शनिवार, 31 अगस्त 2019

गर्व और गौरव का पर्व



पर्व यह अभिमान का है
प्रेरणा पुरुषों को प्रणाम का है
त्याग समर्पण और दृढ़ता का
सैन्य फलक पर प्रमाण का है ।

पर्व फेब फोर्टीन की शान का है
शौर्य विजय गाथा गुणगान का है
असंभव कहना नहीं सीखा जिन्होंने
उन रणवांकुंरों के स्वाभिमान का है।

पर्व जन्म जमान्तर विधान का है
गढ़वालियों के स्वाभिमान का है
हो गए जो वतन के लिए आहुत
वीरात्माओं को श्रद्धासुमन सम्मान का है

पर्व है गर्व और गौरव का
पल्टन के सौरव सौष्टव का
वर्तमान कर्मवेदी पर खरा उतरें
वैसे ही कंचन बनकर निखरें
जिन कंचनो की आभा से दीप्त हुआ यह भवन
उन नीव की ईंटों का स्वागत सुमिरण
भविष्य उसी समर्पण से सृजित करेंगे
सत श्री पौधों को उर्जित करेंगे।

रंचना : बलबीर सिंह राणा 'अड़िग'

अडिग शब्दों का पहरा: आर्तनाद

अडिग शब्दों का पहरा: आर्तनाद: पर्णकुटी के छिद्रों से पहली रश्मि रोशनी देखता हूँ गौशाला में कुम्हलाती बछियां रंभाती गवैं देखता हूँ नहीं पता किस धारा किस सेक्शन से बब...

बुधवार, 28 अगस्त 2019

आर्तनाद


पर्णकुटी के छिद्रों से पहली रश्मि रोशनी देखता हूँ
गौशाला में कुम्हलाती बछियां रंभाती गवैं देखता हूँ
नहीं पता किस धारा किस सेक्शन से बबाल मचा है
मैं दिन की बाटी सांझ चूल्हे का  जुगाड़ देखता हूँ

अरुणोदय से गोधूलि तक मिट्टी में खटकता हूँ
दो कौर के उदर को, उदरों के लिए जुतता हूँ
इतना यकीन है मेरे स्वेद से मोती ही निकलेगा
कर्म वेदी पर हर क्षण को स्वाति नक्षत्र देखता हूँ

घाम न देखा नग्न देह ने, न पहचानी शीत पवन
काष्ट बने निष्ठुर पाँवों से होंगे कितने कंकड़ मर्दन
बटन दबाया जिस सपने पर उसे ओझल पाता हूँ
समृद्ध निलय के कंगूरों को दिवास्वप्न सा देखता हूँ

शैशव से नीला अम्बर छत्रछाया छत्रपति देखा
अर्क ताप शीतल पावस से धरा को सजते देखा
अचल अचला पर कहाँ वह रेखा किसीने देखा
जिस अदृश्य रेखा पर इंसानो को कटते देखा।

रंचना : बलबीर राणा 'अड़िग'






शनिवार, 24 अगस्त 2019

लिप्सा के शूल मुझे नहीं चुभते



हर ईंट जतन से संजोयी
कण कण सीमेंट का घोला
अट्टालिकाएं खड़ी कर भी
स्व जीवन में ढेला

यह कैसा मर्म कर्मो का
जीवन संदीप्त पा नहीं सकता
नीली छतरी के नीचे कभी
छत खुद की डाल नहीं सकता

मुठ्ठी भर मजदूरी से
उदर आग बुझ जाती
चूं चूं करते चूजों देख
तपिस विपन्नता की बड़ जाती

चिकना पथ बनाते बनाते
खुरदरी देह दुखने लगी है
पथ के कंकर नगें पावों को
फूल जैसे लगने लगी है

हाँ खुदनशीब हूँ
लिप्सा के शूल मुझे नही चुभते
टाट के इस बिछावन में
फूल सकून के हम चुनते।

@ बलबीर राणा 'अडिग'

बुधवार, 14 अगस्त 2019

भविष्य वन्दना


जयति जयति हिन्दोस्तां भारत विशाला
शान से लहराता रहे ये तिरंगा हमारा
जयति जयति माँ वसुंधरा आर्यावर्त हमारा
सुख समृद्धि से उन्नत रहे हिन्दोस्तां हमारा

सत कर्मो की सेवा जगे सुत कर्मवीर हो
तेरा हर पुत्र भारत माता राष्ट्रधर्म वीर हो
जीवन जुगति प्रगति की हो सब दुर्भाव मिटे
हृदयों में उन्नति के बहु भाव जगे

श्रम शक्ति श्रीमन हो, सब मुख सुख निवाला
शान से  लहराता रहे ये तिरंगा हमारा

कश्मीर से कन्याकुमारी सुकुमार बलवान हो
मणिपुर से कच्छभुज भुजा शूर शक्तिमान हो
बिलग पंथ जातियों से गुंथी यह विपुल माला
श्रेष्ठ मनुजता का सूत्र यह अतुल्य धागा

हिन्दू मोमिन सिख ईसाईयों की एक धारा
शान से  लहराता रहे ये तिरंगा हमारा

दुःख कराल कष्ट ना हो, ना रहे कोई बेचारा
सब धर्मो का मान रहे न चुभे कोई कारा
भाई बंधुत्व की अड़िग भीत, दुर्ग अभेद्य हो
महालोकतंत्र के देश में न कोई विभेद हो

देश क्षितिज के पार तपाये ताप हमारा
शान से लहराता रहे ये तिरंगा हमारा।

गीत : बलबीर राणा 'अडिग'

मंगलवार, 13 अगस्त 2019

प्रकृति निधि


यही प्रकृति निधि यही बही खाते हैं
मोह, प्रेम राग/अनुराग भरे नाते हैं
चेहरे ये आते जाते राहगीरों के नहीं
ये आनन हर उर में घर कर जाते हैं।

जैसे आसमान में निर्भीक बादल टहलते
जैसे निर्वाध विहारलीन खग मृग विचरते
बे रोक-टोक आती पुरवाई बलखाती मदमाती 
नन्हे अंकुर को आने में धरती हाथ बढ़ाती
सृष्टिकर्ता की ये कृतियाँ जीवन गीत गाते हैं
यही प्रकृति निधि यही बही खाते हैं।


पतंग का दीपक प्रेम, पंछी का कीट
मछली का जल, बृद्ध का अतीत
उषा उमंग का निशा गमन करना
दिवा ज्योति का तिमिर हो जाना
फेरे हैं ये फिर फिर कर फिर आते हैं
यही प्रकृति निधि ..............

सुकुमार मधुमास का निदाघ तपना
निदाघ का मेघ बन पावस में बहना
तर पावसी धरती शरद में पल्लवित
तरुणाई शीतल हेमंत में प्रफुल्लित
फिर शिशिर में बुढ़े पत्ते झड़ जाते हैं
यही प्रकृति निधि........

गुरुवार, 1 अगस्त 2019

ब्रह्मपुत्र का तीर


1.
वैशाख में सजता
ब्रह्मपुत्र का यह तीर
मेखला चादर में कसी बिहू नृत्यकाएं
थिरकती हैं ढोल की थाप पर
रंगमत हो जाती मौसमी गीत पर
प्रियतम का प्रणय निवेदन
नर्तकी का शरमाना बलखाना
ना-नुकर कर छिटक जाना
प्रियतम का कपौ फूल से
जूड़े को सजाना
बिहू बाला का मोहित होना
बह्मपुत्र की जलधारा का
लज्जित हो जाना
अमलतास के फूलों का
स्वागत में झड़ना
ढोल की थाप का सहम जाना
दोनो ओर की पहाड़ियों का
आलिंगन के लिए मचलना।

2.
सुहानी संध्या
दूर तक फैला ब्रह्मपुत्र का फैलाव
मांझी भूपेन दा के गीतों को
गुनगुनाते हुए पतवार चलता
देश से आये यायावरों को
सारंग ब्रह्मपुत्र का दिग दर्शन कराता
शहर की बिजलियों की झालर
जलधारा में टिमटिमाते दिखती
नाव आहिस्ता किनारे ओर सरकती।

3.
कहर बन जाता है सावन
डूब जाता बह्मपुत्र का रंगमत तीर
सहम जाता है जीवन
लील जाता है बांस की झोपड़ियों को
जिनमें सजती हैं बिहू बालाएं
मांझी की पतवार किनारे में भयभीत
ब्रह्मपुत्र के इस बिकराल का
जीवन ध्वस्त करना
जीवन का फिर संभल कर संवरना
तीरों को गुलजार होना
सदियों से सतत जारी।

@ बलबीर राणा 'अड़िग'