शनिवार, 28 मई 2022

बड़ा आदमी



बड़ा आदमी 

बनने के लिए

पहले गळदार

बन जावो

फिर जिस भी टाईप का

बड़ा बनना है

बन जाओगे

अनेक टाईप के चारी

अनेक टाईप के नेता

यहां तक कुछेक टाईप के

कुछेक समाज सेवक भी

बड़ा अदमी ही बनता है

जिस टाईप की गळदारी

उस टाईप की बड़ी चाकरी।


गळदार - झूठ बोलकर सौदा पटाने वाला ।


@ बलबीर राणा ‘अडिग’


सोमवार, 23 मई 2022

भूख




बहुत हिम्मत और

ताकतवर है साब भूख

हजारों मील दौड़ती है 

संसार के ओर छोर

महाद्वीपों से महाद्वीप

प्रायद्वीपों से टापुओं में 

दाने के लिए। 


भूख बहुत

भावुक नाजुक 

कंयारी क्वांसीली ठैरी,

पिघल जाती है 

द्वार चौराहों पर 

तीर्थ मंदिरों में 

गली, चौक, चौराहों और दरवारों में, 

स्वान बन नतमस्तक हो जाती है

अपने लायक दाने को।


भूख बड़ी 

खूंखार आदमखोर है 

चूस लेती है खून 

ठेले के नीबू से

मल्टीप्लेस मौलों तक, 

चपरासी की फाइल से 

बड़े साब के हस्ताक्षर तक , 

गली का गड्डा भरने से 

एक्सप्रेसवे बनने तक।


भूख बड़ी झूटी  

लंपट है  

क्षुधा मिटते ही 

वादाखिलापी पर आ जाती है

गिरगिट की तरह रंग 

बदलना इसकी फितरत में है

विशेषकर कुर्सी भूख का। 


झोपड़ी, मंजिलों से

अट्टालिकाओं में, 

टाट पट्टी, 

प्लास्टिक कुर्सी से

लग्जरी रोवोल्विंग चियरों में

विलग रूपों वाली है भूख।


विभन्न भाव भंगिमाओं में

नजर आती है भूख

कहीं रोती बिबलाती

कहीं मुल्ल-मुळकती

कहीं खिखताट तो

कहीं विभत्स ठहाका लगाती 

दुखाती, बनाती, रचाती, नचाती 

रहती है जीवन को। 


कुछ भूख घर चलाने को

कुछ केवल घर भरने को 

कोई भूख, भूखों के लिए

कोई स्व सुखों के लिए 

खटकती रहती है। 


एक भूख प्रेम को

एक घृणा को

एक आत्ममुग्त्ता को

एक राष्ट्र स्वाभिमान को 

व्याकुल करती है । 


भूख 

चातक के जैसे

स्वाति नक्षत्र में 

बरसने वाली बूंद  की प्रतीक्षा में 

तठस्थ नहीं रह सकती

बल्कि

पिपीलिका की तरह 

हर समय गतिमान 

चलायमान रहती है

जीवन चलाने को ।


@ बलबीर राणा ‘अडिग’

बुधवार, 18 मई 2022

अति बल खति




भय भूख और नींद

जितनी बढ़ाओ 

बढ़ती जाती है ।


भय हौंसला

भूख ईमान

और नींद, 

शरीर को 

बंधक बनाती है। 

इलै

अति नि कन

अति बल खति।


@ बलबीर राणा 'अडिग'

सोमवार, 16 मई 2022

मकान बनाने का खेल

बनाती है वह

अपनी तरह की एक 

बहुमंजिला अट्टालिका,

खड़ा करती है लकड़ी के 

टुकड़ों से बिम, 

डालती है कूड़ा करक्कट की छत 

और 

बनने के बाद 

दूर से निहारती है

पसंद ना आए तोड़ती है

फिर बनाती है ।

मकान बनाने का यह खेल 

हर रोज खेलती है

मासूम कुमकुम

सामने बनती उस

ऊँची बिल्डिंग की तर्ज पर

जहां उसके माँ बाप 

सीमेंट सरिया बोककर

जुटाते हैं उसके लिए 

दो वक्त का निवाला। 


@ बलबीर राणा 'अडिग '