी होती है। जनक से जननी का स्थान जादा जिम्मेदाराना और पुज्य ठैरा साब। अठारह वर्ष में बारहवीं करने तक लकारवान* बसंती ने ममता की छाँव में काष्ठ के पहाड़ी गिरस्थी के सारे गुर सीख लिए थे। 

       बेटी की बढ़ती देह देख माँ उमा को चिंता सताने लगी कि आगे की पढ़ाई के लिए बाहर कॉलेज में कैसे भेजूँ,  पर बेटी भी सत्य सावित्री की कोख से जन्मी थी माँ को सब ऊँच नीच का वचन दे बसंती ने पितृ पिता चरण सिंह की मेहनती चरण धुली डंडयाली से माथे लगाई और शहर में डिग्री कालेज में एडमिशन ले लिया। छः साल कॉलेज और घर को बराराबर देखते हुए फर्स्ट डिवीजन से मास्टर डिग्री के साथ बी एड पास कर पक्की मास्टरनी बन गयी। भुला दिनेश भी इंटर पास हो गया था। परिवार में एक बार फिर बासंती बयार बहने लगी। 

     नोकरी के दो साल बाद समझाने बुझाने पर माँ ने बसंती के हाथ पीले कर दिए, जवांई पेशे के जलागम विभाग का सरकारी कलर्क था। घर की बासंती उड़कर दूर काली गंगा पार चली गयी। बुराँस सी लाल, प्योंली सी कोमल बसंती की जोड़ी निरा बेमेल,  क्लर्क पतीदेव ठिगने कद का, काला, मितभाषी, रूखा गड़गड़ा*, कम उम्र में बड़ी तौंद, मुँह चौबीस घंटे गुटके से भरा और शाम को पव्वा का याड़ी। बसंती ने शादी के दिन ही देखा था, बरमाला के वक्त सिहरते सोच रही थी इस बेमल से कैसे निभाऊंगी पर अब कर भी क्या सकती वह सेहरा बांध देहरी पर माला ले खड़ा जो हो चुका था। बेमेल जीवन से सामंजस्य बनाना उसने माँ से खूब सीखा था, इसी बेमेल को जीवन का अटूट मेल बनाकर सहेजने का प्रण बरमाला डालते लिया। 

    शादी से पहले मिलने को उसीने व्यस्तता का वास्ता दे असहमति दी थी। फोटोशॉप की तस्वीर ठीक ठाक लगी थी वही उसकी सोशियल मीडिया डीपी भी थी। फिर बसंती भी आदर्श नारी की प्रतिमूर्ति, लज्जा से खुद मिलने की पहल नही  की थी। गाँव वालों ने खूब ताने दिए  कि ऐरां रामस्वेणी नोनी जवें मुच्छयळा जनु बाड़ी ढीन फर। भाग ने फिर भताक*  मारी थी। (अरे विधवा की की बेटी का जमाई जली लकड़ी जैसा मडुवे के हलवे का गोला)

       रिस्ता दूर की रिश्तेदारी ने दूर काली गंगा पार का ढूंढा था इसलिए लड़के का चाल चलन सूत बेंत बंसन्ती और माँ अच्छी तरह नहीं जान पाई थी। मात्र क्लर्की के खूंटे बाँधने और बंधने पर माँ बेटी तैयार हो गयी थी। एक धार* पार बसंती की पोस्टिंग दूसरी धार पार जवांई की। बसन्ती की छुट्टीयाँ कभी ससुराल में सास ससुर की सेवा कभी पति महोदय के साथ तो कभी माँ की खैर खबर में जंदरा* बनी रहती। पति देव सच्ची में बाड़ी का जैसा ढीना, छुट्टी में भी अपनी जगह से हलचल नहीं होता फिर कहाँ की पिकनिक कहाँ का रोमांस घूमना फिरना।  साल में महीना भी पति सानिध्य नहीं मिलता जिसके चलते पति को समझने और समझाने में समय की बेड़ियां आड़े आ रही थी। 

        बंसन्ती ने दाम्पत्य गाड़ी दुरस्त करने के लिए नोकरी छोड़ने का मन बनाया पर उसकी लगन और आदर्श शिक्षिका की भूमिका से सहकर्मीयों और माँ ने इजाजत नहीं दी। शादी की तीसरी सालग्रह पति के साथ कहीं बाहर मनाने की मंसा से जब वह  लंबी छुट्टी लेकर   पति के सरकारी आवास पहुंची तो कमरे पर ताला और पति नदारद पाया। ऑफिस और अन्य सहकर्मियों से पता चला पंछी उड़कर बिलैत को गई। वहीं पड़ोस की किसी शहरी महिला के साथ पंद्रह दिन पहले बोरी बिस्तरा बांध टेक्सी सवार हुआ था। और उससे पहले ही बड़ी पहुँच से जुगाड़ मारकर शहर में ट्रांसफर करवा लिया था।

      अब खा बसंती माछा ! भाग की एक और भताक। एक बार फिर मायके की देहरी पर बैठा बाप का भाग्य उसे ठहाका मारते दिखा। बसंती कहाँ तेरा बसंत। एक महीने बाद उसका फोन आया कि कोर्ट में तलाक के लिए आ जाना, क्या करती तलाक पर हस्ताक्षर किए और रेगिस्तानी दाम्पत्य को तिलांजली दी। 

       बसंती कभी सोचती थी कि लोगों के तो साटी बुसेन्दा* पर उसके चांवल क्यों ? चलो देखते हैं दुर्भाग्य कितनी भताक देता है असम्भव न बंश में था ना दूध में, कमर कसी और माँ सरस्वती सेवा भाई की पढ़ाई और माँ की देखभाल में जुट गई। माँ ने लाख समझाया कि दूसरी शादी कर ले अकेला जीवन पहाड़ जैसे होता है सामर्थ्य तक चढ़ेगी पर बाद में क्या होगा ? आज मैं हूँ कल को भै-भोज* किसी के नहीं देखते। लेकिन बसंती ने भीष्म प्रण ली थी कि अब दूसरी शादी नहीं करेगी उसे पति जात से भय लगने लगा था। 

       बेमेल होने के बाद भी जिस मर्द को इतना चाहा दिन में दसियों बार फोन पर खुसखबर लेती थी। कितना अनुरोध किया था कि या मेरी पोस्टिंग अपने कार्यक्षेत्र में कर दो या आप ही यहाँ आ जाओ पर वह मर्यादा की सौतन पहले से बन बैठा था तो कैसे सात फेरे का महत्व समझता। अब आगे धोका नहीं खाना चाहती मैं भी उमा की बेटी हूँ अपने बच्चे नहीं होंगे तो कौन सी जागीर बंशहीन हो जाएगी, ये इतने विद्यार्थी मेरे बच्चे तो है मदर टेरिसा तो इंग्लैंड से आकर कलकत्ता में भविष्य के पौधौ को सींचती रही, ये तो मेरे मुल्क और मेरी थाती के बच्चे हैं। 

       अब बसंती का तन मन धन इलाके के गरीब बच्चों को संवारने, निआश्रितों और धार्मिक सेवा में इतना तेज भागने लगा कि पता नहीं चला कब मांग के बालों पर बर्फ गिर गयी। कुछ साल बाद माँ भी नाती सुख देख बैकुण्डवासी हो गयी थी। भुला दिनेश बच्चों सहित शहर में प्रवासी बन गया था। 

      अब अधेड़ बसंती ही पीताजी की बंजर खोळी* खोलनहार, छुटियों में चौक, कुलाणा, बाड़ी-सगौड़ी* साफ करती, लकड़ी पाणी कठ्ठा करती मकान पर धुंवाँ लागाती, द्यबतों* के थान* में दिया जलाती, तीनभित्या मकान के आठ कमरों और बाहर जगंले के बल्ब ऑन करती, घरबार में जाकर दादा दादी की निशानी कुठारों और फुँगलों को अगरबत्ती करती, रोटी सब्जी बनाती पितरों को अग्याल* रखती, मोरी पर पंचमी को जौ लगाती दिवाली में फूल माला। और फिर फुर्सत पर डंडयाली में बैठे पीताजी के भाग और अपने भाग की हंसी ठिठोली देखती कि कौन असली बसंत। 

       उसके प्रण ने जीवन को स्वयं के नाम का पर्याय बसंत बनाने के लिए कभी विश्राम नहीं लिया शिक्षा सेवा में रहते हुए आदर्श शिक्षक राष्ट्रपति सम्मान, निआश्रित सेवा में कई समाज सेवा सम्मानों से नवाजी गयी। सेवामुक्त होने के बाद थाह नहीं ली पिताजी के त्यभित्या* मकान को दुबारा सजाया संवारा, बगल में और कमरे बनाये फिर घर में ही निःशुल्क बाल विद्यालय खोल दिया।  

     अब दिन रात बच्चों की चैं चैं पैं पैं से तिबारी महकती है, बाड़ी सगौड़ी में झकमकार नाना प्रकार के पुष्प और सब्जियाँ खिलते हैं, गौशाला में दुध्यार* गाय और उसकी बछिया रंभाती है, और इन सबके लिए एक झुकी कमर, आंखों पर जंरीर वाला चश्मा और सफेद मुंड की यौवना दिन रात खटकती। आज चरण सिंह के घर में बारामास बसंत कभी खिलखिलाकर हंसता कभी मंद मंद मुस्कारता और इसकी सुंगध से मोहित बसंती घिंदुड़ी जैसी फुदकती रहती और चरण सिंह का भाग्य उस डंडयाली को छोड़ चुपचाप कहीं चला गया था हमेशा के लिए।


गढवाली शब्दों का अर्थ 

भाग - भाग्य, ठंगरा - ठूंठ, रामस्वेणी - विधवा, बेसुणा - कुरूप, खड़खड़ी - बिना पेड़ पौधौं का भयावह। गंगलौड़ा - गोल पत्थर। डंडयाली - दोमंजिले वाला कमरा। जांठी - लाठी । लकारवान - योग्यवान। गड़गड़ा - अकड़ालू। भताक - ऊंचाई से गिरना। धार - रिज लाईन। जंदरा - हस्त चालक चक्की। साटी - धान। बुस्येन्दा - बाली पर दाना न बनना। भै-भोज - भय्या भाभी। खोली - मकान का मुख्य बड़ा दरवाजा। कुलाणा - मकान का पिछवाड़ा। बाड़ी सगौड़ी - बगीचे, द्यबता - देवता । थान -  मंदिर। अग्याल - नैवेद्य। त्यभित्या - तीन दिवालों वाला। दुध्यार - दूध देने वाली।

@ बलबीर राणा 'अड़िग' 

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शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

माँ का सन्दूक



     


    ऐ पूसू लालाऽऽ। है रे कोई घर पर ? माँ ने पुष्कर (पूसू) लाला के चौक की मुंडेर से आवाज लगाई। हाँ, आ रहा हूँ। कौन है ? कैसे लोग हैं पूजा भी नहीं करने देते सुबह सुबह क्या चाहिए होगा ? पुष्कर लाला पूजा की घंटी बजाते हुए मन ही मन बड़बड़ाया। माँ ने पुष्कर लाला के चौक की मुंडेर पर कर्छुले से दरांती निकाल टिकातें हुए बोली, पूसू बाहर आ क्या कर रहा है अन्दर ? घाम दुपहरी को आया है तेरी पूजा अभी तक चल ही रही है अरे ज्यादा पूजा पाठ से नहीं होता जो भाग्य में लिखा है वो मिल जाएगा, जल्दी आ मुझे अभी बहुत काम है। कुछ देर बाद पूसू लाला पूजाघर से बाहर आते हुए बोला, बोजी क्या चाहिए क्यों इतनी हड़बड़ाहट में है ? मिल जायेगा सारी दुकान तुम्हारी ही है। माँ ताना देते हुए बोली, हाँ हाँ दुकान हमारी क्यों नही होनी है ! तेरी दुकान ही तो है मेरा चव्वा खाली करने पर लगी है। लाला, क्या बोल रही है ? क्या हो गया तुझे आज सुबह सुबह ? मेरे पास तो उज्याड़ खाने वाले गाजी भी नहीं है खुंडे पर एक भैंस बंधी है घास पानी खुंडे से बाहर नहीं फिर मुझे क्या सुना रही है आज सुबह- सुबह ।

     अरे लाला उज्याड़ खाया होता तो कोई बात नहीं थी, पर तुने काम ही ऐसा किया कि तेरी धोण काटनी हो रखी है। लाला, काट दे मैने जो इतना गुनाह किया तो। बोल क्या बात है? अपने घर की बात है परेसान न हो। माँ रुआँसी होते हुए बोली, लाला तू मेरे पैंसे वापस दे दे मैने कैसे-कैसे एक-एक करके  जोड़े थे। लाला सकते में, अरे बोजी तेरी तबियत तो ठीक है न ! क्या बोल रही है कौन से पैंसे कैसे पैंसे ? कब दिए तूने मुझे पैंसे ? आ हा हा ! कौन से पैंसे ? देखो कैसे अनजान बन रहा है। ऐसा अन्यों करेगा तो कैसे पचेंगे तुझे ? माँ ने गुस्से में कहा। दुकानदार अचरज में पड़ गया कि मैने इनसे कोई पैंसा लिया नहीं लेकिन ये ऐसा आरोप क्यों लगा रही है। लाला कुछ सोचने के बाद बोला, अच्छा …! तो ये बात है ।

     लाला समझा गया था। लाला हँसते हुए बोला, तभी तों, मैं सोचता था कि ये लड़का डेली पैंसे कहाँ से लाता है। माँ, हाँऽऽ..... ! चल अब दाँत मत निपोड़। इतना मातबर मत बन। तु सोचता तो मेरी घर कूड़ी खाली नहीं होती।  अरे बोजी मैं सोचता था कि अपका बुड़ापे का लड़का है और तुम उसे देते होंगे। अरे इतना तो पार चैंधार वाला मास्टर और तल्ला ख्वाळा का सुबेदार भी नहीं देता अपने बच्चों को। सम्भालो अपने लड़के को। बल ‘सुई पर गीजी च्वोर मौड़ पर गीजी मनस्वाग‘। आज अपने घर का सफाचट कर रहा है कल हमारे घर में भी हाथ साफ करेगा, लाला उपदेश पर आ गया।

     माँ, फिर ताना देते हुए। ओ हो हो....! हे मेरा इमानदार। पूसू तू भला काम नहीं कर रहा है, मेरी जड़ घाम लगेगी तो फिर देख गरीब के आँसू कहाँ लगेंगे। अरे जब तू समझा गया था कि बच्चा घर से पैंसे चुराकर तेरी दुकान से टॉफी बिस्कुट खा रहा है तो तूने हमको क्यों नहीं बताया ? कुछ जमीर बचा या नहीं ? हाँऽऽ... तुम दुकानदारों को तो अपनी बिक्री से मतलब है। अब हिंकी फिंकी न कर और मेरे जितने पैंसे हैं तेरी दुकान में आये हैं उसे लौटा दे। लाला। अच्छा ! कितनी सयानी हो रखी है, जैसे ये सब समान तूने खरीद कर रखे हों मेरे पास। मेरी टोफी बिस्कुट जैसे फ्री के आ रखे होगें। तेरा बेटा पिछले तीन महिने से खुद भी चटका रहा है और अपने दोस्तों को भी खिला रहा है। तभी तो ! मैं कह रहा था कि आजकल मस्तू मास्टर और सोबनी सुबेदार का लड़का तेरे बेटे के साथ एक गळज्यू क्यों हो रखे हैं, हर समय उसके साथ चिपके रहते हैं। कोई चीज होती तो मैं बोलता वापस कर दो, अब खाने वाली चीज कैसे वापिस करोगे ? कर सकते हो तो कर दो मैं आपके पैंस वापस कर दूँगा वैसे एक बार खरीदा हुआ समान वापस नहीं होता।  

     माँ फुसलाने वाले अन्दाज में, चल ये बता वो खडोण्यां आज तक कितने पैंसे लाया होगा तेरे यहाँ ? लाला इतना हिसाब मैंने भी नहीं लगाया लेकिन लगभग पाँचेक सौ से ज्यादा तो चटका गया होगा, तीन महिने से लगभग हर दिन आ रहा वह दुकान में। माँ, यहाँ क्या किसी और दुकान में से भी खाता होगा, पाँचेक सौं से गड्डी इतनी कम नहीं होती। वो तो कल मेरी नजर पड़ गयी कुट्यारी पर। तू ही बता लाला, मैं तो ठैरी निरपट अनपढ, गिनना मुझे आता नहीं। अब कितने थे पर गठठी से अन्दाज है चारेक हजार से उपर ही होंगे। अब वहाँ आधे भी नहीं हैं। सबसे छोटा एक रुपये के नोट से सौ तक थे, बड़े नोट वहीं है पर छोटे वाले सफाचट कर गया निहोण्यां। चल तुने भी क्या करना दुकानदार सौकार जो है, अपना ही सिक्का खोटा है।  और माँ आँसू पौंछते हुए पुष्कर लाला के घर से निकल गयी।

     इस पूरे वार्तालाभ को मैं लाला के घर के पीछे छुपकर सुन रहा था, मुझे काटो तो खून नहीं। अब आज घर में मेरी जो पूजा होनी थी उससे अभी से कंपकंपी आने लग गयी थी। और उस दिन पहली बार मेरे बाल चित को अपराध बोध का अहसास हुआ। उस दिन शाम को कंडाली से खूब स्वागत हुआ। पिताजी जरा नरम स्वभाव के थे हैरान तो थे लेकिन आखिर माँ के हाथ से कंडाली उन्होने छीनी थी । तात मन कितना दीर्घ और बड़ा होता है यह भी पहली बार महसूस हुआ। एक दो दिन बाद फिर सब सामान्य हो गया था सन्दूक की चाबी अब माँ अपने अंगडी पर रखने लग गयी थी, हाँ चोरी की परिभाषा मेरे दिलो दिमाग में हमेशा के लिए लाॅक हो गया थी। 

     छः सात साल उम्र की वह घटना मुझे जीवन का एक बड़ा सूत्र सिखा गयी थी। पुष्कर लाला के शब्द आज भी कानों में गूँजते रहते हैं कि ‘सुई पर गीजी च्वोर मौड़ पर गीजी मनस्वाग।

     वाकया मेरे बाल्यकाल अस्सी के दशक के उत्तरार्ध का है मेरी उम्र महज छः सात साल की रही होगी। घर में खाने पीने और पहनने ओड़ने की कमी नहीं थी और स्कूल के लिए हप्ते दस दिन में चैवनी अठ्ठनी पॉकेट मनी के रुप मिल जाती थी। एक दिन की बात है मुझे स्कूल के लिए पैंसे चाहिए थे और पिताजी घर पर नहीं थे मैंने माँ से पैंसों की मांग की। माँ अन्दर घरबार में गई मैं भी माँ के पीछे चला था। माँ ने एक छोटे से काठ के सन्दूक की चाबी खोली और उससे एक पोटली निकाली जिसके अन्दर दो तीन मोटी गड्डियां नोटों की थी। माँ ने एक गड्डी के बीच से दो रुपये का नोट मुझे दिया था। उसे गिनना तो नहीं आता था लेकिन नोट का साईज और रंग से पहचान जाती थी कितने का नोट है। उस दिन मैं गड्डियों को देख अचंभित हुआ कि यहाँ तो बहुत माया है। बस क्या था कैसे ना कैसे मैने चाबी रखने की जगह खोज ली और शुरु हो गया वहाँ से नोट खिसकाने। दो तीन महिने तक यह सिलसिला चलता रहा जब तक पकड़ायी नहीं मिली थी।    

     माँ का वह सन्दूक प्रतिकूल परिस्थितियों में हमारे परिवार की लाईफ लाईन थी। सन्दूक क्या वह ऐन मौके पर द्रपदी का कृष्ण था। विषेशकर मेहमान नवाजी में। उस सन्दूक में माँ के जेवर या कपड़े नहीं बल्कि वे जरुरी सामान होते थे जो प्रतिकूल परिस्थितियों में जरुरत को पूरा करते थे। जैसे सेर पाथी घी, दाल, चीनी, चाय पत्ती, चांवल, एक आध किलो प्याज, आलू और कुछ सूखी सब्जीयाँ। इस राशन का टर्न ओबर माँ अपने हिसाब से करती रहती थी। परिवार में सबको पता तो था कि इसमे कुछ है लेकिन उन्हें ये पता नहीं था कि क्या क्या है और कितना है, इस्तेमाल होने पर ही पता चलता। सन्दूक की चीजें अमरजेन्सी मे इस्तेमाल की जाती थी। 

     माँ के इन पैंसों का स्रोत शादी ब्याह या कारिजों की पौ-पिठें, घर आये मेहमान द्वारा हमारे हाथों में रखे हुए, या गाय भैंस, बकरी के बिक्री पर क्रेता द्वारा दिया गया किलमकुळा आदि होता था। 

     कोरोनाकाल के सुरुवाती लॉकडाउन के दौर में जब सब कुछ बंद हो गया था और लोग दुकानो से भर-भर राशन जमा करने लगे थे तो तब बरबस ही माँ के उस सन्दूक की याद आई कि संग्रह कैसे संकट मोचन होता है। आज बाजारवाद के इस युग में लाओ और खावो की आदत ने लोगों की इस आदत का साथ छुड़वा दिया है। इस डिजीटल दौर में तो लोग घर पर पैंसे भी नहीं रख रहे हैं। लॉकडाउन या कर्फू जैसे अमरजेन्सी हालात में इन्शान खाली हाथ फिर सरकार और संस्थाओं पर हायतौबा !

     बचपन की चोरी की इस घटना ने प्रशंगवस घर पर संग्रह और बचत के महत्व की प्रसांगिकता को और भी स्पष्ट कर दिया है, साथ ही उस डकैती पर गुस्सा, तरस और हँसी भी आती है।

@ बलबीर राणा अडिग   

 

गढ़वाली शब्दों का अर्थ :-

कर्छुले - पगड़ी के अन्दर, बौजी दृ भाभी, चव्वा दृ नीव, उज्याड़ -मवेसियों द्वारा दूसरे के खेत का नुकसान करना, धोण दृ गर्दन, अन्यों दृ अन्या, मातबर दृ ईमानदार, तल्ला ख्वाळे - नीचे का मुहल्ला  सुई पर गीजी च्वोर मौड़ पर गीजी मनस्वाग’- सुई पर चोरी आदत और मुरदे पर बाघ को आदमी के मांस का स्वाद लगना, गळज्यू - एक जी पराण, खडोण्यां - खड्डे डालने लायक (एक प्रकार की गाली) कुट्यारी -पेटली, काठ - लकड़ी, कंडाली - बिच्छू घास, अंगडी - उपर का अंग वस्त्र, निहोण्यां - नहीं होने वाली औलाद (एक प्रकार की गाली), घरबार - घर मे अनाज और अन्य सम्पति रखने का कमरा, सेर पाथी -  एक आध किलो, पौ-पिठें - सगुन, किलमकुळा - जानवर के किले का मोल जिसे सगुन के रुप में दिया जाता है।


 

बुधवार, 15 जुलाई 2020

मैं पढ़ा लिखा या लिखा पढ़ा* (नवगीत)


मैं पढ़ा लिखा या लिखा पढ़ा, पता नहीं
अंकुरण से बाल पकने का, पता नहीं।

सांसे मिल रही थी भोजन मिल रहा था
मैं पिंड पोषित हो रहा था पल रहा था
निश्चिंत था, पड़े पड़े मजे में कट रही थी
किसी पर बीत रही भी होगी, पता नहीं।

मैं पढ़ा लिखा .......

न जाने एक दिन छटपटाहट होने लगी
निश्चिंतता को हड़बड़ाहट होने लगी
बाहर निकलूँ कुछ करूँ निकलने की ठानी
कोई पीड़ा में कराही भी होगी,  पता नहीं।

मैं पढ़ा लिखा ..........
तभी लगा मैं कहीं और आ गया हूँ
रोने लगा आते ही, कुछ  मांगने लगा हूँ
अब सांसे मेरी थी, शरीर मेरा पर, बस नहीं था
परबस में कितना हँसा कितना रोया, पता नहीं ।

मैं पढ़ा लिखा ............

प्यार दुलार में पलता गया बढ़ता गया
शनै शनै आदमी की राह चढ़ता गया
क ख ग दादी नानी की चौखट से शुरू हुआ
कब  वैश्विक ज्ञान कोश तक पहुंचा, पता नहीं।

मैं पढ़ा लिखा ...........

संस्कार वे चौक चौबारे के अब बौने लगने लगे
इतना पढ़ा कि आत्मा परमात्मा को धोने लगा
धरती स्वरूपा जननी पर भी सवाल करने लगा
पालक पिता से भी कब भरोसा उठने लगा, पता नहीं ।

मैं पढ़ा लिखा .............

अरे छोड़ो ! कौन भगवान कैसा भगवान, मत बात करो
कौन पालन कर्ता कौन हर्ता मत इन पर विश्वाष धरो
सबसे बड़ा मेरा जियाराम, करूंगा धरूँगा जो चाहे वो
संवेदनशील जगत में कब संवेदनहीन हुआ, पता नहीं।

मैं पढ़ा लिखा या लिखा पढ़ा, पता नहीं।

@ बलबीर राणा अड़िग

सोमवार, 15 जून 2020

लोक सांस्कृतिक परम्परा की वाटिका चांचडी झुमैलो






हे प्रभु मेरे कृष्ण, मेरे ईश
वाद रहित जीवन का दे आशीष
जन जीवन चांचड़ी बना जाए
सुख संतोष का दे बक्शीष।
   
     जीवन का चांचड़ी बनना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है यह इस लिए कह रहा हूँ कि चांचडी बनने के लिए मनुष्य के विचारों का कर्मो में समावेश और कर्मो का चारित्रिक होना नितांत आवश्यक है। लाख कोशिश के बाद भी सांसारिकता में रहते हुए मनुष्य का समभाव होना असंभव है़। समभाव होना मनुष्य का दोष कम और सांसारिकता की देन ज्यादा कहूंगा क्योकि सांसारिकता में एक मनुष्य नहीं मनुष्यों का झुण्ड होता है और झुण्ड एक भीड़ है भीड़ का कोई सुनिश्चित स्वरूप या आकार नहीं होता, भीड़ में किसी एक की अलग पहचान नहीं होती है। और यही भीड़ का हिस्सा रहते हुए हमारे कतिपय काम भीड़ के अनुरूप हो जाते हैं। जो नितांत परबस है चाह कर भी हम उस काम को करने से खुद को रोक नहीं सकते। यह इस लिए कह रहा हूँ क्योंकि मनुष्य परिवार से लेकर राष्ट्र तक किसी न किसी वाद से बंधा होता है वाद में समभाव की सम्भवना ना के बराबर होती है। मनुष्य का वाद रहित समभाव होना पोलियो ग्रस्त व्यक्ति का एवरेस्ट फतह करना जैसा है।
समभाव होना महात्मा होना या बुद्धत्व में निर्वाण होना जैसा है, जिसमें जाति-धर्म, ऊंच-नीच, अगड़ा-पिछड़ा, महिला-पुरुष छोटा-बड़ा सवर्ण-दलित कुछ नहीं बल्कि मात्र मनुष्य होना होता है। चांचड़ी ऐसी ही अपने आप में निर्वाद गुणों में समाविष्ट उत्तराखंड का विशुद्ध लोकगीत नृत्य है। इस गीत नृत्य में हमारा लोक जीवन क्षणिक ही सही परन्तु पूर्णरूपेण वाद रहित हो जाता है समभाव हो जाता है। स्वयं में आनंदानुभुति। यह लोक की विशिष्ठ्ता के साथ आपसी प्रेम सौहार्द और अपनेपन प्रतीक भी है। जब कोई व्यक्ति चांचड़ी के घेरे में दूसरे के बाजू में हाथ फंसाये शामिल हो गया तो फिर वहां कोई वाद नहीं रह जाता है, बस होता है एक आनंद अतिरेक। चांचड़ी झुमैलो की विशिष्ठ्ता के परिपेक्ष में यह मेरा निजी विचार है इसका किसी ग्रंथ या साहित्य पृष्ठभूमि से कोई सरोकार नहीं है। इसे लोककला के मर्मज्ञ विद्वानों ने बड़े सुन्दर ढंग से परिभाषित किया हुआ। एक बात और कि चांचडी खुद में निर्वाद और समभाव तो है लेकिन चांचड़ी से बाहर आकर लोक समभाव नहीं रहते क्योंकि लोक किसी वाद का हिस्सा रहता ही है। यह मेरा चांचड़ी के अन्दर रहते हुए आनंद अतिरेक पर स्वयं की अनुभूति है वादबाकी अनुभव अनुभूति किसी और की और कुछ भी हो सकती  है।
     चांचडी को उत्तराखंडी लोकगीत और सांस्कृतिक परम्परा की रीढ़ कहा जाय तो अतिसंयोक्ति नहीं होगी, यह पारम्परिक लोकगायन और नृत्य उस लोकसंस्कृति का नेतृत्व करता है जो पृथवी पर प्रकृति के हर स्वरूप को देव तुल्य मानता है। धार, खाळ, डाँड़ी काँठी, गाड़ गदेरे, बन जंगल खेत खलिहान, पौण पंछी, जीव नमान हर चीज के साथ मनुष्य वृति यहां तक कि हवा रुपी परियों, ऐड़ी आंछरियों, बन देवियों और देवतांओं को इन गीतों के माध्यम से गाया जाता है। यही इस लोकगीत नृत्य को विशिष्ट बनाती है।
चांचडी को मैं समभाव इस लिए मानता हूँ कि इसमें गीत है नृत्य है, समूह है, एकता है, महिलाएं भी हैं और पुरुष भी, साथ ही बिना वाद्य यंत्रों के सुर और ताल ऐसा कि एक बार आनंद अतिरेक में आ गया तो व्यक्ति चूर चूर थकने तक विश्राम लेने का नाम ना ले।  इस आनंद अतिरेक में कोई लिंग भेद नहीं कोई वर्ण भेद नहीं। गुजरात के गरबा और आसाम के बिहू जैसा ही सशक्त हमारा यह लोकगीत नृत्य है जिसे हर उम्र के लोग गाते हैं नाचते हैं खेलते हैं। हाँ बिडम्बना यह रही कि राष्ट्र फलक पर वो पहचान नहीं मिली जो गरबा या विहू या पंजाब भंगड़ा मिली। हमारे उत्तराखण्ड के सामूहिक लोकगीत नृत्यों की श्रृंखला में चांचडी, झुमैलो, चौंफुला, थडिया, तांदी, छौपती, छोलिया आदि है जिनमें में देव स्तुति, लोक परम्परा, सामाजिकता, प्रकृति महिमा, प्रेम गीत, विरह गीत, समसमायकी और हास्यव्यंग आदि अनेक लोकाचार विषयकों पर आधारित गीत होते हैं होते हैं या यूं कहें कि जीवन के विविध रगों से सजी वृहद् लोक सांस्कृतिक परम्परा की सुन्दर वाटिका है चांचडी ।
ये सभी लोकगीत नृत्य पौराणिक काल से पीढ़ी दर पीढ़ी अपने लोक के साथ मौखिक चलते आये हैं। इन विशुद्ध लोक गीतों के रचनाकारों के नाम आज विज्ञ न होना हमारे इतिहास की बिडम्बना रही है हाँ बीसवीं शताब्दी से आज तक डॉ गोविन्द चातक, डॉ नन्द किशोर हटवाल आदि साहित्यविदों के परारभ्ध से आज ये गीत हमारे पास ग्रन्थों के रुप में संकलित हैं और इन साहित्य मनीषियों की बदौलत ये गीत कालजयी बन गये हैं।  उत्तराखंड का लोक भविष्य इन मनीषियों का ऋणी रहेगा। नयीं पीड़ी से अपील है कि ये हमारी लोक परम्परा का अभिन्न अंग था, है, और आगे भी रहना चाहिए इसके लिए प्रयासों की निरन्तरता हर जन अपने स्तर पर रखे तो यह सांस्कृतिक विरासत लम्बेकाल तक जिन्दी रहेगी। जब लोक के साथ उसकी लोकभाषा या लोक परम्परा नहीं है तो फिर उस लोक के अस्तित्व सवालिया निशांन समझो आधुनिक वैश्वीकरण के दौर में इस लोक विरासम का जीवित रहना मुश्किल तो है लेकिन नामुमकिन नहीं विश्व के तमाम समाज अपनी लोक पहचान के लिए हमेशा हर मुमकिन संघर्षरत रहे हैं और हमें भी रहना होगा इसे इग्नोर करना अपनी पहचान अपने हाथों से मिटाने जैसा होगा।
आज जब राष्ट्र फलक पर उत्तराखण्ड की मेधा हर क्षेत्र में एक विशिष्टता रखती हो तो इस दृष्टिकोण से हमारी इस लोक विरासत की राष्ट्रीय स्तर पर पहचान न होना जरूर लोक मर्मज्ञों के प्रयासों पर सवालिया निशाँन है इस क्रम में इसे विफलता ही  कहा जायेगा। अगर आगे पुरजोर प्रयास किया जाय तो चांचड़ी झुमैले को राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय फलक पर पहचान दिला सकते हैं। यह हम सबकी जिम्मेवारी है साथ ही इस पर अब सरकार के स्तर पहल हेतु जोर डाला जाना चाहिए। इन लोक सांस्कृतिक धरोहरों का विलुप्तता के कगार पर होने के चलते इन्हे विद्यालयी संगीत पाठ्यक्रमों में शामिल करना होगा तब जाकर कहीं हम नव पीड़ी इस ओर उन्मुख करा पायेंगे। जब तक सभी लोक वाद्यय, गीत, जागर, संगीत और नृत्यों  को रोजगार से नहीं जोड़ा जायेगा तब तक इनके संरक्षित होने की उम्मीद करना बेमानी होगा। राज्य हमारा लोक हमारा नेता नीति नियंता हमारे तो अड़चन कहां है, अड़चन है तो वो है पहल की सरकार तक आवाज पहुंचाने की और यह अकेले किसी एक संघठन या व्यक्ति की नहीं बल्की पूरे लोक समाज की जिम्मेवारी है। सभी सामाजिक मंचों को इसकी पुर जोर पैरवी करनी होगी। 
     जहाँ आज इस बात की ख़ुशी है कि ये लोकगीत नृत्य घर गावों के थौलों चौकों से निकलकर आधुनिक संगीत और डिजीटल वाद्ययों के साथ मंचों पर नयें कलेवर में आया वहीँ इस बात का दुःख है कि खुद लोक में यह रुग्णाशन में है आधुनिक मनोरजन के माध्यमों के चलते आम जन इसे अब पुराने रुढ़ि का हिस्सा मान ताज्य कर रहे हैं यह चिंता का विषय है। र्वतमान पीढ़ी के कलाकारों ने इसे नए कलेवर में ढालना या मोड़ना कुछ हद तक सामयिक  हो सकता है लेकिन इन्हें  पाश्चात्य या फ़िल्मी प्रभाव देना इस लोक धरोहर का अपक्षय  होगा यह दूसरा चिंता का विषय है। आज कतिपय सांस्कृतिक कलाकार इन लोकगीत नृत्यों में अनावश्यक छेड़छाड़ करके नुक्सान पहुंचा रहे हैं यह कदापि स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। आज पाश्चात्य संगीत का प्रभाव इस प्रकार सर चढ़ बोल रहा कि लोक की तमाम कला, लोक से विमुख होती जा रही है। इस बाबत लोक संस्कृति के मर्मज्ञ विद्वतजनो को एक मंच पर आकर विचार करने और ऐसा ना हो इस पर अमल करने की जरूरत है तभी इस विशुद्ध विरासत को हम अगली पीढ़ी को अपने पूर्ण स्वरूप में हैंड ओवर कर सकेंगे नहीं तो नियति मान चुप बैठना अपनी लोक परम्परा की हत्या करना जैसा होगा।

@ बलबीर राणा  ‘अड़िग’


मंगलवार, 2 जून 2020

बदरियों से बात : जलहरण घनाक्षरी छंद

रिमझिम रिमझिम, बरसना बदरियो
आना संभल संभल, कुछ ठहर ठहर।

मुंड में घास गडोली, टेड़ी हैं पगडंडियां
बाट मेरी अभी बाकी, आना पर रुककर।

झरना प्यार प्रेम से, गाड़ गदेरी न लाना
बचाना मेरी पुंगड़ी, मत मचाना कहर।

घाम अवसान पर,  गोधूली का आगमन,
हो जाएगी रात मुझे, अभी दूर मेरा घर।

@ बलबीर राणा 'अड़िग'

Adigshabdonkapehara
Adigshabdonkapehara

गुरुवार, 28 मई 2020

दे उसे जहान तू : मनहरण घनाक्षरी छंद में



धरती पर उपजी, धरती पर जायेगी,
निकलेगा समाधान, विधान ये मान तू।
कर्मों में तरुणाई, करनी से कठिनाई,
विज्ञान करे निदान, जान समाधान तू।

लपेटी गयी दुनियां, लिपट गतिमान है,
रपट गया तन्त्र है, रख जरा भान तू।
नहीं छूटा छोटा बड़ा, न छूटे रूप रुतवा ।
उड़ाये बबंडर ने, ना भर उडान तू।

अपनी भी कर कुछ, सब देख सुन रहा,
जानबूझ मत बन, इतना नादान तू।
सब सरकार करे, भरे भी सरकार ही, 
हो हल्ला करने वाले, नहीं अनजान तू।

इसके संग चलना, इसके संग फिरना,
निभना पड़ेगा पूरा, बात इसे मान तू।
न रहे भय भ्रमित, ना हीं यूं र्निभीक बन,
बचने वाले रस्तों का, ले जरा सज्ञान तू।

हजार ठोकरें खाके, आशा पर घर लौटा,
क्यों उसे दुत्कार रहा, जान अभिमान तू।
जीवन हो जाता भारी, यूं रोटी का भार बड़े,
मिट्टी खोद कमायेगा, जान स्वाभीमान तू। 

यह लड़ाई सबकी, देख सभी मैदानों में,
जीतेंगे मिलकर के, है सभी की जान तू।
लड़ाई बिमारी से है, नहीं किसी बिमार से,
आशा हिम्मत देकर, दे उसे जहान तू।

@ बलबीर सिंह राणा ‘अडिग’
@ adigshabdonkapehara
@ adigshabdonkapehara

रविवार, 10 मई 2020

पदमश्री कल्याण सिंह रावत मैती कर्मयोग पृष्ठभूमि



   

       

   मनुष्य का फर्स से अर्स पर पहुंचना अचानक नहीं बल्कि इसके पीछे कर्मो की एक लम्बी पृष्ठभूमि होती है। अचानक तो केवल घटना घटती है कार्य का सिद्धी पर पहुंचने के लिए उसे संघर्षों के विकट पथों को पाटना ही होता है। इसीलिए धरती पर कर्म को प्रधान विषय कहा गया है, कर्म ही हमारा भाग्य होता है अब भाग्य भला हो या बुरा यह कर्मों के स्तर पर निर्भर है। हाथ मन और दिल के गहरे समन्वय से सम्पन होने वाला कर्म कलाकार वाला सुन्दर कर्म बन जाता है और वह कर्म अनुगामी होता है पुज्यनीय बन जाता है। कहना अतिसयोक्ति नहीं होगा कि मनुष्य की सुन्दरता शाररिक बनावट से नही बल्कि सत कर्मों पर निहीत है। सुना है विश्व के महान दार्शनिक सुकरात का चेहरा बहुत कुरुप था लेकिन दुनियां ने उन्हें कभी कुरुप नहीं देखा, अपने एपीजे अब्बुल कलाम भी ऐसे ही सुन्दर कर्म प्रधान व्यक्तियों में पुज्य हैं जबकि उनकी कद काठी सामान्य भी नहीं थी।
हमारी उत्तराखंड की धरती भी न जाने ऐसे कितने सुन्दर कर्म प्रधान पुरुषों की जन्म और कर्म भूमि रही है जिनके कर्मों ने विश्व विरादरी का नेतृत्व किया है विशेषकर पर्यावरण के क्षेत्र में। जहाँ हमारी इस थाती को प्रकृति ने करीने से सजाया है वहीं इसको संवारने वाले सिद्धहस्त माली भी दिये है। प्रकृति के इन्हीं सिद्धहस्त मलियों के तरिको ने संसार को नयीं चेतना और नयीं दृश्टि दी है, चिपको और मैती मुहिम इन्हीं में से एक है। गौरा देवी, सुन्दरलाल बहुगुणा, चन्डी प्रसाद भट्ट, अनिल जोशी, कल्याण सिंह रावत मैती जैसे श्रेष्ठ पर्यावरण मनिषीयों से कोई अनविज्ञ नहीं है। चिपको आनदोलन की नीव की ईंट गौरा दीदी और मैती आनदोलन के प्रेणता कल्याण सिंह रावत जी दोनो की थाती चमोली गढ़वाल हैं। इन्हीं पुरुषों के कर्मयोग पृष्ठ भूमि में बात करेंगे पर्यावरण संरक्षण में संजीवनी बनी ‘मैती‘ आन्दोलन के प्रेणता पदमश्री कल्याण सिंह रावत ‘मैती‘ जी की।
     वैसे तो कल्याण सिंह रावत ‘मैती‘ जी किसी नाम के मोहताज नहीं है क्योंकि पर्यावरण संरक्षण में मैती मुहिम अब केवल उत्तराखंउ में ही नहीं अपितु देश विदेश में अपनाया जा रहा है। ‘प्रत्क्षम् किम प्रमाणम्‘ प्रत्यक्ष के लिए किसी प्रमाण की जरुरत नहीं होती है फिर भी विशिष्ठ व्यक्तित्व का सम्पूर्ण कृतत्वि समाज के हर नागरिक तक पहुँचना इस लिए भी जरुरी हो जाता है कि समाज का हर व्यक्ति इन कृतत्विों से प्रेरणा ले सके। इसी नैतिक कर्तव्यबोध से श्री कल्याण सिंह रावत जी के कृतत्विों को इस लेख के माध्यम से सभी तक पंहुचाने का प्रयास किया जा रहा है।
श्री कल्याण सिंह रावत जी का जन्म चमोली जिला विकासखण्ड कर्णप्रयाग, चाँदपुर पट्टी के बेनोली गांव में श्रीमती विमला देवी रावत और श्री त्रिलोक सिंह रावत जी के घर में 19 अक्टूवर 1953 में हुआ। रावत जी की प्राथमिक शिक्षा अपने गांवं बेनोली मे हुई, जूनियर तक की पढ़ाई उन्होने चैरासेंण कर्णप्रयाग और कल्जीखाल पौड़ी से की व हाईस्कूल इन्टर गर्वमेन्ट इन्टर काॅलेज कर्णप्रयाग से। रावत जी के पिताजी श्री त्रिलोक सिंह रावत जी जंगलात विभाग में फाॅरेस्टर थे और रेंजर पद से सेवामुक्त हुए। पिताजी के चमोली सेवाकाल में उन्होने गोपेश्वर डिग्री काॅलेज में उच्च शिक्षा के लिए एडमिशन लिया और यहीं से रावत जी ने सन् 1977 में वनस्पति विज्ञान से पोस्ट ग्रेजुएट किया तदोपरान्त सन् 1978 मे बी एड करने के बाद शिक्षा विभाग में वतौर विज्ञान सह अध्यापक पद से अपनी व्यवसायिक यात्रा शुरु की व वनस्पति विज्ञान लेक्चरर पद तक सेवा दी। सेवाकाल में रावत जी ने जिला शिक्षा एवमं प्रशिक्षण संस्थान गौचर चमोली, जिला सर्वशिक्षा समन्वयक देहरादून में भी सेवा दी साथ ही वे पहले शिकक्षक हैं जिन्हें  उत्तराखण्ड अंतरिक्ष उपयोग केन्द्र देहरादून में वतौर वैज्ञानिक डेपुटेशन पर सेवा के लिए चुना गया और इस पद पर रहते हुए उन्होने बहुत अहम भूमिका निभायी जिसका विरिण आगे दिया गया है। इस तरह साठ साल तक सरस्वती माँ कि सेवा करने के बाद रावत जी सन् 2014 मे सरकारी सेवा से सेवामुक्त हुए।
आम तौर पर आध्यात्म जगत में कहा जाता है कि सन्तोषम् परम् सुखम् लेकिन जीवन में रचनात्मकता के लिए संतोष नहीं बना है इसे अति लोलप वृति पर विराम लगाने मात्र को प्रसांगिक समझा जाना चाहिए। आदमी का सार्वभौमिक समाजिक और व्यक्तित्व विकास सन्तोष के चलते सम्भव नहीं। भले ही रावत जी ने सरकारी नौकरी को संतोष के रुप में अंगीकार किया हो लेकिन कर्मों को समाज के उच्च पायदान पर ले जाने के लिए हमेसा असन्तोषी रहे और आज भी हैं असन्तोष हो भी क्यों नहीं जब उन्होने मनसा वाचा कर्मणा से जीवन दायनी प्रकृति वर्चसव हेतु अपाना जीवन जो सर्मपित कर है। वैसे जीवन में कुछ अलग करने का करार बचपन से नहीं था लेकिन जीवन की राहों पर चलते चलते कब पर्यावरण के पर्याय बन गये पता नहीं चला। पेड़ पौधें से अनन्य प्रेम होने का श्रेय वे अपने पिताजी को देते हैं क्योकि पिताजी की कर्मस्थली पर्यावरण की जड़ वन विभाग था। उनके साथ रहते प्रकृति को नजदीक से देखने सीखने को मिला और धरती पर जीवन के लिए प्रकृति का महातम्य समझने की चैतना जगी। रावत जी कहते हैं पिताजी से पर्यावरण और माँ से संस्कार मिले। समाज सेवा का गुण कुछ विरासतीय तो था ही क्योंकि उनके पिताजी भी सदैव समाज के लिए सर्मपित रहे, इमानदार छवि और समाजिकता के चलते रिटायरमेन्ट के बाद उन्हें निर्विरोध विकास खण्ड कर्णप्रयाग ब्लोक प्रमुख चुना जाना उदाहरण के रुप में था।  
मनुष्य का सामाजिक नागरिक होने के नाते उसकी समाज में कुछ न कुछ नैतिक जबाबदेही  और जिम्मेवारियां होती हैं परन्तु आमतौर पर देखने मंे आता है कि हम अपने स्वहित हेतु खूब जानकार और जागरुक रहते हैं लेकिन समाज के लिए ऐसा कम ही देखने को मिलता है। संसार में आम से खास वही लोग बने जो परहित के लिए जबाबदेह हुए अर उन्होने अपने से उपर रहते हुए पृथवी पर सुगम जीवन के लिए काम किया। श्री कल्याण सिंह रावत मैती जी भी ऐसे ही सख्सियत हैं जिन्होने धरा पर जीवन की संजीवनी पेड़ पौधे और पर्यावरण के लिए जीवन पर्यन्त लीग से हठ कर काम किया इसकी शुरुवात काॅलेज समय से ही हो गयी थी। रावत जी की पर्यावरण और अन्य समाजिक कार्यों का क्रमवार विवरण निम्नवत है।

हिमालय वन्य जीव संस्थान की स्थापना और जीवों व मनुष्यों के बीच समन्वय कार्य
सत्तर के दशक में रावत जी जब गोपेश्वर में पोस्ट ग्रेजुएट कर रहे थे तो उस समय   आस्ट्रेलिया से वैज्ञानिकों का एक दल हिमालय जीव जन्तुओं पर रिसर्च करने आया था उनका मुख्य विषय तुंगनाथ में मिलने वाले कस्तुरी मृग और हिम तेन्दुआ था। तब पूरा प्रसाशन और वन विभाग उनके पीछे आवाभगत मे लगा था, रावत जी और उनके जागरुक विद्यार्थी साथियों ने कहा कि जब बाहर के लोग यहाँ आकर रिसर्च कर सकते है तो हम क्यांे नहीं ? और इन जागरुक विद्यार्थीयों ने वन्य जीव संरक्षण पर रिसर्च करने का प्लान बनाया। इसके लिए उन्होने एक संस्था का गठन किया जिसका नाम “हिमालय वन्य जीव संस्थान“ रखा गया। इस संस्था के रावत जी पहले अध्यक्ष बने और जगदीश तिवाड़ी जी सचीव। इस काम में उनके साथ पर्यावरणविद पदमश्री श्री चन्डी प्रसाद भटट जी का भी अहम योगदान रहा। श्री चन्डी प्रसाद भटट जी संस्था के संरक्षक थे। हिमालय वन्य जीव संस्थान बैनर के नीचे इस टीम ने सबसे पहले रुद्रनाथ बुग्याल को गुजरों से बचाने हेतु रुद्रनाथ में धरना दिया, क्योकि उस समय गुजर लोग बहुत संख्यां में बुग्याल आते थे और उनके भैंस बकरे बुग्यालों को तहस नहस कर देते थे। फिर इस  टीम ने हर साल वन्य जीवों को बचाने के लिए गढ़वाल के अनेक जगहों पर कैम्प लगाकर लोगो को जागरुक किया।
उस समय स्थानीय क्या बाहर के लोग भी गढ़वाल के जंगलों और बुग्यालों में बड़ी संख्या में जंगली जानवरों का शिकार करते थे। हिमालय वन्य जीव संस्था का यह विद्यार्थी समूह कैम्प के दौरान लोगों को जैव विवधता के बारे में समझाते थे कि अगर आप हिरण, काखड, घ्वेडों जैसे शाकाहारी जीवों को मारेंगे तो मांसाहारी जीवों का भोजन समाप्त हो जायेगा उनको जब जंगल में खाने को नहीं मिलेगा तो वे घर गांव में आकर मनुष्यों का शिकार करेंगे। अगर मांसाहारी को मारेंगे तो शाकाहारी जीवों की संख्या बहुत बड़ जायेगी और वे जंगलों से गांव में आकर हमारी फसल नष्ट कर देंगे। इस प्रकार से उनहोने वन्य जीवांे और मनुष्यों के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। इस जागरण प्रभाव से वन विभाग की नींद खुली, तब जाकर मध्य हिमालय के वनों से निरंकुश जीव हत्या पर कानूनन रोक लग पाई।    
चिपको आन्दोलन में भूमिका
रावत जी चिपको आन्दोलन के शुरुवाती दौर से आन्दोलन से जुडे थे। आन्दोलन के समय पर  उनकी हिमालय वन्य जीव संस्थान टीम बड़ चड़ कर चिपको आन्दोलन के अयोजनों में भाग लेती थी। जब चिपको आन्दोलन का स्रोत रैणी गांव वन कटान वालों से आर-पार की लड़ाई लड़ रहा था  ये टीम किसी भी प्रकार की मदद हेतु जोशीमठ में डटी हुई थी। हाँ उनकी मदद से पहले चिपको नेत्री गौरा दीदी के साथ रैणी गांव की वीर मातृ शक्ति ने पेड़ों पर चिपक कर जंगल कटान वाले मजदूरों और उनके आंकाओं को मैदान छौड़ने पर मजबूर कर दिया था। उस दौर में रावत जी गोपेश्वर में सामाजिक सरोकारों वाले संगठन दशोली स्वराज्य मंडल और सर्वोदय के सक्रीय सदस्य भी रहे।
सैटर डे क्लब की स्थापना और बुंखाल कालिंका में बहुसंख्यक बलि प्रथा पर जन जगरुकता अभियान
रावत जी जब शिक्षक के रुप में पहली पोस्टिंग सन् 1979 में पौड़ी गढ़वाल, चैरींखाल (बुंखाल) हाईस्कूल गये तो उन्होने देखा अन्य जगहों की तरह यहाँ भी जनता अनायास पेड़ों को काटती है लेकिन पेड़ों को लगाने का उपकर्म शून्य था। पहले कार्यकाल से ही उन्होने इलाके के लोगों को पानी और जंगल बचाने हेतु जागरुक किया। उन्होने बच्चों का एक सैटर डे क्लब बनाया जिसके तहत बच्चे हर शनिवार इतवार के दिन अपने आस पास के इलाके में सफाई करना और पेड़ पौधों की सुरक्षा हेतु जागृत करने का काम करते थे। लोग अपने छोटे निजी काम जैसे छानी छप्पर बनाना, घास के खुम्मे लगाने आदि के लिए जंगल से अच्छे पेड़ों को कटाते थे इसे रोकने के लिए उन्होने सड़क किनारे व खाली जगहों पर सफेदा के पेड़ लगवाये क्योंकि सफेदा कम समय में बड़ा होने वाला पेड़ था जो आमजन की पूर्ति के लिए उपयुक्त था। जिससे मूल जंगल के दोहन का प्रयास हुआ। वहीं उन्होने स्व योगदान से स्कूल के नजदीक गोदा गांव वालों से जमीन लेकर झुरमुट नामक जगह पर बच्चों के लिए झुरमुट नाम से खैल का मैदान बनवाया जो आज भी स्थ्ति है। 
इस कार्यकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि बुँखाल कालिंका माता मेले में होने वाली सैकड़ों भैंसों और बकरों की बलि रोकने के रुप में जनजागृति रही। रावत जी कहते हैं कि उस समय गढ़वाल में  सामाजिक और व्यक्तित्व विकास हेतु लोगों की ज्यादा रुचि नहीं थी लोगों पर अन्ध विस्वास रुड़ीवादिता ज्यादा हावी थी लोग अपने छोटी मोटी आकांक्षा और अहम की पूर्ति के लिए देवताआंे का आहवान करते थे पुकारते थे, और चड़ावे में निर्दोश जानवरों की बलि दते थे। उन्होने गांव-गांव जाकर लोगों को जीव संरक्षण का महत्व, बलि प्रथा के दुसप्रभाव और बच्चों की शिक्षा के बारे में जागरुक किया। तब वे समय समय पर पौड़ी से चलचित्र लाकर लोगों को ज्ञानवर्धक फिल्म दिखाते थे ताकि लोग अन्धविश्वास और रुड़ीवाद से बाहर आ सके। ऐसे जन जागृति अभियानो का प्रभाव ये हुआ कि सन् 1883-84 तक बँुखाल में 240 के आस पास होने वाली जानवरों की बलि 40 से 50 तक आ गई थी। खैर वर्तमान में यह बलि प्रथा पूर्ण रूप से बन्द हो गयी है।
रंवाई घाटी राजगढ़ी समाजिक जीवन का अहम पड़ाव
सन् 1984 में रावत जी की दुसरी पोस्टिंग उत्तरकाशी रंवाई घाटी राजगढ़ी स्कूल में हुई वहाँ भी उन्होने देखा कि लोगों का जंगल पेड़ पौधों के साथ अचरण अन्य जगह की तरह है। रावत जी ने वहाँ भी पेड़ पोधों और पर्यावरण संरक्षण जागृति मुहिम जारी रखी। राजगढ़ी स्कूल  में उन्होने बच्चों के साथ मिलकर स्कूल की जमीन पर 45000 पोधों की एक नर्सरी तैयार की जो उस समय शिक्षा विभाग की तरफ से सबसे बड़ी नर्सरी थी। रंवायी घाटी में रावत जी ने एक और पवित्र वृक्ष अभिषेको कार्यक्रम की शुरुवात की जिसमें 30 मई तिलाड़ी शहीद दिवस को आम जनमानस तक पहुंचाने और शहीदों को सच्ची श्रृद्धांजली हेतु केन्द्र में रखा गया।
तिलाड़ी शहीद दिवस पर वृक्ष अभिषेक कार्यक्रम (सात कन्यां, सात फेरे और सात दिन तक बारिस)
     इस कार्यक्रम की शुरुवात पर एक रोचक किस्सा है। उस वर्ष उस इलाके में भयंकर सूखा पड़ा बहुत दिनों से वर्षा न होने से स्थानीय जनता हतोत्साहित थी, जिसके चलते तमाम गांव वालों ने वर्षा हेतु अपने ग्राम देवताओं की डोली का चार धाम की यात्रा करायी परन्तु वर्षा नहीं हुई। रावत जी ने इस  मुहिम को एक भावनात्मक लगाव देने की सोची। उन्होने 40 गांव के प्रधानों के साथ बैठक कर 30 मई को हर गांव को अपने ग्राम ईष्ट देवता की डोली के साथ एक ग्राम वृक्ष लाकर राजगढ़ी बुलाया। गांव वालों को पेड़ पहले से स्कूल की नर्सरी से दिया गया था। पेड़ के लिए पहले से हर गांव के नाम से गड्डा बनाया गया था। 30 मई को 40 गांव के लोग बाजे गाजों के साथ राजगढ़ी आये, उस दिन उत्तरकाशी के डी एम, डी एफ ओ और प्रसाशन के अन्य उच्चपदस्त लोग भी मैजूद थे। हर प्रधान ने अपने गांव के नाम का ग्राम वृक्ष रोपा, गांव की सात कन्याओं द्वारा पानी के कलश के साथ पेड़ की सात परिक्रमा करके पानी डाला। फिर तिलाड़ी शहीदों की याद में भव्य कार्यक्रम हुआ जिसमें पूरे इलाके के 40 हजार लोग शामिल हुए थे। उस रात जब कुछ दूर दराजा के लोग अपने घर नहीं जा पाये तो उनके रहने ठहरने की व्यवस्था स्कूल की बिल्डिंग मंे की गयी थी और उनको राति में चलचित्र दिखाने की भी व्यवस्था की गयी। उस दिन, दिन भर आकाश में एक भी बादल का टुकड़ा नहीं था, पर आधी रात को अचानक बून्दा बान्दी शुरु हुई और तत्पश्चात झामाझम बारिस, जो एक दो नहीं पूरे सात दिन तक रही। अब इसे संयोग कहें या कोई चमत्कार लेकिन सात कन्यां, पेड़ों की सात परिक्रमा और सात दिन बारिस अजब गजब सयोंग हुआ। डी एफ ओ साहब ने भी इस चमत्कार पर आश्चर्य व्यक्त किया था।
रावत जी का मानना है कि नेक नियति और इमानदारी से काम किया जाय तो भगवान किसी भी रुप में भी प्रकट हो जाता है। इस वृक्ष अभिषेक कार्यक्रम का असर ऐसा हुआ कि कुछ दिन बाद रंवाई घाटि के मर्द जनानियां रावत जी के पास पेड़ मांगने आने लग गये, रावत जी ने डी एफ ओ के माध्यम से उन्हें पेड़ भी दिलावाये और पेड़ो को लगाने व बचाने के लिए पैंसा भी दिलवाया। पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में अपनी भूमिका और काम की प्रेरणा श्री रावत जी राजगढ़ी को ही मानते हैं।
सच्चे सेवक के लिए सेवा सर्वोपरि
     जब अंतस में सेवाभाव रच-बस जाता है तो व्यक्ति हर सम्भव सेवा के लिए लालायित रहता है और सेवा के मौके खोजता है। रावत जी जहाँ जहाँ रहे उन्होने सेवा के मौके खोजे और तदन्तर सामाजिक विसंगतियों के प्रभाव से आमजन को निकालने का भरसक प्रयास किया। उस जमाने में उत्तरप्रदेश का यह पर्वतीय खण्ड शिक्षा और विकास से कोशों दूर था, जिस कारण अन्धविश्वास रुड़ीवादिता जनमानस पर हावी था, और इस प्रभाव से रंवांई घाटी अछूती नहीं थी लोग दुःख बिमारी का ईलाज दवायी दारु से नहीं देबता और जादू टोना से करते थे। वैसे भी रंवाई घाटि जादू टोना और  बोक्साड़ी विद्या के लिए मानी जाती है। रावत जी बताते है कि रंवाई घाटि के लोग बच्चों पर टीका लगाना भी बूरा मानते थे। बिमार आदमी या बच्चा झाड़ै ताडै या पूजा पाठ से ठीक हो गया तो भगवान की कृपा, नही तो नियति मान लोग छाती पर पत्थर सह लेते थे। उन्होने लोगों को इस कुप्रथा से बाहर निकालने की ठानी और गांव गांव मिटिंग कराकर लोगों को टिकाकरण का महत्व व स्वास्थ्य संबन्धी बातों से जागरुक किया। इस मुहिम का ऐसा प्रभाव पड़ा कि दो महिने बाद गांव के गांव की लाईन बच्चों के टीकरकरण के लिए स्वास्थ्य केन्द्रों और स्कुलों में लगी। रावत जी ने उत्तरकाशी सी एम ओ से और टिकों की मांग की व पूरे इलाके में सभी बच्चों का सफल टीकाकरण कराया। सी एम ओ साहब भी इस चमत्कार को देखकर आश्चर्यचकित हुए नहीं रहे और उन्होने कहा कि जो काम स्वास्थ्य विभाग की टीम इतने वर्षों से नहीं कर सकी वह एक जागरण कार्यक्रम ने कुछ महिनो में ही कर दिखाया। 
पर्यावरण संजीवनी मैती आन्दोलन
अब बात करते है मैती आन्दोलन की जिस मुहिम से कल्याण सिंह रावत जी सबके मैती बने, सन् 1988 में रावत जी की तीसरी पोस्टिंग ग्वालदम चमोली में हुई। वहाँ भी उन्होने जीव, जड- जंगल बचाने की मुहिम जारी रखी। वन दोहन के मामले में ग्वालदम के हाल भी अन्य पहाड़ी जगहों से अछूते नहीं थे। सरकार और एन जी ओ वाले हर वर्ष पेड़ तो लगवाते थे पर संरक्षण के नाम पर सिफर। पेड़ सरकारी फाइलें में हरे भरे और जमीन में सूखे तृण, बजट बटोरने और खपाने तक ही वन घनघोर दिखते हैं। जिस जगह इस वर्ष बृक्षारोपण होता अगले वर्ष फिर उसी जहग पर पुण्य कमाया जाता। रावत जी ने सोचा अगर ऐसे ही काम होता रहा तो हिमालय नहीं बचेगा । उन्होने  सरकारी उपक्रम के इतर बृक्षारोपण को एक भावनात्मक रुप देने की ठानी। पहाड़ क्या किसी भी समाजिक परिवेश में बेटी और माँ का रिश्ता अत्यन्त भावनात्मक होता है विशेषकर पहाड़ी जीवन में बेटी माँ का वांया हाथ होती है, और वह जन्मान्तर तक माँ के साथ खड़ी दिखती है। बेटी घर-जंगल, खेती-पाती सभी जगहों में माँ का मेरुदंड बनी रहती है। बेटी की शादी के बाद सबसे ज्यादा दुःख किसी को होता तो वह माँ है।    उत्तराखंड की शादियों में जिसने बेटी की डोली विदाई का करुण दृश्य देखा हो तो वह समझ सकता है कि माँ के लिए बेटी कितनी महत्वपूर्ण होती है। माँ बेटी की विरह वेदना को हमारे पहाड़ी खुदेड़ गीत काष्ठ हृदय को भी पसीजने में मजबूर कर देते हैं। रावत जी ने इन्हीं भावनाओं को पेड़ बचाने की औषधि के रुप में प्रयोग किया, जिसके तहत शादी के दिन बेटी दामाद मिलकर मैत मे एक पौधा रोपते हंै और मायके वाले अपनी बेटी का पेड़ समझते हुए बेटी की तरह इसका संरक्षण भी करेंगे विशेषकर माँ तो उस पौधे को मरने नहीं देगी। अगर फलदार पेड़ हो तो चार पाँच साल में फल लगने शुरु हो जायेंगे, जब कभी भी मामाकोट में बेटी के बच्चे आयेंगे तो पेड़ के फलों का स्वाद उतना सुन्दर नहीं होगा जितना उनका उत्साह और लगाव। और बाल मन भी भविष्य में इसी तरह अपनी शादी पर पेड़ लगाने का संकल्प लेंगे। ऐसे ही परिणय की  स्मरणियता हेतु धरती माँ के अभिषेक मैती मुहीम की अलौकि पहल से शुरु हुई। रावत जी ने महसूस किया कि बेटी के लिए सबसे प्यारा उसका मैत यानि मायका होता है इस लिए इस मुहिम को मैती आन्दोलन नाम दिया। यह काम उन्होने अपनी एक प्रीय छात्रा की शादी के शुभअवसर पर ग्वालदम में शुरु किया। रावत जी का कहना है कि अगर एक गांव में एक साल में दस शादियां भी होती हैं तो दस साल में सौ पेड़ो से सारा गांव आछादित हो जायेगा जिसके फलस्वरुप गांव में पानी के स्रोत बचेंगेे, मवेसियों को चारा पत्ती मिलेंगी और शुद्ध हवा तो है ही, कहना उचित होगा कि शादी के दिन लगाया गया पेड़ बच्चों के भविष्य हेतु हवा पानी का भरोसेमन्द इन्तजाम है।          
पार्वती मंगल ग्रन्थ और मैती आन्दोलन :-
     रावत जी का कहना है कि लोग कहते हैं मैती आन्दोलन कल्याण सिंह का है लेकिन मैं कहता हूँ कि हमारी पुण्य भारत धरती पर ऐसे काम युगों से होते आये हैं। शिव-पार्वती, राम-सीता ने भी अपनी शादी पर पेड़ लगाये थे इसका वर्णन पार्वती मंगल ग्रन्थ में मिलता है। मैति आन्दोलन की प्रेरणा से आज उत्तराखंड के गांव गांव क्या कस्बों शहरो में मैती संस्थाये बन गयी हैं। इस पुण्य मुहिम ने उत्तराखण्ड में कितनी रिवाजों को बदल दिया है जैसे शादी में जूता चुराने के एवज में दुल्हन की सहेलियां दुल्हा दुल्हन को पेड़ लगाने को देती हैं और दुल्हा पेड़ संरक्षण के लिए पैंसा दता है। आज पहाड़ क्या शहरों में भी नव दम्पती अपने शादी में बृक्षारोपण करना स्टेटस सिम्बल मानने लगा हैं। अब तो कतिपय जगह लोग परिवार के किसी आदमी के गुजरने पर उनकी याद में पेड़ लगा रहे हैं इससे बड़कर आत्मीय सम्बन्ध और श्राद्धान्जली क्या हो सकती है।
सन् 1995 से शुरु हुआ धरती अभिषेक आन्दोलन मैती, देखते देखते उत्तराखण्ड से देश, और देश से विदेश में पहुंच कर पर्यावरण संरक्षण में पूरे विश्व का नेतृत्व कर रहा हैं। इनडोनेशिया ने तो वतौर इसे अपने कानून में भी शामिल कर लिया है। धरती बचाने की मुहिमों के चलते श्री कल्याण सिंह रावत जी को अभी तक अनेक सम्मानों से नवाजा जा चुका हैं इसी कड़ी में भारत सरकार ने अपने इस बृक्ष पुत्र को सन् 2019 का सर्वश्रेष्ठ नागरिकता सम्मान पदमश्री से नवाजा।
लोक माटी वृक्ष अभिषेक:-
पर्यावरण संरक्षण को भावनाओं से जोड़ना कोई रावत जी से सीखे, रावत जी ऐसा ही एक किस्सा बताते हैं कि बात सन् 2003 की है जब टिहरी डाम का काम पूरा हो चुका था और पुरानी टिहरी जल समाधी लेने की तैयारी पर थी, पुरानी टिहरी की जगह नयीं टिहरी बस गयी थी इलाके के सभी लोग अपनी थाती के जल समाधि होने पर दुःखी थे। इसमें जमीन के एक टुकड़े के साथ जल समाधी ले रहा था एक ऐतिहासिक नगर, एक समृद्ध सांस्कृति विरासत व लोकभावना के साथ युगों का जीवंत इतिहास। खैर प्रभावित लोगों को घर जमीन जैजाद एवज में मिली हो लेकिन भावनाओं की कीमत पूर्ति सायद कभी हो, विशेषकर उस पीड़ी के लिए जिनके बचपन ने उस मिटटी में ग्वाया लगाया हो।
     रावत जी ने उस विरासत को सम्भालने के लिए एक और भावनात्मक पहल की, जिसमें पुरानी  टिहरी के मुख्य ऐतिहासिक जगहों की मिटटी को थैलों में भरकर नयीं टिहरी लाया गया और उसमें पेड़ लगाये गये। रावत जी तब डायट गौचर में कार्यरत थे। डायट के साथी, एन एस एस छात्र संघटन और टेहरी के माटी पे्रमियां ने रावत जी की इस पहल का साथ दिया। 20 दिसम्बर 2003 को लोक माटी वृक्ष अभिषेक कार्यक्रम किया गया जिसमें एक विशाल जुलूस के साथ पुरानी टिहरी के पैंतीस ऐतिहासिक जगहों की मिटटी में नयीं टिहरी भागिरथपुरम में बृक्ष लगाये गये। आज वे सब ऐतिहासिक स्थळ पेड़ों के रुप में अमर है, विरासत को इस रुप में सम्भालने का अनोखा तरिका माटी प्रेमी ही कर सकता है। आने वाली पीड़ी जब भी इन पेड़ों के पास जायेगी उनमें जरुर अपनी विरासत को जानने की जिज्ञाया जगेगी।   
पर्यावरण संरक्षण संकल्प हस्ताक्षर गिनीज रिकार्ड
रावत जी ऐसे पर्यावरण प्रेमी हैं जिन्होने सदैव पर्यावरण संरक्षण हेतु लीग से हटकर अलग काम किया। इसी कड़ी में सन् 2006 में एफ आर आई देहरादून शताब्दी वर्ष समारोह कार्यक्रम था। रावत जी ने उत्तराखण्ड शिक्षा विभाग के माध्यम से सभी स्कूलों को चिठठी लिखी कि हर स्कूल एक मीटर हरे कपड़े पर बच्चों के पर्यावरण संरक्षण संकल्प हस्ताक्षर कर एफ आर आई भेजें। सभी स्कूलो ने इस पर दिलचस्पी दिखायी और आदेशानुसार कपड़ा देहरादून भेजा। शताब्दी दिवस के दिन रावत जी ने देहरादून के विद्यार्थीयों से सभी कपडों को सिलवाया कर एक करवाया जो 2 किलोमीटर लम्बा बना और इस पर 12 लाख बच्चों के पर्यावरण संरक्षण संकल्प हस्ताक्षर थे। पर्यावरण संरक्षण संकल्प हस्ताक्षर के इस कपड़े से उस दिन एफ आर आई की पूरी ऐतिहासिक बिल्डिंग लपेटी गयी। उत्तराखण्ड के तत्कालीन राज्यपाल महोदय और एफ आर आई डारेक्टर ने इस अद्धभुत काम की भूरी भूरी प्रसंशा की। पर्यावरण सदभाव में यह काम पूरे विश्व का इकलौता काम हुआ जिसे गीनीज बुक के लिए प्रस्तावित किया गया। लेकिन प्रशासन की उदासीनता के चलते यह काम गीनीज बुक में रिकोर्ड नहीं हो सका। यह दो किलोमीटर कपड़ा आज भी एफ आर आई के म्यूजियम मे संरक्षित है।
वृक्ष भक्त मैती जी 
उत्तराखंड की जिस देव भूमि में कल्याण सिंह रावत और उनके जैसे और कितने और अनन्य प्रकृति पे्रमी हों वहाँ प्रकृति क्यों ना उपहार के रुप में कुछ अद्धभुत दे। इसका उदाहरण था उत्तरकाशी मोरी ब्लाॅक टोस नदी के किनारे त्योंणी किरोळी तपड़ में एशिया का सबसे बड़ा चीड़ का वृक्ष़। उस बृक्ष की लम्बाई 85 मीटर थी इस बृक्ष को तीन बार महावृक्ष की उपाधी भी मिली। यह सर्व विदित है कि जहाँ मनुष्य धरती पर जीवन संरक्षण केन्द्र में है वहीं मनुष्य की दुर्भिक्षता जीवन नष्ट करने के धुरी भी रही, उदाहरण यह महावृक्ष भी मानव हस्तक्षेप का श्किार हुआ। 2007 से पहले यह महावृक्ष अपने जीवन उत्तरार्ध से न जाने कितने वर्षों से दुनियां के लोगों का आकर्षण का केन्द्र रहा, पर्यटक हर साल काफी संख्या में इसका दिदार करने  आते थे।
आदमी की लालसा कहो या कुकृत्य या शरारत, पर्यटको में से कुछ लोग पेड़ के तने को खुरच कर उस पर अपना नाम या दिल का निशान खोद देते थे जिसके बुरे असर से इस पेड़ पर इन्फेक्शन हो गया और वह अन्दर ही अन्दर खोखला हो गया। रावत जी ने इसकी सूचना एफ आर आई को दी उन्होने कुछ उपचार तो किया लेकिन वह ज्यादा कारगर नहीं हो सका। वन विभाग और पर्यटक विभाग को पता होने के बाद भी उन्होने लोगों की इस करामात को रोकने की कोई कोशिश नहीं की। मानव हस्तक्षेप के कारण सन् 2007 में एशिया का यह महावृक्ष टूट गया। उसके बाद रावत जी और एफ आर आई के वैज्ञानिकां ने दुबारा इसी प्रजाति के बृक्ष को इसी जगह लगाने का प्लान किया और इसके लिए इस महावृक्ष की याद में एक जल कलश यात्रा का आयोजन किया गया जिसमें त्योंणी के आस पास के 12 गांव के लोग बाजे गाजों के साथ शामिल थे। ऐसे काम के लिए सच्ची पीडा़ का होना अति आवश्यक होता है जो किसी सरकारी डिर्पाटमेन्ट मे नहीं बल्कि अनन्य पे्रमी पर ही देखी जा सकती है। आशा है कि रावत जी के रहते यह पेड़ भी विश्व महाबृक्ष की उपाधि पाऐ एक प्रकृति प्रेमी के लिए इससे बड़ा और पारितोषिक क्या हो सकता है।
उत्तराखण्ड अंतरिक्ष उपयोग केन्द्र का सेवाकाल:-
श्री कल्याण सिंह रावत जी ने शिक्षा विभाग में अपनी सेवा सह अध्यापक, प्रवक्ता, जिला शिक्षा एंव प्रशिक्षण संस्थान, सर्व शिक्षा अभियान जिला काॅर्डीनेटर आदि महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। इसके अलावा रावत जी सन् 2009 से 12 तक उत्तराखण्ड अन्तरिक्ष उपयोग केन्द्र देहरादून में वतौर वैज्ञानिक डेपुटेशन पर सेवारत रहे। यहाँ भी उनकी उपलभ्धि अनुकरणीय रही। उत्तराखण्ड अंतरिक्ष उपयोग केन्द्र में उपलब्धि के रुप में नन्दादेवी राज जात मार्ग का जी पी एस रुट मैप बनाना, उत्तराखण्ड के सभी स्कूलों आंगनबाड़ी से लेकर इन्टर काॅलेजों का पहली बार जी पी एस मैपिंग, हरिद्वार महाकुम्भ मेले में इसरो के वैज्ञानिकों के साथ सैटेलाईट सर्वीलांस जैसे ऐतिहासिक काम रहे। इस कार्यकाल की उत्कृष्ट सेवाओं के लिए उन्हें भारत सरकार द्वारा बेस्ट साइंस अचीवमैन्ट अवार्ड से नवाजा गया।
पर्यावरण संरक्षण और त्रिपल एफ :- 
पर्यावरण संरक्षण की पीड़ा रावत जी मे जीवन पर्यन्त रही और अभी भी है इस पीड़ा को दूर करने के लिए वे निरन्तर आज भी देश प्रदेश के विभिन्न जगहों का भ्रमण करते हैं और पर्यावरण संरक्षण हेतु अभिनव प्रयोग करते रहते हैं। सर्व शिक्षा अभियान जिला काॅर्डीनेटर देहरादून के कार्यकाल में रावत जी ने त्रिपल एफ]  (FFF) Fruit For Further यानि भविष्य हेतु फल मुहिम शुरु की इसके तहत हर टीचर को साल में एक फलदार पेड़ लगाने का था और मास्टर जी द्वारा अपने पाँच प्रियतम विद्यार्थीयों से उस पेड़ के संभाल करने का काम। इस मुहिम का लक्ष्य 40 हजार फलों के पेड़ और चार लाख टन फल उत्पादन का रखा गया। यह भविष्य मे खाद्यय संकट को दूर करने का दूरगामी प्रयास था, लेकिन उनके रिटायरमेन्ट आने के बाद यह मुहिम अन्य सरकारी मुहिमो की तरह हलन्त में चली गयी लेकिन वे कहते है अभी भी मैं सरकार के माध्यम से प्रयासरत हूँ। 
ग्राम गंगा अभियान :-
      सन् 2014 में रिटायरमेन्ट के बाद रावत जी ने प्रवासी उत्तराखण्डीयों को अपने गाँव माटी से भावनात्मक रुप से जोड़ने के लिए ग्राम गंगा अभियान शुरु किया। इसके तहत प्रवासी भाई बन्धू अपने पुजाघर में एक गुलक में हर दिन एक रुपया अपने गांव के नाम डालते हैं। 5 जून विश्व पर्यावरण दिवस के दिन इस गुलक के पैंसों को अपने गांव भेज देते है। इन पैंसों के क्रियान्वयन और गाँव के बच्चों को पर्यावरण से जोड़ने़ हेतु उन्होने USERC (उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्रद्ध  देहरादून के माध्यम से गांव गांव में बच्चों का एक स्मार्ट ईको क्लब बना रखा है। यह क्लब गांव की महिला मैती संस्था के साथ मिलकर उन पैंसों से संबन्धित प्रवासी बन्धु के नाम का पेड़ खरीदकर रोपेते हैं, 100 रुपये बच्चे को पेड़ का संरक्षण हेतु दिया जाता और बाकी बचा हुआ पैंसा गाँव के  शिक्षा स्वास्थ्य पर लगाया जाता है। यह मुहिम प्रवासी बन्धुओं को अपनी माटी से जोड़ने का अभिनव प्रयोग है। जगारुक पर्यावरण प्रेमी प्रवासी बान्धव इसमें बड़ चड़ कर दिलचस्पी ले रहे हैं। इस अप्रीतम काम का सारे राज्य में और प्रचार प्रसार की जरुरत है ताकि और भी प्रवासी भाई लोग अपनी गांव माटी से गहराई से जुड सकें। 
आगामी त्रीपल पी (P) पाँच पेड़ पीपल योजना
     सभी जानते है वर्तमान में कोरोना महामारी के चलते पूरा देश लाॅकडाउन हो रखा है जिसके असर से प्रकृति को भी सांस लेने का मौका मिला। पर्यावरण शुद्ध हवा पानी देने लग गयी है। भविष्य में ऐसे ही पर्यावरण के लिए रावत जी की योजना उत्तराखंड के हर गांव में पाँच पीपल के पेड़ लगाने का है। क्योंकि पीपल आॅक्सीजन का सबसे प्रमुख स्रोत होता है यह वृक्ष रात को भी आॅक्सीजन उत्र्सजन करता है। इस मुहिम का लक्ष्य उत्तराखण्ड को भविष्य में स्वच्छ आॅक्सीजन हब और पर्यावरण मोडल बनाना है। इससे राज्य में देश विदेश के पर्यटक आध्यात्म यात्रा के साथ शुद्ध हवा के लिए भी साल में एक बार यात्रा करंगे। अगर यह कार्य सफल होता है तो राज्य पर्यटन में और वृद्धी होगी। कार्य को अमलीजामा पहनाने के लिए रावत जी ने पीपल के पेड़ उगाने का काम एफ आर आई देहरादून में शुरु भी कर दिया है। दूर दृष्टि का इससे सुन्दर उदाहरण और क्या हो सकता है।   
अवार्ड व पुरुष्कार
पुरुष्कारों की बात की जाय तो जनवरी 2020 तक रावत जी को सरकारी व गैर सरकारी संस्थाओं से लगभग तीन दर्जन से ज्यादा पुरुष्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। इसमें मुख्य रुप से पदम श्री, बेस्ट साइंस अचीवमैन्ट अवार्ड भारत सरकार, गढ़ गौरव, गढ़ विभूति, दून श्री, उत्तराखण्ड रत्न, शिवानन्द फाॅन्डेशन अवार्ड, दधीची अवार्ड आदि लम्बी लिस्ट है। हाँ एक बात मैं जरुर कहना चाहूँगा कि उत्तराखण्ड सरकार ने अभी तक राज्यीय पुरुष्कार हेतु रावत जी की अनदेखी की है, सरकार इस बात का सज्ञान लेगी विश्वाष है।
जीवन में अवार्ड रिवार्ड, मान सम्मान, पूजा प्रतिष्ठा या दंड तिरिस्कार सब कर्मो की देन है, बल, जैसे बोयेंगे वैसे काटेंगे, जीवन आउट पुट इनपुट के सिद्धान्त पर काम करता है साहब। व्यवहार और कर्म में लठ्ठ के बदले लठठ और प्रेम के बदले प्रेम ही मिलता है। गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं -ः
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कमर्यं पुरुषौऽश्नुते ।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ।।

     हे अर्जुन खाली कर्म शुरु करने से सिद्धी प्राप्त नहीं हो सकती ना ही कर्मों का त्याग करने से भाग्यवान बन सकते हैं। नैष्कर्म सिद्धी कर्म के साथ निरन्तर उसके अभ्यास व अनुसरण पर ही निहीत है। “योगः कर्मसु कौशलम्“ अर्थात कर्मों में कुशलता ही योग है और कुशलता के लिए मन कर्म वचन से कर्में में घिसना व तपना होता है तब जाकर  कहीं कुछ कुशल बन सकते हैं। कुशल आदमी एकदम सफल हो इसकी भी कोई गारन्टी नहीं, थाॅमस एल्वा एडिसन एक हजार प्रयोग के बाद ही इलेक्ट्रिक बल्ब पर पहुंचा था। जैसे उपरोक्त उधृत है सफलता के पीछे लम्बी समयवद्धता, संयम और कर्मों की पृष्ठभूमि होती है। ऐसे ही निष्काम कर्मों की पृष्ठभूमि से आज हमारे ‘मैती‘ जी प्रकृति, पर्यावरण अर समाज सेवा में दुन्यां के आईकॅन हैं। रावत जी के कर्मयोग से नयीं पीढ़ी प्रेणा लेगी ऐसा मेरा परम विश्वाष है और लम्बे आलेख का आसय भी। हम सब का कर्तव्य है कि ऐसे पुरुषों की प्रेणा का लाभ सबको मिले ताकि और पर्यावरणविद पैदा हो सकें नही तो ब्रह्माण्ड के अन्य ग्रहों की तरह इस धरती को भी उसर ग्रह खण्ड बनने में देरी नहीं लगेगी।

आलेख - बलबीर सिंह राणा ‘अडिग‘
मटई चमोली
नोट : पूरा लेख श्री रावत जी के विस्तृत साक्षात पर आधारित है।